misra 2004

Girishwar Misra: भारती हिन्दी के विकास को साकार करने की चुनौती

मैंने एक परियोजना को भी आरंभ किया जिसके द्वारा ऐसे ई-कोश को विकसित किया जाए जहां शब्द, उसके अर्थ, साहित्य में प्रयोग और उच्चारण का उल्लेख हो: गिरीश्वर मिश्र (Girishwar Misra)

अभिषेक त्रिपाठी : प्रो. मिश्र आप भारत के जाने-माने समाज वैज्ञानिक हैं। आपने हिंदी में सामाजिक विज्ञान में शोध कार्य और लेखन कार्य को बढ़ावा दिया है। भारतीय संदर्भ में समाज विज्ञानों की स्थिति खासकर हिंदी माध्यम के विद्यार्थियों के संदर्भ में इसकी प्रासंगिकता के बारे में आपके क्या विचार हैं?

गिरीश्वर मिश्र:  (Girishwar Misra) भारत में ज्ञान-विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचुर साहित्य विकसित हुआ है। हमारे यहां प्राचीन  काल से आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक ज्ञान सृजन की उत्कृष्ट परंपरा मिलती  है। यहाँ  मनुष्य  की चेतना और उसके परिवेश पर भी गहनता पूर्वक विचार किया गया है। इस परंपरा की उपेक्षा करते हुए भारत में औपनिवेशिक शासन के दबाव में विद्यालय से लेकर उच्च शिक्षा तक पश्चिम, खासकर ब्रिटेन की छाया में, अध्ययन-अध्यापन की संस्कृति विकसित हुई। इसमें भौतिकतावाद को ही यथार्थ या वास्तविकता का साँचा माना और समझा गया। आनुभारतविक और मात्रात्मक ( इम्पीरिकल और क्वैन्टीटेटिव ) भौतिक  संदर्भ में ही ज्ञान को समझा गया। सीखने-सिखाने और ज्ञान रचने की प्रक्रिया में सांस्कृतिक परंपरा और आध्यात्मिकता को महत्व न देकर नकारा  गया।

इससे भारत की अकादमिक संस्कृति का चिंतन-फलक सीमित हो गया। हम समझने लगे कि आर्थिक समृद्धि ही खुशहाली की जान है। समय के साथ-साथ भारतीय चिंतक और विचारक इस सीमा से परिचित हुए। हमने सुख और खुशी जैसे संप्रत्ययों को समझने के लिए ‘वेल बीइंग‘ और जीवन की गुणवत्ता जैसे आयाम जोड़े। यह स्वीकार किया कि भारतीयों को समझने के लिए सांस्कृतिक परंपरा भी एक महत्वपूर्ण स्रोत है। अब धीरे-धीरे  भारतीय विचारकों में यह पश्चिम की दृष्टि के विकल्प को प्रस्तुत करने की आवश्यकता का अनुभव शुरू हुआ है। मैंने स्वयं इस दिशा में रूचि ली  है  और  भारतीय संस्कृति और संदर्भ को ध्यान में रखते हुए मनोविज्ञान के क्षेत्र में कार्य किया। मैंने यह प्रयास किया कि राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ हम वैचारिक स्वराज की ओर भी आगे बढ़े। इस वैचारिक स्वराज के लिए अकादमिक जगत का संस्कृति सापेक्ष और मूल्यपरक होना बेहद जरूरी – अपरिहार्य है। अपने स्तर से मैंने इस क्षेत्र में यथासंभव योगदान करने का प्रयास किया है।

अभिषेक त्रिपाठी: अपने बाल्यावस्था के अनुभवों और पारिवारिक परिवेश के विषय में हमें कुछ बताइए।

गिरीश्वर मिश्र: (Girishwar Misra) मेरा बचपन एक ऐसे पारिवारिक परिवेश में बीता जहां शास्त्र और लोक दोनों विद्यमान था। मैं अपने संयुक्त परिवार में सबसे छोटा था। पंडित विद्यानिवास मिश्र मेरे अग्रज थे। वे हमारे  लिए प्रेरणा स्रोत । वे एक स्तर पर वेद, उपनिषद, व्याकरण जैसे जटिल विषयों का गहन अध्ययन कर रहे थे तो दूसरी ओर लोक का भी अन्वेषण कर रहे थे। उनके लेखन में जयदेव, कालिदास के साथ-साथ गांव का जीवन भी उपस्थित है। वे  टिकोरा, हरसिंगार, और राम का मुकुट भीग रहा है आदि ललित निबंध लिखते हैं। उनके द्वारा लिखित ‘छितवन की छांव’ जैसे निबंधों को देखते-पढ़ते मैंने बचपन बिताया। उन्होंने बहुत सारे लेखों को बोला और मैंने लिखा। साहित्य में कैसे डूबा जाए? इसका व्यसन उन्होंने लगाया। उनके माध्यम से मुझे हिंदी साहित्य की अनेक विभूतियों से मिलने का मौका मिला। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री अमृतलाल नागर और अज्ञेय आदि अनेक साहित्यकारों से मैं परिचित हुआ। उनके साथ रहने से जीवन जीने के अर्थ को समझना सीखा। भाषा,  परंपरा और संस्कति  को निकट से सीखा।

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अभिषेक त्रिपाठी: आपने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शोध कार्य किया है। फुलब्राइट फैलोशिप जैसे प्रतिष्ठित अध्येतावृत्ति के दौरान विदेशों में अध्यापन कार्य भी किया है। अपने अंतरराष्ट्रीय अनुभव के विषय में भी कुछ साझा कीजिए.

गिरीश्वर मिश्र: (Girishwar Misra) मैंने अपना आरंभिक शोध कार्य भारत में किया। साथ ही विश्व विद्यालय में  अध्यापन कार्य भी आरंभ किया। वर्ष 1991 में फुलब्राइट फैलोशिप पर अमेरिका के स्वार्थ मोर कालेज, फिलाडेल्फिया और मिशिगन  विश्वविद्यालय में शोध कार्य के लिया गया। यहां मैंने पाया कि विश्वविद्यालय की अकादमिक  संस्कृति में द्रिजनात्मक रूप से पढ़ने-लिखने और सोचने पर बल दिया जाता है। वहां पढ़ने और अध्ययन करने वालों को अवसर और संसाधन भी पर्याप्त उपलब्ध होता  है। इस अध्येतावृत्ति के लिए अध्ययन का विषय मैंने मनोविज्ञान में ज्ञान का स्वरूप रखा था । इस कार्य को करने के दौरान मनोविज्ञान जगत के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त मनोवैज्ञानिक केनेथ गर्गन के साथ कार्य करने का मौका मिला।

इन्होंने सामाजिक रचनावाद नामक सैद्धान्तिक उपागम का समर्थन किया था जिसके अनुसार हमारा ज्ञान रचा जाता है। इस उपागम द्वारा ज्ञान के क्षेत्र में किसी एक दृष्टि के वर्चस्व का खंडन होता है और संस्कृति की भूमिका बढ़ती है। विभिन्न विषयों की वैधता स्वीकार की जाती है। उनके साथ अध्ययन करते हुए मैंने मनोविज्ञान में ज्ञान के स्वरूप के विविध पहलुओं को समझा।

वहां से लौटने के बाद इस दृष्टि का भारतीय संदर्भ में विकास किया। हार्वर्ड, शिकागो, सैनफ्रांसिस्को, मिशीगन आदि में मैंने अनुभव किया कि  इन संस्थानों में एक ऐसी सजग अकादमिक संस्कृति विकसित हैं जहां जानने और करने की उत्सुकता और लगन है। इस संस्कृति के भाव को मैंने भी अपने कार्यक्षेत्र में यथासंभव पोषित करने का प्रयत्न किया है। इसके  अनुरूप जिन पाठ्यक्रमों को मैं पढ़ाता था उन्हें सतत अद्यतन किया। अपने कार्यक्षेत्र और कक्षा में वैचारिक खुलापन और अकादमिक स्वतंत्रता को बढ़ावा दिया। विद्यार्थियों और सहकर्मियों के बीच प्रश्न पूछने और सकारात्मक आलोचना करने की संस्कृति को भी बढ़ावा दिया। अपने निकट के आए मित्रों , छात्रों और अध्येताओं को प्रेरित करने के लिए अभी भी उद्यत रहता हूँ.

अभिषेक त्रिपाठी: आप साहित्य और लेखन के लिए समय कैसे निकालते हैं?

गिरीश्वर मिश्र:  समय सबके पास है। आप समय और संसाधन का उपयोग कैसे करते हैं? यह निर्णय महत्वपूर्ण होता है। यह विज्ञान कम कला अधिक है। आपके मन में कुछ लिखने या करने की छटपटाहट हो, जागरूकता हो, उत्सुकता हो तो आप इस कार्य को कर लेते हैं। मैंने एक विद्यार्थी, अध्यापक और शोधकर्ता के रूप में ही अपने जीवन को रचा है। इन्हीं भूमिकाओं में मैं संलग्न रहता हूं। इस कारण कई बार मेरे निकट के मित्र नाराज भी हो जाते हैं लेकिन मुझे जानने वाले लोगों ने मुझे इसकी छूट दे रखी है। मेरे गुरुजनों का आशीष मेरे साथ है। मेरे परिवार के सदस्य भी मेरी इस आदत से भलीभांति परिचित हैं इसलिए उन सभी ने मुझे लिखने पढ़ने और करने का अवकाश दे रखा हैं। अकादमिक की दृष्टि से तो मैंने मुख्यतः मनोविज्ञान के क्षेत्र में कार्य किया है। इसके अलावा निबंध विधा में लेखन का कार्य किया है। मैंने रोजमर्रा के जीवन की चुनौतियों, संस्कृति में बदलाव और आसपास की घटनाओं को इसके विषय के रूप में चुना है। गांव-नगर, प्रकृति, बदलते रिश्ते आदि के अनुभवों पर मैंने विचार करने की कोशिश की है। प्रकृति मनुष्य और संस्कृति के संबंधित विविध आयामों को पर भी लिखने की कोशिश की है।

अभिषेक त्रिपाठी: महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय , वर्धा के कुलपति के रूप में आपने इस विश्वविद्यालय की अकादमिक संस्कृति को कैसे समृद्ध किया?

गिरीश्वर मिश्र: यह मेरा सौभाग्य था कि  मुझे वर्ष 2014 से 2019 तक कुलपति की भूमिका में हिंदी विश्वविद्यालय का सेवा करने का मौका मिला मुझे। मुझसे पूर्व यहां पर तीन कुलपति हो चुके थे। इन लोगों ने अपने-अपने ढंग से विश्वविद्यालय की कल्पना की और विश्वविद्यालय की आधारशिला रखी। मैंने विश्वविद्यालय की मूल अकादमिक -सांस्कृतिक अवधारणा को ध्यान में रखते हुए इसकी अकादमिक संस्कृति को निर्मित करने का कार्य किया। मेरे सामने हिंदी को लेकर तीन स्थितियां स्पष्ट थीं। पहली, लगभग 1200 वर्षों में हिंदी, उसकी बोलियों या कह लें जनपदीय भाषाओं का विकास एवं विस्तार, दूसरी, हिंदी का अन्य भारतीय भाषाओं से संबंध, तीसरी भारत के बाहर हिंदी की उपस्थिति। इन तीनों रूपों को ध्यान में रखते हुए ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में हिंदी को समर्थ बनाने का प्रयास किया। विश्व हिंदी सम्मेलन में विश्वविद्यालय द्वारा हिंदी के भविष्य को लेकर सकारात्मक प्रस्ताव रखे गए। मेरे आने से पूर्व वर्धा हिंदी शब्दकोश प्रकाशित हुआ था। इससे जुड़े अनेक विवाद हुए थे। इन विवादों का निस्तारण करते हुए दूसरे संस्करण का प्रकाशन कराया।

इसके साथ-साथ भोजपुरी-हिंदी-अंग्रेजी कोश का प्रकाशन कराया। चीनी-हिंदी-अंग्रेजी, जापानी-हिंदी-अंग्रेजी, स्पेनिश-हिंदी-अंग्रेजी कोश तैयार करवाया , विदेशी छात्रों हेतु मानक पाठ्यक्रम तैयार काराया, और विदेशी छात्रों के लिए  वर्धा में हिन्दी शिक्षण के कार्य को गति दी । समाजकार्य विषय का स्वदेशीकरण करते हुए समाज कार्य की गांधीवादी दृष्टि को विकसित करवाने का कार्य किया। शिक्षा विभाग का आरंभ मेरे कार्यकाल के दौरान हुआ। यहां अनेक नवाचारी कार्यक्रम चल रहे हैं।विश्व विद्यालय को निक द्वारा ए ग्रेड प्राप्त हुआ ।  इन 5 वर्षों में आधारभूत संरचना के विकास का कार्य भी किया गया जो अन्यान्य कारणों से ठहरा हुआ था । संस्कृति  मंत्रालय के सहयोग से एक ऑडिटोरियम का निर्माण हो रहा है। इसी तरह एक संग्रहालय भी निर्माणाधीन है। शमशेर बहादुर सिंह की रचना संचयिता, विनोबा संचियता जैसे महत्वपूर्ण प्रकाशन व्यक्तिगत रुचि लेकर करवाए। विद्यार्थियों और अध्यापकों के साथ मिलकर शोध की संस्कृति बनाई। अध्यापकों को प्रोत्साहित किया कि वे शोध परियोजनाओं में रुचि लें। सूवनाप्रौद्योगिकी के युग में ई-पीजी पाठशाला परियोजना के अंतर्गत हिंदी के विद्यार्थियों के लिए 280 व्याख्यान तैयार किए गए। इन व्याख्यानों में पाठ्य सामग्री, उसकी वीडियो प्रस्तुति एवं आकलन का ध्यान रखा गया है।

Girishwar Misra

मैंने एक परियोजना को भी आरंभ किया जिसके द्वारा ऐसे ई-कोश को विकसित किया जाए जहां शब्द, उसके अर्थ, साहित्य में प्रयोग और उच्चारण का उल्लेख हो। शोध विधि और शोध लेखन  पर विस्तृत चर्चा हुई , अनेक संगोष्ठियाँ हुईं जिनमें दक्षिण भारत की भाषाओं और हिन्दी के बीच अनुवाद , विभिन्न भाषाओं के  साहित्य में  भारत बोध , आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का अवदान, तथा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल  का  मनोविमर्श आदि पर केन्द्रित गोष्ठियां प्रमुख थीं। विश्व विद्यालय ने भोपाल और मारीशस में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसे विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने भी सराहा था। बहुवचन और पुस्तक वार्ता , तथा एनल्स आफ हिन्दी स्टडीज जैसी पत्रिकाओं और अनेक ग्रंथों  का प्रकाशन हुआ।

इस दिशा में भी महत्वपूर्ण प्रगति हुई  है। प्रवासी हिन्दी साहित्य का प्रकाशन हुआ और विश्वविद्यालय मेंअनेक कृती साहित्यकारों  यथा सुश्री चित्रा मुद्गल, प्रतिभा राय, सूर्य बाला, दामोदर खडसे, श्रीराम परिहार, आदि ने  बौद्धिक परिवेश को समृद्ध किया। अपने कार्यकाल के दौरान हिंदी में प्रबंधन जैसे आधुनिक ज्ञानानुशासन का अध्ययन की शुरूआत की। ऐसे ही रुचि लेकर हिंदी में कानून की पढ़ाई की तैयारी भी की। निकट भविष्य में यह परियोजना भी साकार होगी। इस तरह से मैंने यथासंभव प्रयत्न किया कि विश्वविद्यालय  के अनुरूप एक बेहतर पढ़ने-पढ़ाने की संस्कृति को विकसित कर सकूं। 

आज के युग में विघ्न बाधाओं की कमी नहीं होती है तथापि  मुझे संतोष है कि हिन्दी के लिए समर्पित एक संस्था के निर्माण में मनोयोग से कार्य कर सका जिसके लिए मैं विश्व विद्यालय के छात्रों , कर्म चारियों और अध्यापकों के प्रति कृतज्ञ हूँ  । मुझे विश्वास है कि यह संस्था अपने उद्देश्यों की और आगे बढ़ेगी  । 

*अभिषेक त्रिपाठी , बेल फास्ट आयरलैंड  द्वारा लिए  साक्षात्कार  पर आधारित और संपादित

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