Ek Raat: एक रात ऐसी भी… ममता कुशवाहा
Ek Raat: इतने एक स्त्री की रोने की आवाज आई, जो मुझे भी जाने दो, बचाओ कोई है …..
Ek Raat: एक रात ऐसी भी
एक रात अचानक नींद मेरी खुली
दरवाजा खोला बाहर आया मैं
अजीब सा मंजर छाया हुआ
अपनो की अफरा तफरी चारों बगल
कुत्तों की रोने की अवाजें आ रही
मानो आने वाला संकट के बारे में सचेत कर रहा हो
लोग मुझे निहार रहे मैं उन्हें आखिर हुआ क्या?
चल रही थी द्वंद मेरे अंर्तमन में
इतने एक स्त्री की रोने की आवाज आई
जो मुझे भी जाने दो, बचाओ कोई है …..
निसहाय होकर मदद की गुहार लगा रही
कुछ लोग उस स्त्री के तरफ दौरे
कुछ लोग वही निस्तब्ध रहे
मैं भी साथ पीछे – पीछे गया
कोई बताए इससे पहले घटना से रूबरू हो गया
कि स्त्री का छोटा सा आशियाना
अग्नि की प्रकोप से राख हो गया है
और सब आंखों के सामने खत्म हो गया
वो बिलख- बिलख रो रही
कुछ सांत्वना देने लगे तो कुछ बेतुकी बातें
आखिर क्या था कसूर उसका
जिसके आशियाने को अग्नि प्रकोप से न बचाया गया
बस समाज के उच्च वर्ग कहलाने वाले देखते रहे
उजड़ते निर्दोष , निसहाय स्त्री का घर
क्योंकि वह थी एक दलित वर्ग की
सब देख मैं खुद को असहज पाया
क्योंकि मैं भी उसी समाज का एक हिस्सा था
जिस पर गर्व था पर वही उच्च वर्ग ,उच्च कोटि
जिससे मुझे नफरत सा होने लगा
जहाँ इंसानियत बाद में पहले जाती देखा जाता है ।
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