इंडियन सोशल वर्क: (Indian Social Work) समाजकार्य शिक्षा के भारतीयकरण के उद्देश्य की प्राप्ति का प्रथम संस्करण
भारत में समाज कार्य शिक्षा (Indian Social Work) के संदर्भ में 17फरवरी एक महत्वपूर्ण दिवस रहा. जैसा कि हमें ज्ञात हैसमाज कार्य का अध्ययन एवं शिक्षण भारत में कुछ दशकों से की जा रही है. हालांकि समाज कार्य की उपयोगिता भारत जैसे सांस्कृतिक देश में सिद्ध नहीं हो पाई है.
इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि इस शिक्षा पद्धति को इंग्लैंड एवं अमेरिका के अनुरूप ही प्रक्षेपित कर दिया गया है. और इसी कारण से यह महत्वपूर्ण शिक्षा अपने अस्तित्व को ढूंढ रहा है. ज्ञात हो कि (Indian Social Work) भारत सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिकता का केंद्र रहा है. जिस देश में चार धर्म की उत्पत्ति हुई हो साथ में ध्यान, योग एवं दर्शन के अपार ज्ञान हो, ऐसे में अपने भारतीय उपलब्ध ज्ञान की उपेक्षा कर औपनिवेशिक मानसिकता से किसी विदेशी शिक्षा को विस्तारित कर हम कुछ नहीं हासिल कर सकते हैं.अगर समाज कार्य अध्ययन एवं अभ्यास को भारत में प्रसारित एवं पल्लवित करना है तो भारत के परंपरागत ज्ञान एवं कौशल को भी इस शिक्षा में शामिल करना होगा.
डॉ विष्णु मोहन दास एवं उनके सह लेखकों ने इस वास्तविक खाई को जाना एवं पुस्तक लेखन के माध्यम से भारतीय ज्ञान परंपरा को पटल पर लाने का प्रयत्न किया है. और उसी की एक कड़ी है ‘इंडियन सोशल वर्क’ (Indian Social Work) जिसे रूटलेज टेलर एंड फ्रांसिस ग्रुप द्वारा प्रकाशित की गई है. इस पुस्तक के सहलेखक हैं मिथिलेश कुमार,धर्मपाल सिंह एवं सिद्धेश्वर शुक्ला. वस्तुतः यह पुस्तक सामाजिक कार्य शिक्षा के लिए कई रूपरेखा और प्रतिमान प्रदान करती है जो स्वदेशी सिद्धांतों और सांस्कृतिक प्रथाओं को एकीकृत करती है।
साथ ही यह सामाजिक कार्य को भारत में एक पेशे के रूप में विकसित करने में मदद करने के लिएसेवा,दान और स्वयंसेवा की स्वदेशी परंपराओं को शामिल करने के लिए सामाजिक कार्य में विविधता लाने और पुन: पेश करने की आवश्यकता पर केंद्रित है।
यह पुस्तक यह सामाजिक कार्य पाठ्यक्रम के भारतीयकरण की आवश्यकता पर जोर देता है ताकि इसे एक विविध भारतीय समाज के सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भों पर लागू किया जा सके। पुस्तक, कार्य और ज्ञान, और कौशल के साथ सामाजिक कार्य चिकित्सकों को तैयार करने के लिए ध्यान, योग, भक्ति और प्राचीन बौद्ध और हिंदू दर्शन से प्राप्त रणनीतियों को चित्रित करती है, जो विभिन्न समुदायों और स्वदेशी लोगों के साथ साझेदारी में काम करने की उनकी क्षमता का समर्थन और वृद्धि करेगी।
यह पुस्तक शिक्षकों, क्षेत्र चिकित्सकों और सामाजिक कार्य, समाजशास्त्र, धार्मिक अध्ययन, प्राचीन दर्शन, कानून और सामाजिक उद्यमिता के छात्रों के लिए आवश्यक की पूर्ति के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत सिद्ध होगा. 17 फरवरी को इस पुस्तक का विमोचन किया गया है जिसमें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफ़ेसर जगदीश कुमार, टुमकुर विश्व विद्यालय के कुलपति प्रोफेसर वाई. एस. सिद्धेगौड़ा, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार केअतिरिक्त सचिव श्री अखिलेश मिश्रा, पुस्तक के सभी सह लेखक एवं अनेकों अनेक छात्र एवं शिक्षक मौजूद थे. कार्यक्रम की विधिवत आयोजन एवं प्रचालन टेलर एवं फ्रांसिस ग्रुप, भारत शाखा के पदाधिकारियों द्वारा किया गया.
कार्यक्रम के शुरुआत में पुस्तक के प्रमुख लेखक डॉ विष्णु मोहन दास ने कहा कि यह पुस्तक भारतमें सामाजिक कार्य के भारतीयकरण की दिशा में एक रोड मैप बनाने की दिशामें एक बड़ा योगदानप्रस्तुत करती है,जो कि यूरोसेंट्रिक पेशेवर अवधारणात्मक समालोचना विकसित करने के लिए कुछ बहुत ही व्यावहारिक तर्क प्रदान करती है और भारतीय व्यावसायिक स्वैच्छिक लोकोपकारक, समाज कल्याण और सामाजिक सेवा परंपराओं की स्थापना करती है।
साथ ही तुमकुर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर सिटी गौरव जी ने कहा,यह पुस्तक भारत में सामाजिक कार्य शिक्षा के भारतीयकरण की दिशा में एक प्रमुख उपलब्धि हैउनका मानना है कि यह पुस्तक प्राचीन हिंदू बौद्ध जैन आदि दर्शन के विभिन्न तरीकों का वर्णन करती है. उनका यह भी मानना है कि भारतीय सामाजिक कार्यकर्ता को ज्ञान और कौशल के साथ तैयार करने के लिए भारतीय पद्धतियों से परिचित होना पड़ेगा,और इसलिए यह पुस्तक उनके इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए उपयोगी सिद्ध होगा.
भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव पर कार्यरत अखिलेश मिश्रा जी ने डॉ विष्णु मोहन दास एवं उनके सभी शाह लेखकों का अभिनंदन करते हुए अपने वक्तव्य में कहा कि हम सभी को अपने स्थानीय जरूरतों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए.उन्होंने इस पुस्तक को सामाजिक कार्यों पर ध्यान केंद्रित करने वाला साथ ही उच्च शिक्षा में बहुत ही व्यापक एवं बहुआयामी शोध सामग्री की तरह इस पुस्तक को सराहा है.
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर जगदीश कुमार ने इस पुस्तक विमोचन कार्यक्रम में अपने वक्तव्य की शुरुआत संस्कृत की एक उद्धरण ‘एकं सत्यं विप्रा बहुधा वदंति’ से की. उन्होंने कहा कि भारत के दार्शनिक सोच में जीव एवं जनता के बीच में आत्मीयता का संबंध रहा है. प्रोफ़ेसर कुमार ने एक लघु कथा के माध्यम से भारतीय दर्शन को समझाने की कोशिश की जिसमें एक साधु की कुटिया में कुत्ते का आगमन होता है, कुटिया में मौजूद बच्चे इस बात को देख रहे होते हैं पर अचानक साधु उस कुत्ते के पीछे भागता हुआ बाहर की तरफ जाता दिखता है.
वापस आने पर उस बच्चे ने साधु से पूछा कि आप उस कुत्ते के पीछे क्यों जा रहे थे.साधु ने उत्तर दिया वह कुत्ता भूखा था रोटी ले गया मैं तो उसे रोटी के साथ खाने के लिए मक्खन देने गया था.इस बात को दर्शाता है कि भारतीयों में अपनों के साथ साथ अपने आसपास के जीवित एवं निर्जीव के साथ भी एक आत्मीय संबंध होते हैं.साथियों उन्होंने कहा की हमारी सभ्यता संस्कृति एवं सोच को आगे बढ़ाना चाहिए, हमें गर्व होना चाहिए कि हम भारतीय संस्कृति में पले बढ़े हैं हैं.
भारतीय संस्कृति एवं सोच को आगे बढ़ाने का बिल्कुल ही मतलब नहीं है कि हम रूढ़ीवादी एवं समय से पीछे जा रहे हैं. हमें अपने समृद्धि साली देश पर गर्व होने के साथ साथ आत्म निर्भर होने की क्षमता भी रखते हैं.
विवेकानंद जी ने कहा था कि पूरे विश्व की धनसंपदा भी भारत के एक गांव को मदद करने के लिए अपर्याप्त है जब तक कि उस गांव का प्रत्येक जन अपने पैरों पर ना खड़ा हो जाए.जेएनयू के कुलपति जी ने कहा कि भारत के परिपेक्ष में इस पुस्तक का हिंदी में उपलब्ध होना अनिवार्य है.उन्होंने पुस्तक के लेखकों से अनुरोध किया कि इस पुस्तक की उपलब्धता भारत के सभी पुस्तकालयों में होनी चाहिए.अपनी मातृभाषा पर शिक्षक सामग्री का उपलब्ध होना विषय को अच्छे से समझने के साथ-साथ रुचिकर होता है.
और अंत में सिद्धेश्वर शुक्ला जी ने धन्यवाद ज्ञापन किया एवं सभी गणमान्य व्यक्तियों का शुक्रियाअदा किया कि वह इस पुस्तक विमोचन पर उपस्थित होकर पुस्तक की गुणवत्ता एवं आवश्यकता पर प्रकाश डाल सकें.
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