Teacher’s day: गुणवतापूर्ण शिक्षा का कोई विकल्प नहीं है: गिरीश्वर मिश्र
Teacher’s day: शिक्षक दिवस हमें यशस्वी शिक्षाविद और भारत के दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन का स्मरण दिलाते हुए शिक्षा में उत्कृष्टता के प्रति समर्पित होने के लिए प्रेरित करता है। आज भारत सशक्त और आत्मनिर्भर देश होने के अपने संकल्प पर आगे बढ़ रहा है। इस लक्ष्य में सारे देश की सुख और समृद्धि की कामना निहित है जिसे मूर्त आकार देने में शिक्षा की केंद्रीय भूमिका से शायद ही कोई असहमत हो। दर असल ज्ञान पर टिकी इक्कीसवीं सदी की तेज-रफ़्तार सामाजिक और आर्थिक दुनिया में किसी भी समाज की सामर्थ्य उसकी शिक्षा-व्यवस्था की गुणवत्ता पर ही निर्भर करती है।
ताजी रपट के अनुसार वैश्विक मानव विकास के सूचकांक में नार्वे सबसे ऊपर है और वह पूरे विश्व में शिक्षा पर सबसे ज़्यादा खर्च करने वाला देश है। भारत 189 देशों की सूची में 131 रैंक पर है । इसके ब्योरे में जाने पर उन देशों की शिक्षा में शिक्षक की तैयारी की ख़ास भूमिका स्पष्ट रूप से दिखती है। सभी विकसित देश शिक्षक-प्रशिक्षण को गम्भीरता से लेते हैं। वे यह सुनिश्चित करते हैं कि शैशवावस्था से ही अर्थात् जब से बच्चा प्ले स्कूल जाना शुरू करता है सीखने का संरचित अनुभव मिले। इसके अंतर्गत बच्चे को सृजनात्मकता के साथ सीखने का भरोसेमंद और प्रीतिकर अनुभव देने की भरपूर कोशिश होती है। इसकी व्यवस्था किसी राजनेता या नौकरशाह की मंशा की जगह शिक्षण-शास्त्र की सैद्धांतिक और व्यावहारिक उपलब्धियों के आलोक में आयोजित की जाती है।
समाज और विद्यालय के बीच एक पारदर्शी और भरोसे का रिश्ता भी बना रहता है जो तदर्थवाद (एडहाकिज़्म) की जगह उनकी ज़िम्मेदार भागीदारी में झलकता है। दोनों का उद्देश्य बच्चे की अंतर्निहित प्रतिभा की अभिव्यक्ति और उसकी रुचि का आदर करते हुए कौशलों के अर्जन को सम्भव बनाने पर ज़ोर देती है। इसके अंतर्गत माता-पिता की समझ और ख्वाहिश को थोपने की जगह बच्चा बहुत हद तक एक स्वायत्त ढंग से सीखने वाला स्वतंत्र व्यक्ति होता है। इनकी परिपाटी में श्रम की सहज गरिमा हर व्यवसाय में झलकती है और सफ़ाई कर्मी भी शान से किसी और व्यक्ति के साथ (बिना ऊँचे या नीचे पद के भेद से प्रभावित हुए) बेझिझक संवाद करता पाता है।
शिक्षक भी शिक्षण कार्य को गहन तन्मयता के साथ अंजाम देते हैं। उनके दैनंदिन आचरण से शिक्षा के आयोजन में आंतरिक रूप से मानव मूल्यों का निर्माण गति प्राप्त करता है। शिक्षा की प्रक्रिया में अध्ययन, मनन, और उपयोग के लिए जिज्ञासा और सृजनात्मकता पर बल दिया जाता है। यह ज़रूर है कि शिक्षा में वर्ग भेद नहीं है या बहुत काम है। विद्यालय में समाज के हर वर्ग के बच्चे को एक ही तरह की मिलती है।
भारत में शिक्षा पाने का अधिकार सरकार ने सबको दे दिया है पर कौन कितनी और कैसी शिक्षा पाता है यह उसके भाग्य और औक़ात पर निर्भर करता है क्योंकि सबको समान शिक्षा की सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। लोकतंत्र की व्यवस्था में शिक्षा देने और लेने की सबको पूरी छूट है और अच्छे, बुरे, निकृष्ट हर कोटि के विद्यालय मिलते हैं। इनकी पाठ्य चर्या में पर्याप्त स्तर भेद है जिसके कारण एक ही स्तर की शिक्षा पाने वाले बच्चों में भी उपलब्ध ज्ञान की दृष्टि से बड़ा अंतर मिलता है।
यहाँ निजी स्कूल हैं (यद्यपि उनको पब्लिक स्कूल कहा जाता है!) जिनकी एक बड़ी रेंज है जिसमें छोटे साधारण स्कूल से ले कर बड़ी शान शौक़त वाले आलीशान स्कूल हैं जिनमें हज़ारों की फ़ीस प्रतिमास है और हर तरह की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिनकी ऋंखला है (जैसे डेलही पब्लिक स्कूल) जो दिल्ली से बाहर अनेक स्थानों पर चल रहा है। दूसरी ओर सरकारी स्कूलों का मेला लगा है जहां अध्यापकों की उपस्थिति, विद्यालय की सुविधाएँ और पाठ्य-चर्या अपेक्षित मानक स्तर से बड़ी नीचे है।यदि औसत निकाला जाय तो निराशाजनक स्थिति ही हाथ लगती है।
इसका आधिकारिक प्रमाण सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर शैक्षिक उपलब्धि का सर्वेक्षण (नेशनल अचीवमेंट सर्वे) की वर्ष 2021 की रपट है। इसमें भाषा, गणित, पर्यावरण, विज्ञान, समाज विज्ञान, और अंग्रेज़ी में तीसरे छठे, पाँचवें आठवें और दसवें दर्जे के छात्रों की शिक्षण उपलब्धि का हर तरह के विद्यालयों में मूल्यांकन किया गया। कुल 3,40,000 बच्चों पर 720 ज़िलों में हुए सर्वेक्षण से पता चला कि गणित में तीसरे दर्जे में 57 प्रतिशत उपलब्धि थी जो दर्जा पाँच में 44 हो गयी और आठवें में 36 और दसवें में 32 प्रतिशतपर पहुँच गयी। भाषा में तीसरे दर्जे में 62,प्रतिशत से पाँचवे दर्जे में 52 प्रतिशत हो गयी। विज्ञान में आठवे में 39 प्रतिशत थी जो स दसवें में 35 प्रतिशत हो गयी। ग्रामीण क्षेत्रों के के बच्चों की उपलब्धि शहर के बच्चों से बशत नीचे थी।
अनुसूचित और जन जाति के बच्चों की उपलब्धि सामान्य श्रेणी के बच्चों से काम थी। लड़कियों की शैक्षिक उपलब्धि लड़कूँ की तुलना में अच्छी थी। कुल मिला कर ये परिणाम बताते हैं कि कक्षा तीन से कक्षा दस के बीच शैक्षिक उपलब्धि में गिरावट बढ़ती जा रही है।गणित और विज्ञान में विशेष रूप से यह चिंताजनक है। बच्चे स्कूल में टिक नहीं रहे हैं। इसके मद्दे नज़र राष्ट्रीय बुनियादी गणितीय और भाषिक साक्षरता का मिशन निपुण भारत अभियान के तहत चलाया जा रहा है ताकि स्थिति में सुधार हो सके।
स्मरणीय है की महात्मा गांधी ने शिक्षा के अंतर्गत हाथ, हृदय और मस्तिष्क तीनों के उपयोग पर ज़ोर दिया था और शिक्षा को समाजोपयोगी बनाए रखने की बात की थी। आज समावेशन की बात हो रही है जो प्रायः नामांकन तक सीमित है। सघन और समग्र चिंतन के साथ इसे वंचित, आदिवासी, स्त्री, दिव्यांग उपेक्षित, पूर्व बाल्यावस्था, विशिष्ट शिक्षा के लिए तत्पर आदि सभी की दृष्टियों से देखना ज़रूरी होगा। यह संतोष की बात है कि नई शिक्षा नीति में इन पक्षों पर ध्यान दिया जा रहा है। भारत के स्वर्णिम भविष्य की संकल्पना को मूर्त रूप देने के लिए इस दिशा में निर्णायक प्रयास करने होंगे।–
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