India’s future: मानसिक ग़ुलामी से मुक्ति और भारत का भविष्य: गिरीश्वर मिश्र

India’s future: अमृत-महोत्सव के संदर्भ प्रधान मंत्री ने ग़ुलामी की मानसिकता से मुक्त होने के लिए आह्वान किया है . यह इसका स्मरण दिलाता है कि देश की आज़ादी अधूरी है. हम आज भी मानसिक रूप से पूरी तरह से स्वाधीन नहीं हो सके हैं. पराधीनता के बंधन में दास स्वामी की दृष्टि से स्वयं को और अपनी दुनिया को देखने का भी अभ्यस्त हो जाता है. अभ्यास में आने के बाद जब हम उसके आदी हो जाते हैं तो हमारी भावना, विचार और कर्म सभी उससे अनुबंधित हो जाते हैं. उसकी तीव्रता का अहसास भी ख़त्म होने लगता है और तब दासता दासता नहीं रह जाती.

स्वतंत्रता की भ्रामक चेतना में ग़ुलाम अपने आका की ख़ुशी में ही अपनी भी ख़ुशी देखता है. ग़ुलामी की सोच या मनोवृत्ति (माइंड सेट) संकुचित या प्रतिबंधित दृष्टि के साथ बंधी बंधाई लीक पर चलने को बाध्य करती है. अनुगमन और अनुकरण करते रहना अपनी नियति मान कर इस तरह की सोच सर्जनात्मकता से भी विमुख करती है. इस मनोदशा आदमी यह मान बैठता है कि कुछ भी नहीं हो सकता. इस हाल में आदमी के ऊपर संशय, अनिश्चय और हीनता की ग्रंथि हाबी होने लगती है.

भारत का स्वतंत्रता संग्राम अंग्रेजी साम्राज्य की जिस ग़ुलामी के विरुद्ध लड़ा गया था उससे देश को राजनैतिक स्वाधीनता तो 1947 में मिली परंतु आज जब देश की कमान स्वतंत्र देश में जन्मे नेताओं के हाथ में है तो स्वराज के अधूरेपन की तीस हरी हो रही है. पराधीन भारत में महात्मा गांधी ने 1909 हिन्द स्वराज बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा था कि सिर्फ अंग्रेजों और उनके राज्य को हटाने भर से स्वराज की प्राप्ति संभव नहीं है. उनके जाने पर भी उन्हीं की सभ्यता और उन्हीं के आदर्श यदि बने रहें, तो व्यावहारिक रूप से हम पहले जैसे ही बने रहेंगे. अपनी बात को आगे बढाते हुए उन्होंने पश्चिम की सभ्यता को शैतानी सभ्यता घोषित किया और अपनी शंकाएं व्यक्त की थीं.

महात्मा गांधी में गुलामी का प्रतिरोध और अस्वीकार के साथ भारत की आत्मा की पहचान भी थी और उस चेतना को जगाने के लिए पश्चिमी सभ्यता की प्रखर आलोचना की थी . स्वराज के इस संकल्प-पत्र का प्रतिफलन भारत में 1915 में आने के बाद के उनके निजी जीवन और सार्वजनिक उद्यम में देखा जा सकता है. पराधीन भारत में अपने आचरण और व्यवहार में गांधी जी ने स्वराज की संभावना की मूर्त छवियाँ भी प्रस्तुत कीं. उनके आश्रम और आन्दोलन इसकी सामाजिक प्रयोग शाला बने . इस दृष्टि से गांधी जी का रचनात्मक कार्यक्रम सामाजिक क्रांति का आगाज था जिसमें हिंसक आधुनिक सभ्यता के चंगुल से छूटना मुख्य ध्येय था. उन्होंने पूर्ण स्वराज्य पाने के कार्यक्रम में राजनीतिक पहल और सामाजिक रचनात्मक कार्यक्रम दोनों की भूमिका को रेखांकित किया. वे सविनय अवज्ञा या सत्याग्रह को रचनात्मक कार्यक्रम का सहायक मानते हैं और देश की समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करने वाला कहते हैं. इस तरह उन्होंने औपनिवेशिकता का विकल्प सामाजिक परिवर्तन के रूप में प्रस्तुत किया था.

गांधी जी के शब्दों में रचनात्मक कार्यक्रम ही पूर्ण स्वराज्य या मुकम्मल आजादी को हासिल करने का सच्चा और अहिंसक रास्ता है. सिर्फ अंग्रेजी सत्ता की समाप्ति नहीं बल्कि सर्वोदय उनका उद्देश्य था. वे एक जीते जागते निरामय समाज का निर्माण चाहते थे. स्वतंत्र भारत की कथा में बहुत सारे उतार-चढ़ाव आए और सम्पूर्ण स्वराज आज भी अधूरा है. आज भ्रष्टाचार, पाखण्ड और नैतिक मूल्यों के ह्रास से देश जूझ रहा है. सार्वजनिक जीवन में मर्यादाएं टूट रही हैं और प्रवचन तथा नाटक के दौर चल रहे हैं.

इन सब स्थितियों पर गौर करें तो इस स्थिति के निर्माण में अनेक कारण हैं पर औपनिवेशिक आधिपत्य और उसके बाद हमने जो मार्ग अपनाया उसकी मुख्य भूमिका को नकारा नहीं जा सकता. आधुनिकता का लबादा ओढ़ कर औपनिवेशिकता हाबी रही और एक सभ्यता के रूप में हम उसका समाधान नहीं कर सके. औपनिवेशिक दौर में आर्थिक असमानता खूब बढी थी और बाद में ऎसी संस्थाएं खड़ी की गईं जो उनका प्रभुत्व बनाए रखें. उपनिवेशवाद मूलत: शोषण, दमन और हिंसा से बनता है. तीव्र वैश्वीकरण के युग में भी आज देश के आत्मबोध को सशक्त बनाने के लिए पश्चिम के औपनिवेशिक विचार के खांचों से बाहर निकल कर देखना होगा. परन्तु गुलामी की मानसिकता से मुक्ति पश्चिमी दृष्टि से ही मुक्ति नहीं है. जैसा कि सर्व विदित है बर्तानवी साम्राज्य ने आधिपत्य ज़मा कर आर्थिक शोषण तो किया ही सांस्कृतिक व्यवस्था को भी समूल नष्ट करने की भपूर कोशिश की. दुर्भाग्य से स्वतंत्र भारत में भी भारतीय सभ्यता का ज्ञान की दृष्टि से योगदान पश्चिमाभिमुख बुद्धिजीवी वर्ग ने पहचाना ही नहीं. भारत की आत्मा को बंधन में ही रही. इसकी सामग्री और सैद्धांतिकी की लगातार उपेक्षा होती रही.

साहित्य और संस्कृति का आधार भाषा होती है और देश की भाषाओं की ह्त्या की जाती रही. विचार और कल्पना पर भाषा का क्या प्रभाव पड़ता है यह जान कर औपनिवेशिक प्रभाव को बनाए रखने के लिए अंग्रेजी भाषा को स्थापित किया गया. भाषा सिर्फ संचार का माध्यम ही नहीं बल्कि संस्कृति की वाहिका भी होती है. उसमें इतिहास, भावनाएं और सामाजिक चेतना भी भी निवास करती है. भाषा में सांस्कृतिक मूल्य और आदर्श रचे-बसे होते हैं. भाषा की अपनी विश्व-दृष्टि भी होती है. आरोपित भाषा हमें अपने विचार, मूल्य और कल्पना से विलग करती है. तब हम अपने से बाहर निकल कर खुद (स्व! ) को देखने और पहचानने का काम करते हैं मानों कि वह कोई (अन्य !)दूसरा है. कल्पना का यह आइना यूरोप, उसकी संस्कृति को केंद्र मान कर सारी दुनिया उसी की दृष्टि से देखता है.

थोड़ा विचार करें तो यही लगता है कि भाषा में लोक के अनुभवों का सामाजिक स्मृति कोश स्पंदित होता रहता है और उसे संस्कृति से अलग करना मुश्किल है. अंग्रेजों ने अपनी भाषा लाद कर हम खुद को और दुनिया को कैसे देखते हैं इस पर नियंत्रण किया. इस उपकरण से मानसिक जगत को हथियाने का काम किया गया. जब देश को आजादी मिली तो हम राजनीतिक दृष्टि से इंडिपेंडेंट तो हुए पर अंग्रेजी पर, यूरोपीय ज्ञान, शासन-संरचना और उसकी परम्परा से मुक्ति नहीं मिली. पश्चिम के मानस कारागृह से बाहर निकलना न हो सका. सभ्यता के आलोक में वर्तमान से संवाद नहीं हुआ. यही नहीं पश्चिम की आलोचना भी उन्हीं के दिए खांचे में होने लगी.

इस चर्चा में भारत की पहचान और उसका स्वरूप एक विचारणीय प्रश्न के रूप में उभरता है. निश्चय ही भारत की विविधता और बहुलता उसकी एक उल्लेखनीय विशेषता है जो संरचना और स्वभाव की दृष्टि से उसे राष्ट्र राज्य (नेशन स्टेट) के विचार के सामने सभ्यतामूलक देश की अवधारणा की ओर अधिक उन्मुख करती है. इसी से यह देश प्राचीन काल से परिचित रहा है और यहाँ का लोक-मानस इसी ढंग से काम भी करता है. यहाँ की धरती पर उपजे और पनपे विचारों में लोक, जन और सर्व जैसे विचार बड़े पुराने प्रतीत होते हैं. उसी की अभिव्यक्ति है कि आज भी ‘हम’ शब्द का ‘मैं’ के अर्थ को व्यक्त करने के लिए प्रयोग में प्रचलित है. अभी भी अनोखे अकेले व्यक्ति की तुलना में सामूहिक और क्षेत्रीय पहचान अधिक महत्वपूर्ण है.

यह स्वाभाविक भी है क्योंकि मानव शिशु का जन्म परिवार में होता है और उसकी समूह-निर्भरता जीवन जीने की एक प्राथमिक शर्त बन जाती है. समूहप्रियता का प्रयोजन और उपयोगिता एक सार्वजनीन सत्य है. एक प्राथमिक समूह के रूप में परिवार सहज रूप में उपलब्ध रहता है और भारतीय परम्परा में माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्यों का एक संजाल (नेटवर्क) स्वाभाविक या नैसर्गिक रूप में सक्रिय रहता है. समूह का हो जाने पर ही व्यक्ति को पूर्णता का अहसास होता है.

यहाँ पर यह विचार अधिक प्रचलित स्वीकृत है कि अकेला अधूरा होता है. यहाँ जुड़ने की छटपटाहट और बेचैनी स्वाभाविक रूप से दिखती है. वैयक्तिकता कृत्रिम और अस्वाभाविक है. व्यक्ति के लिए उसकी अपनी सत्ता का अतिक्रमण करना ही विकास का उद्देश्य होता है. अहं के स्वच्छंद विस्तार की जगह उसका नियंत्रण व्यक्ति के विकास का एजेंडा होना चाहिए. अगर वेदांत अहं ब्रह्मास्मि का उद्घोष करता है तो वहाँ भी अपने विस्तार की बात है ताकि व्यक्ति का स्व सर्व समावेशी हो जाय. सबको साथ ले कर चलने वाले स्व ही मुक्त होता है. बंधनों से मुक्त होने पर ही अपने स्वरूप का पता चलता है. भारत की मानसिक गुलामी से उबरने के लिए उसे अपने स्वरूप और अस्मिता को अपनी दृष्टि से पुन: पहचानना होगा.

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