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भाषा, विश्वसनीयता और राजनैतिक साख (Language credibility and political credibility)

 Language credibility and political credibilityअक्सर कहा जाता है कि यह संसार शब्दात्मक है । इस अर्थ में यह सही है कि मानव व्यवहार के निजी और सामाजिक दायरों में आने वाले लगभग हर व्यवहार में भाषा की अहं भागीदारी होती है । हमारा समूचा ज्ञान, शिक्षण, संचार और अमूर्तन आदि का काम करने में भाषा ही प्रमुख उपादान होती है । महान विचारक भर्तृहरि ने कभी यह कहा था कि इस विश्व में किसी भी क़िस्म का संप्रत्यय (कॉन्सेप्ट) शब्द के बिना सोचा ही नहीं जा सकता तो वे ग़लत नहीं थे । सचमुच हमारी सारी की सारी सवेदनाएँ, मानस-रचनाएँ और चेष्टाएँ भाषा में ही निबद्ध होती हैं। साथ ही किसी के द्वारा बोली जाने वाली भाषा उस व्यक्ति की आंतरिक सोच को भी प्रतिबिम्बित करती है।

यदि किसी चीज़ या बात के लिए हमारे पास शब्द नहीं होते हैं तो उसकी उपस्थिति की कल्पना करना भी मुश्किल हो जाता है। दूसरी ओर जो वस्तु वास्तव में न भी हो अर्थात् जिसकी सत्ता ही नहीं है, पूरी तरह कपोलकल्पित है, यदि उसे भी कोई शब्द दे दें तो वह शब्द उस (कल्पित वस्तु) के अस्तित्व में होने का अहसास और आभास दिला सकता है। फिर हम  ऐसे शब्दों का व्यवहार में उपयोग भी करने लगते हैं। इस तरह बाहर की दुनिया में किसी चीज़ के होने या न होने के लिए बहुत हद तक हमारी भाषा ही ज़िम्मेदार होती है। चूँकि मन में होने वाला चिंतन प्रकट भाषा का ही एक सूक्ष्म रूप होता है विचारों की हमारी अपनी पूँजी भी भाषा की शक्ति के अनुरूप कम या ज़्यादा होगी। बाहर प्रकट रूप में जो भाषा दिखने-सुनने में आती है उसे वैखरी और उसके पीछे अव्यक्त विचार वाली भाषा को मध्यमा कहा गया है । जो अच्छे विचारक होते हैं वे अच्छी भाषा का भी उपयोग करते हैं।

भाषा के न होने पर दुनिया अंधेरे में रहेगी। भाषा की जद में आकर ही चीजें अपना अर्थ खोज पाती हैं। शायद बाहर और अंदर की दुनिया इन दोनों को प्रकाशित करने वाला प्रकाश का स्रोत भाषा ही है। वैसे भाषा एक सामाजिक उत्पाद होती है। इसकी सहायता से समाज को समझा जा सकता है और खुद को समाज के सम्मुख पेश कर समझाया जा सकता है। हमारा जानना यानी ज्ञान और उस ज्ञान को खुद जानना और दूसरों को जनाना भाषा के द्वारा ही सम्भव होते हैं। सच कहें तो ज्ञान का आवास-स्थान भाषा ही है और ज्ञान उसी में बसता है। खुद के लिए और दूसरों के लिए ज्ञान की उपस्थिति, उसका संचार और प्रस्तुति, मुख्यतः भाषा के माध्यम द्वारा ही सम्पन्न होती है।

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ऐसे में हमारी प्रतिष्ठा भी भाषा के प्रयोग के साथ जुड़ जाती है। भाषा समारे सामर्थ्य का आधार बनती है और न केवल सामान्य बर्ताव को सम्भव करती है बल्कि भावनाओं को भी दूसरों तक पहुँचाती हैं। इन  बातों को पहचान कर भाषा-प्रयोग की अनेक शैलियाँ विकसित हुई हैं। भारतीय चिंतन में शब्द की तीन शक्तियों – अभिधा, लक्षणा और व्यंजना पर काफ़ी विचार हुआ है जो शब्दों के वाच्यार्थ या शब्दार्थ, लक्ष्यार्थ और व्यंगार्थ को व्यक्त करते हैं। सर्जक साहित्यकार ऋंगार, वीर, वीभत्स, हास्य, रौद्र, भक्ति आदि विभिन्न प्रकार के रसों को भाषा के साथ ही पाठक या दर्शक के साथ साझा करते है। ऐसे ही अलंकारों का उपयोग करते हुए वे अर्थ की नाना प्रकार की छवियों को निखारते हैं । तंत्र और मंत्र की दुनिया में शब्द के और भी गहन रूप मिलते हैं।  

हमारे सामाजिक जीवन में भाषा के सशक्त और संतुलित उपयोग से यदि कोई बात बन जाती है। इसका उल्टा तब होता है जब ग़लत भाषा के उपयोग से बात बिगड़ जाती है। कुल मिला कर भाषा हमको रचती है और हम उससे अलग हो ही नहीं सकते। भाषा में प्रयुक्त शब्द हमारे जीवन के लिए आधार का काम करते हैं। बाहर ध्वनि रूप में जो व्यक्त भाषा सुनी जाती है वह भाषा का पूरा संसार नहीं है। भाषा हमारे अंदर भी होती है जो अव्यक्त होने से दिखती नहीं है। विचारों पर ध्वनि का रंग चढ़ा कर या ध्वनि में लपेट कर जो वैखरी भाषा बाहर दिखती है वह तो अंदर मौजूद भाषा का निष्पादन (पर्फ़ॉर्मन्स) होता है। उसके पहले भाषा बुद्धि या मानस के स्तर पर आंतरिक भाषा मध्यमा के रूप में सक्रिय रहती है ।

संचार के लिए इसी मनोगत भाषा पर ध्वनि का मुलम्मा चढ़ाया जाता है। हम सबका रोज़मर्रे का अनुभव है कि जब मन में कुछ उधेड़-बुन चलती रहती हैं तब अव्यक्त स्तर पर भाषा सक्रिय रहती है। भारतीय विचारक तो यह भी मानते हैं कि व्यक्त भाषा, आंतरिक विचार वाली अव्यक्त भाषा के साथ ही भाषा का एक गहन सार्वभौमिक आद्य स्तर भी होता है । इन सभी रूपों को आत्मसात् करना सरल नहीं है क्योंकि भाषा को समझने के लिए भी भाषा के उपकरण का उपयोग किया जाता है।

उपर्युक्त मशिकिल के बावजूद सत्य यह भी है कि शब्द-व्यापार इस पूरे संसार को व्याप्त किए हुए है। कोई भी व्यापार यदि नियमों और क़ायदों के अनुसार चले तो व्यवस्था बनी रहती है और किसी का अहित नहीं होता है । व्यवसाय में लाभ कमाना प्रत्येक व्यापारी का उद्देश्य होता है पर यह कमाई यदि स्वेच्छाचारी लोभ की भावना के साथ होती है तो प्राप्त होने वाला अल्पकालिक लाभ धांधली के बीच तो कुछ दिन फ़ायदा पहुँचा सकता है परंतु ज़्यादा समय तक नहीं चलता । बाद में जब पोल खुलती है तो आपराधिक मामला होने के कारण व्यापारी को दंड मिलता है और उसकी साख पर आँच आती है ।

साथ ही व्यापार सिर्फ़ रुपए पैसे से ही नहीं होता । उसकी सफलता में भाषा और शब्द भी ख़ास भूमिका निभाते हैं । शब्द माध्यम होते हैं वस्तुओं, उद्देश्यों और कामनाओं को व्यक्त करने का । बाहर सुने जा सकने वाले शब्दों के पीछे छिपे अर्थ हमारे प्रयोजन को व्यक्त करते हैं । शब्द और अर्थ परस्पर जुड़ कर उस संवाद को सम्भव करते हैं जो प्रजातंत्र की व्यवस्था की रीढ़ होता है। सार्थक संवाद द्वारा अर्थ का सम्प्रेषण होता है। कहना न होगा कि सभ्य लोगों के बीच संचार का आधार सत्य में प्रतिष्ठित होता है और लोक-कल्याण ही उसका उद्देश्य होता है।

 राजनीति में संवाद की विशेष भूमिका होती है ख़ास तौर पर तब और भी जब नेता गण बड़ी जन-सभा को सम्बोधित कर रहे हों। चुनावों के प्रसंग में यह बात स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आती है। चुनावी रण में खड़े हुए प्रत्याशी गण और उनके सामान्य और स्टार प्रचारक मत दाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए तर्क, तथ्य तथा वादों का सहारा लेते हैं। वे तुष्टि करने वाले लाखों नौकरियों, विशिष्ट जाति-वर्ग-लिंग-क्षेत्र के सदस्यों के लिए अनुदानों, वजीफों तथा आरक्षण की व्यवस्था करने वाले ऐसे वायदों की झड़ी लगा देते हैं जो वस्तुतः असम्भव होते हैं । नेता गण अपने पक्ष को पुष्ट करने के लिए अपने प्रतिद्वंदी की आलोचना करते हैं और यह स्वाभाविक भी है। विगत कुछ एक वर्षों से इस प्रथा में यह बदलाव आता गया है कि इस आलोचना में निंदा, स्पृहा, और कटूक्तियों के उपयोग में इज़ाफ़ा होता गया ।

अनेक नेता असांसदीय और असभ्य लहजे में बढ-चढ कर बात करने की छूट ले रहे हैं । आए दिन अक्सर ऐसे समाचार मिलते हैं जिनमें नेतागण स्वस्थ आलोचना की जगह भर्त्सना और चरित्र-हनन का सहारा ले रहे हैं। इसके क्रम में व्यक्तिगत आक्षेप वाली भाषा का प्रयोग भी बहुतायत से होने लगा है। वाणी की विश्वसनीयता और वैधता को ले कर सबके मन में शंका बनी रहती है। मन, वचन और क़र्म में निकटता चरित्र बल को द्योतित करती है। आज नेता अपने वचन पर नहीं टिकते और कभी भी मुकर जाते हैं । उनकी कथनी और करनी में अंतर भी बढ़ता ही जा रहा है।

वक्ता द्वारा इसमें प्रयुक्त नकारात्मक विशेषण अपने साथ बहुत सारे वांछित और अवांछित अर्थ भी शामिल करते चलते हैं । उदाहरण के लिए चोर, बेईमान, नालायक और भ्रष्ट जैसे शब्दों का अर्थ-विस्तार अत्यंत व्यापक होता है। ऐसी अभिव्यक्तियाँ न केवल संदेह और घृणा पैदा करने वाली टिप्पणी होती हैं वे सम्बन्धित व्यक्ति  और समुदाय को आहत करती हैं और चोट पहुँचाने वाली होती हैं। अनर्गल वाद और प्रतिवाद में अक्सरएक दूसरे के विरोध में गड़े मुद्दों को उखाड़ने का दौर चलता रहता है। दूसरी ओर नए मुद्दे बनाने की क़वायद में असम्बद्ध चीजों को प्रासंगिक बनाते हुए आख्यान गढे जाते हैं। यह खेदजनक है कि अब संवाद में सहिष्णुता घटती जा रही है और अपने सामने दूसरे की उपस्थिति का स्वीकार लोगों को असह्य होता जा रहा है।  

आज अराजक होते शब्द-व्यापार के लिए व्याकरण की ज़रूरत है । उसकी कोई नियामक एजेंसी खुद के सिवाय कोई और नहीं है । उसके अतिरेक या हद से बाहर जाना मनो-मालिन्य का कारण होता है और उसके कई घातक परिणाम होते हैं। भाषा में साधु और असाधु दोनों तरह के शब्द होते हैं परंतु सभ्य समाज में असाधु प्रयोगों को दूर कर वाणी को पवित्र करना होगा । सम्यक् वाणी की उपेक्षा के कारण बढ़ती हुई वाचिक हिंसा से सामाजिक समरसता को चोट पहुँचती है। इसके बड़े ही दूरगामी परिणाम दिख रह  हैं। इसके लिए मनोगत मलों का शोधन ज़रूरी होगा। 

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