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करोना के दौर में मानसिक स्वास्थ्य की गहराती चुनौती

Girishwar Misra
प्रो. गिरीश्वर मिश्र, पूर्व कुलपति
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय

कहते हैं मन ही आदमी के बंधन और मोक्ष दोनों का ही कारण होता है. मनुष्य अपने शरीर को किस तरह उपयोग में लाता है और उपलब्धि के किन उत्कर्षों की ओर या फिर पतन की किन गहरी घाटियों में ले जाता है यह मन की शक्ति पर निर्भर करता है. यही सोच कर कहा गया ‘मन के जीते जीत और मन के हारे हार’. कोविड -19 की वैश्विक महामारी ने प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से लोगों के मानसिक जगत को चुनौती दी है और सभी उससे जूझ रहे हैं. जीवन जीने में मन और शरीर की संगति जरूरी होती है . आज इस संगति में कई तर्ह के व्यवधान आ रहे हैं और बहुत सारे लोग मन से टूट रहे हैं क्योंकि उन्हे लग रहा है कि इस अंधेरी सुरंग का अंत नहीं है. उनका धैर्य खो रहा है और वे मनोविकारों का भी शिकार हो रहे हैं. मुख्यत: चिंता और अवसाद के लक्षण बढ रहे हैं और भावनाओं की दृष्टि से लोग दुर्बल हो रहे हैं . अपने सीमित होते और सिकुड़ते वर्तमान और धुंधलाते भविष्य को लेकर यदि मानसिक संकट बढता है तो यह आश्चर्यजनक नहीं है. ऊपर से टी वी और सोशल मीडिया पर कोरोना की त्रासदी इतने भयावह रूप में हावी है कि लोग अज्ञात मडराते भय से भयभीत और परेशान महसूस कर रहे हैं.

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यह समझने के लिए हम आप को सुनयना से मिलवाते हैं ( नाम और पता बदला हुआ है) . पिछले दो तीन महीनों से जान बूझ कर बाहर की दुनिया की खोज खबर लेने से बचती आ रही है. सोशल मीडिया की ओर अब नजर उठाने में भी उसे डर लगता है. वह तेईस चौबीस साल की हो रही होगी. दिल्ली के मध्यवर्गीय कालोनी में रहती है. वह अवसाद या डिप्रेशन का शिकार हो रही है. वह उन बहुत से लोगों में से एक है जो कोविड-19 की महामारी के बीच मानसिक उथल-पुथल खोते दिख रहे हैं. उसके विचार और भावनाएं ऊपर नीचे होते रहते हैं. कुछ समझ में नहीं आता क्या करें. ठगी सी वह अपने को किंकर्तव्यविमूढ पाती है. सब कुछ तो बंद हुआ पड़ा था और अपना अस्तित्व कहां रखूं ? कहां बटाऊं ? किससे बटाऊं? . इस तरह की नकारात्मक भावनाएं कुछ ज्यादा ही बेचैन करने लगीं.

उल्लेखनीय है कि बीते मार्च 24 को भारत में पूरी तरह से लाक डाउन का फैसला लिया गया जो दुनिया में सबसे व्यापक और कठोर था. इसने पूरे भारत की जनता के जीवन क्रम को तहस नहस कर दिया. बड़ी संख्या में लोगों की नौकरियां छूटीं. और बहु संख्यक जनता में तनाव की लहर सी फैल गई. करोड़ से ज्यदा विस्थापित गरीब दिहाड़ी वाले मजदूर सबसे ज्यादा प्रभावित थे, पर घर में बैठे लोग भी प्रभावित होते रहे . इस हालात के कारण कई थे. जो हो रहा था उसके अर्थ अनिश्चित थे . रोग एक अदृश्य चुनौती था और उसके लिए खुद को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता था. उसको लेकर जो कहाँइयां टीवी और सोशल मीडिया में तैर रही थीं उनमें संशय और संदेह के साथ इतने भिन्न भिन्न संदेश आ रहे थे कि मन किसे माने और किसे न माने कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. स्वस्थ और दुरुस्त मन से चंगे लोग भी इस अस्थिर और अस्पष्ट माहौल में मन में गुत्थियां पालने लगे. सुनयना जैसे युवा जनों की मुश्किलें जीवन के अवसरों से भी जुड़ी थीं . वह एक उद्योग में प्रशिक्षु के रूप में कर्यानिभव पा रही थी जो उसके अध्ययन और डिग्री के लिए ही नहीं उसकी व्यावसायिक योग्यता और कुशलता के लिए भी खास महत्व रखता था. यानी लाक डाउन न सिर्फ वर्तमान के जीवन क्रम में व्यवधान डाल रहा था बल्कि भविष्य पर भी सवालिया निशान लगा रहा था. महामारी ने पाबंदी लगाई और सिर्फ भौतिक कैद ही नहीं इच्छाओं और आकांक्षाओं की दौड़ पर भी विराम लगा दिया . इस बदलाव ने उसकी भावनाओं की दुनिया को बुरी तरह प्रभावित किया . उसे लगा यह सब उसके अस्तित्व को झकझोर रहा है. भूख मिट सी गई. नीं द भी नहीं आती थी. कोरोना के विषाणु की गिरफ्त में आने की बात उस समय और भी खतरनाक लगने लगी जब पता चला कि बीमारी बिना किसी लक्षण भी हो सकती है – एसिम्टोमेटिक यानी निराकार भी हो सकती है.

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विषाणु की बात इतनी जबर्दस्त ढंग से मन पर छाने लगी कि बाहर निकलना बिल्कुल बंद कर दिया. यह सोच कौन जाने कैसे इस वाइरस का सम्पर्क हो जाय दिन में बीस पचीस बार हाथ धोने लगी, सैनीटाइज करने लगी. उसके चश्मे टूट गए पर खौफ ऐसा कि उनको बदलने की बात मन में धरी रह गई. बाहर निकलना शंकाओं और संदेहों की एक और पर्त को लाने वाला जो ठहरा.
लाक डाउन खत्म होने का इंतजार बेचैन करने वाला था. पर लाक डाउन खत्म होने की जगह बढता ही गया और उसी के साथ निराशा भी. वह दोस्तों से मिलने जुलने जाती थी, जिम जाती थी , दौड़ भी लगाती थी, सैर भी करती थी. पर अब सब कुछ रुक गया था, जिंदगी ठहर गई थी.

भारतीय मनोचिकित्सा परिषद के एक ताजे सर्वेक्षण के हिसाब से लाक डाउन के दौरान मनोरोग के मामलों में बीस प्रतिशत का इजाफा हुआ है. इसका मतलब हुआ हर पांच भारतीय में से एक मानसिक कष्ट से पीडित था. जीविका खत्म होना, आर्थिक कठिनाई , अकेलापन ,अलगाव, घरेलू हिंसा और दुर्व्यवहार मानसिक स्वास्थ्य की एक बड़ी त्रासदी का सबब बनता दिख रहा है. इन स्थितियों में आत्महत्या की प्रवृत्तियां भी तेजी से बढ रही हैं. लोगों का साहस और धैर्य जबाब दे रहा है. प्रतिकूल परिस्थिति में खड़े रहने की मानसिक शक्ति की भी एक सीमा होती है. तनाव की मात्रा ज्यादा हो और यदि वह लम्बी अवधि तक चले तो मुश्किल कई गुना बढ जाती है. बच्चों की अपनी समस्याएं हैं . उनके लिए अलगाव, स्कूल की सामान्य व्यवस्था से अलग हट कर इंटर्नेट से सीखना और घर में मनमुटाव और हिंसा की परिस्थिति उनके स्वाभाविक विकास के रास्ते में कठिन चुनौती प्रस्तुत कर रही है. बच्चों के लिए जोखिम बढ गया है. जब बच्चे बड़े होते रहते हैं उस बीच ऐसी त्रासदी से मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है.

यदि घर के सयाने सदस्य ज्यादा तनाव और दबाव महसूस करते हैं तो उसका असर बच्चों के प्रति हिंसा के रूप में परिलक्षित होता है.

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उल्लेखनीय है कि लाक डाउन के दौरान आत्म हत्या के ऐसे मामले भी बढे हैं जिनका कोविड -19 से कोई सम्बन्ध नहीं है. एक अध्ययन में इस तरह के मामलों में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है जो विषाणु संक्रमण के भय , अकेलेपन, घूमने फिरने की आजादी गंवाने, और घर वापसी में असफल थे. मद्यपान से जूझने वाले भी इसमें काफी थे जिन्होंने अव्यवस्थित तरीके से शराब को छोड़ने की कोशिश की थी. अगले साल भर तक मानसिक स्वास्थ्य की चुनौती विकट रूप लेती रहेगी. आर्थिक तंगी और सहारे की कमी , मद्यपान आदि से ये समस्याएं और बढेंगी. समाज और सरकार को इस स्थिति से निपटने के लिए तैयार होना होगा. मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा का विधेयक 2017 में संसद में पास हुआ था. इसमें भारत के नागरिकों के लिए सरकार की ओर से मानसिक स्वास्थ्य रक्षण और चिकित्सा की व्यवस्था का प्रावधान है . पिछले कुछ वर्षों में इस दिशा में कुछ पहल हुई है पर वह अभी भी सब की पहुच के बाहर है और किसी भी तरह पर्याप्त नहीं कही जा सकती.

दर असल भारत में मानसिक स्वास्थ्य की देख रेख को कई मोर्चों पर संभालने की आवश्यकता है. कोशिश तो यह होनी चाहिए कि वे परिस्थितियां ही न बनें जिनसे मानसिक विकार को सहारा मिलता है. तात्कालिक चुनौती के साथ देश के ताने बाने में भी चारित्रिक ह्रास की खोट भी दूर करनी होगी. इसके लिए सबसे अधिक जरूरी है कि स्वस्थ सामाजिक-आर्थिक परिवेश बनाया जाय जो सबको अपनी योग्यता और रुचि के अनुसार आगे बढने का अवसर दे. आज कई स्तरों पर भेद भाव, अवसरों की कमी, योग्यता की उपेक्षा और विसंगति से भरे निहित स्वार्थ के अनुसार काम के तरीके लोगों में कुंठा और असंतोष बढा रहे हैं जिससे मन की शांति लुप्त होती जा रही है. अपरिमित महत्वाकांक्षाएं मनोजगत में जिस तरह का बदलाव ला रही हैं वे खतरनाक हैं. हमें घर, स्कूल , कार्यालय सभी संदर्भों में मानवीय मूल्यों स्थापित करना होगा. साथ ही समाज में फैले विश्वासों, प्रथाओं और अनेक तरह के भ्रम जाल से भी निपटना होगा. इसके लिए विद्यालय की शिक्षा के साथ ही जन शिक्षा के सघन अभियान की आवश्यकता है. मीडिया के प्रभावी उपयोग से इस तरह का बदलाव लाया जा सकता है.

*यह लेखक के अपने विचार है।

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