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Ye Public Hai: जनता सब देख रही है !: गिरीश्वर मिश्र

Pro girishwar Misra

Ye Public Hai: बेहद बुजुर्ग हो रहे नेताओं को कमान सँभालने में थकान भी ज़ाहिर है पर अगली (या दूसरी) क़तार के नेता ज़्यादातर बयानबाज़ी में मशगूल हैं । चूँकि बहुत से नेता ऊपर से थोपे हुए हैं उनकी जन-रुचि बेहद सतही होती है और उनके खोखले हो रहे जन-लगाव की पोल जल्दी ही खुलती  जाती  है । ऐसे में नेतागण पर थोड़ी देर के लिए ही सही सार्थक प्रयोजन खोजने का दबाव और बेचैनी बढ़ती जा रही है। इस प्रयास में वे तथ्यों को तोड़मोड़ कर और इतिहास की यथेच्छ प्रस्तुति और व्याख्या करने में जुट जाते हैं। अपने सामने वाले को पटखनी देने, कमजोर साबित करने और वोट काटने के लिए नए-नए पैंतरे ढूढते रहना उनके लिए मजबूरी हो गई है ।

 सत्तारूढ़ दल एक दशक तक का रिपोर्ट कार्ड पेश कर आर्थिक प्रगति, समाज के उपेक्षित जनों के लिए सुविधाओं का विस्तार, आइ आइ एम, आई  आई टी और एम्स जैसी संस्थाओं का निर्माण, स्वदेशी उत्पादन और निर्यात में वृद्धि, कश्मीर के मसले में प्रगति, राम मंदिर निर्माण, एक्सप्रेस वे का विस्तार आदि को अपने हिस्से की उपलब्धि के रूप में पेश कर रहा है। जनता भी बदलाव महसूस कर रही है। पर यह भी हक़ीक़त है कि संसद में सत्ता पक्ष को चुनौती देने के लिए प्रतिपक्ष भी होना चाहिए। चुनावी मौसम आने पर मजबूत सत्ता पक्ष को चुनौती देने के लिए कई विपक्षी दलों का एक गठबंधन ‘इंडी’ खड़ा हुआ । इंडी में शुरू से ही आपसी सहमति और संवाद का अभाव बना रहा है।

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चुनाव के बीच राजनैतिक पार्टियों के बीच जिस किसी तरह बना सहयोग अभी तक इस अर्थ में बहुत हद तक दिशाहीन हैं कि साझे का कोई एक फ़ार्मूला नहीं बन सका है और न कोई दृष्टि ही पनप सकी है । राष्ट्र की जगह दलों की अपनी निजी क्षेत्रीय सत्ता की सुरक्षा पहली वरीयता है। उनका भविष्य वहीं पर है इस सच्चाई के साथ वे समझौता नहीं कर पा रहे और बाहर नहीं निकल पा रहे हैं । इस तरह एक विलक्षण प्रकार का सहयोग और कलह का मिला जुला नक़्शा उभर रहा है जिसके तहत इंडी की सहयोगी पार्टियों के बीच आपसी समझौते पूरे देश के लिए नहीं बल्कि सीमित और क्षेत्रविशेष तक चुकने लगे। इसका परिणाम है वे ही दल एक जगह अगर एक दूसरे के विरोधी हैं तो दूसरी जगह सहयोगी हैं। बंगाल इसका प्रमुख उदाहरण है।

PM Modi amit shah after voting

बिखरे होने के कारण समवेत रूप से  विरोधी दलों का कोई ठोस कार्यक्रम नहीं बन पा रहा है। इंडी के सभी सदस्य दलों के अपने-अपने मंसूबे हैं और इंडी के संगठन के प्रति या देश के प्रति निष्ठा को लेकर दलों में किसी तरह की गंभीरता नहीं आ पा रही है । इसका एक बड़ा कारण उन दलों की वे अंदरूनी कमज़ोरियाँ भी हैं जिससे उनकी छवि धूमिल हो रही है। पश्चिम बंगाल में शिक्षक भर्ती घोटाला में शिक्षा मंत्री जेल में हैं, करोड़ों की नक़दी उनसे मिली और अब पचीस हज़ार शिक्षकों की नौकरी पर बन आई है। साथ ही वहाँ की सत्तारूढ़ टी एम सी का दूसरे दलों के साथ स्थानीय अंतर्विरोध भी है जो अन्य दलों से जुड़ने में बाधा पहुँचा रहा है।

कांग्रेस का ज़ोर संविधान के लिए ख़तरे का आग़ाज़, ई डी और सी बी आई का दुरुपयोग, आरक्षण की ऊपरी सीमा को बढ़ाने,  अल्पसंख्यक के हित की रक्षा, सेकूलर दृष्टि अपनाने और बेरोज़गारी पर है। नेताओं के भाषण सुनने पर यह बात साफ़ हो जाती है कि राजनीति की भाषा अटपटी होती जा रही है । सामाजिक, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर सार्थक बहस की जगह नेता को जिताने और उसके एवज़ में कुछ लाभ देने तक सारी बातचीत चुक जाती है। हाँ यह ज़रूर हुआ है कि आपसी असहिष्णुता बढ़ रही है और एक दूसरे के प्रति आदर और सम्मान की जगह अपमानजनक और चिढ़ाने वाली भाषा के उपयोग की ओर नेताओं की रुझान बढ़ रही है। आए दिन चुनावी हिंसा की वारदात भी सुर्ख़ियों में होती है। राजनैतिक निर्णयहीनता को ‘सरप्राइज़’ का पूर्वरंग कहा जा रहा है ।कुल मिला कर किसी प्रत्याशी की विजय की संभावना ही चुनावी रण  में  ख़ास बात होती है। उसकी पात्रता पर विचार को छोड़ जीत दिलाने वाले प्रत्याशी की तलाश में सभी दल जुटे रहते हैं।

चुनाव के दौरान होने वाली घटनाओं के जरिए जो इतिहास बन रहा है वह भी अपना अतिरिक्त असर डाल रहा है । लोग एक पार्टी छोड़ दूसरी पार्टी का दामन पकड़ रहे हैं और टिकट बटोर रहे हैं। ऐसे नए नेताओं की संख्या भी दिनोंदिन बढ़ती जा रही है जिन्हें उनकी पार्टी का नेतृत्व पिछली पीढ़ी से उत्तराधिकार में तश्तरी में पेश कर उपहारस्वरूप सौंप दे रहा है । पारिवारिक पार्टियाँ अपने परिवार के सदस्यों को आगे बढ़ा कर मैदान में उतार रहीं हैं। साथ में राजनैतिक पार्टियों से भेद और जुड़ाव के चलते ही भाई–भाई, पति-पत्नी, और ननद-भाभी आमने-सामने खड़े हो रहे हैं।इनमें बहुतेरे जन और जन के मन से वाक़िफ़ नहीं होते हैं । चूँकि उनके लिए राजनीति स्वयं उनकी अपनी अर्जित की हुई नहीं रहती उनकी सफलता के लिए सिर्फ़ पिछली पीढ़ी की साख का ही भरोसा रहता है जो कभी चल जाता है तो कभी नहीं। इस सिलसिले में देश की सबसे पुरानी पार्टी राष्ट्रीय कांग्रेस की नीति की अस्थिरताओं और वरीयताओं का ज़िक्र ज़रूरी है। के चलते उसके अपने प्रत्याशियों का आत्मविश्वास डावाँडोल होता सा दिख रहा है ।

Ye Public Hai PM Modi

ताजे घटनाक्रम में लोकसभा के दो कांग्रेसी प्रत्याशियों ने अपना नामांकन वापस लिया और एक ने आर्थिक सहायता के अभाव में चुनाव न लड़ने का फ़ैसला लिया और टिकट वापस कर दिया। दिल्ली में बड़ी संख्या में कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी छोड़ दी है । कांग्रेसी-प्रचार तंत्र अपनी न्याय-यात्रा और अपनी संभाव्य सरकार के लिए घोषणाओँ में अनेक सुविधाओं की बारिश करने का वादा ज़रूर करता है परंतु उसका भरोसा करना मुश्किल है । अब राजनीति धीरे–धीरे अल्पकालिक व्यस्तता (या शग़ल) होती जा रही है और नज़र सत्ता हथियाने पर टिकी रहती है। नई रणनीति में प्रत्याशियों की चुनावी पसंद/नापसंद वहाँ की जनता की इच्छा का ही सवाल नहीं रहा । हालाँकि जनता की इच्छा के बिना प्रत्याशी को वोट नहीं मिलता है परंतु इसकी अनदेखी कर सब तदर्थ या ‘एडहोक’ होता जा रहा है । पूरे समाज को साथ लेकर चलना चुनौती बन रही है।  

जाति माता की जय !  के नारे का सभी दल एक स्वर से उच्चार कर रहे हैं। शहर हो या गाँव सभी भेदों को भेदते हुए जाति तले लोग आज भी अपनी सामूहिकता को तलाशते हैं और अपनी अस्मिता को वहीं से रचते हैं। परिणाम यह है कि वैचारिक आधार को धता बता कर जातीय पहचान वोट की राजनीति पर हाबी होता है। राजनैतिक दलों की यह मजबूरी हो जाती है कि जातीय समीकरण की उपेक्षा नहीं कर सकते। साथ ही बात-बात पर ,चाहे वह बेतुकी ही क्यों न हो, राजनेता बतकही करने से बाज नहीं आते । किसने क्या कहा यह विवाद और चर्चा का विषय बन जाता है और ध्यान बटाने लिए विवाद शुरू किया जाता है। 

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 जनता को नासमझ मान नेता गण अपनी ओर से सिखाने-पढ़ाने की हर संभव कोशिश करते रहते हैं। उनकी बेतुकी बातचीत और हरकतें आम आदमी को दुखी भी करती रहती हैं और भाग्य को कोसती हैं ।  नेताओं के विचारों, नीतियों और आचरणों में आपसी संगति को खोजना मुश्किल हो रहा है।  जैसे-जैसे राजनीतिक मंच पर लगा पर्दा सरक रहा है एक-एक कर अजीबोगरीब दृश्य सामने आ रहे हैं। अब सीट क़ब्ज़ाने का कोई सीधा गणित नहीं रहा। जनतंत्र का जन तो जनता के पास है पर तंत्र राजनेताओं के पास जा चुका है। वे तंत्र का उपयोग कर जन पर वशीकरण मंत्र चलाने की भरपूर कोशिश कर रहे हैं। जनता कभी चकित दिखती है तो कभी मुग्ध पर शायद धोखे में पड़ना अब जनता की मजबूरी नहीं रहेगी। जनता सब कुछ गौर से देख रही है।

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