Hindi Diwas: भाषाई स्वराज और भारतीय अस्मिता: गिरीश्वर मिश्र

Hindi Diwas: हिन्दी दिवस-१४ सितम्बर

भारत की आत्मा भारत की भाषाओं में बसती है. भारतीय चिंतन की निरंतरता तिरुवल्लूर, नामदेव, शंकरदेव, तुलसीदास सबमें मिलती है.

कहते हैं कि जब अंग्रेज भारत में पहुंचे थे तो यहाँ के समाज में शिक्षा और साक्षरता की स्थिति देख दंग रह गए थे. इंग्लैण्ड की तुलना में यहाँ के विद्यालयों और शिक्षा की व्यवस्था अच्छी थी. यह बात कहीं और से नहीं उन्हीं के द्वारा किए सर्वेक्षणों से प्रकट होती है. जब वे शासक बने तो यह उन्हें गंवारा न हुआ और आधिपत्य के लिए उन्होंने भारत की शिक्षा और ज्ञान को अप्रासंगिक और व्यर्थ बनाने का भयानक षडयंत्र रचा . वे अपने प्रयास में कामयाब रहे और भारतीय शिक्षा का सुन्दर सघन बिरवा को निर्ममता से उखाड़ फेंका .

उन्होंने संस्कृति और ज्ञान के देशज प्रवेश द्वार पर कुण्डी लगा दी और एक नई पगडंडी पर चलने को बाध्य कर दिया जिसके तहत हम ‘ ए फार एपिल एपिल माने सेव’ याद करते हुए नए ज्ञान को पाने के लिए तत्पर हो गए. जब अंग्रेज देश छोड़ कर गए तो उनके मानक के अनुसार भारत शिक्षा और निरक्षरता के अन्धकार में ऐसा डूबा कि आज तक उबर ही नहीं सका. यह अलग बात है कि भारत के पास ज्ञान की अकूत विरासत निरंतर मौजूद थी और आज भी है और अब हम उसके प्रति संशय, अविश्वास के नजरिये से ग्रस्त हो चुके हैं. अंग्रेजों ने शिक्षा की ऎसी दुर्व्यवस्था स्थापित कर दी कि भाषा, शिक्षा, संस्कृति आदि का सवाल स्वतंत्र भारत के बौद्धिक विमर्श में मधुमक्खी का छत्ता जैसा बन गया और धीरे-धीरे उसे न छेड़ने में ही भलाई समझी गई और उसके प्रति उपेक्षा और तटस्थता का रुख अपनाने में ही राजनैतिक कल्याण होते देखा. शिक्षा की राह और मंजिल दोनों ही इस तरह बदल दी गई कि ज्ञान का देसी राज-मार्ग और ज्ञान-कोष दोनों ही व्यर्थ लगने लगे.

आँख मूंद कर हम पराई मंजिल और राह को अंगीकार कर लिए और इनमें परिवर्तन की बात ठंडे बस्ते में डाल दी गई. देश के विकास की पञ्च वर्षीय योजनाओं में इनसे जुड़े सवाल हाशिए पर ही बने रहे. सरकारें आती जाती रहीं पर इनके समाधान के लिए किसी तरह की उत्सुकता या पहल से बचते-बचाते हम यह सोच कर समय काटते रहे कि यह उतना जरूरी नहीं है जितना कल कारखाना लगाना. भाषा और शिक्षा जैसे सवालों की अहमियत नजर अंदाज होती रही और उसके लिए निवेश करने में कोताही बरती जाती रही . सब कुछ यंत्रवत चलता रहा. इस बीच विदेश की पश्चिमी आधुनिक तथा विकसित दुनिया की नक़ल पर आधे-अधूरे मन से कुछ-कुछ होता रहा. बौद्धिक वर्ग में यदाकदा छटपटाहट और बेचैनी दिखी पर कभी गहरे आत्म-निरीक्षण या आत्मान्वेषण की हिम्मत नहीं पड़ी. अपनी भाषा में सोचने-समझने को फैशन के विरुद्ध मानते हुए शिक्षा एक नकली कृत्य या ‘रिचुअल’ बन गई. हम एक अंधी सुरंग में घुस गए जिसमें से निकलने की अब राह नहीं सूझ रही है.

अंग्रेजों ने उपनिवेश के लिए जो रास्ता अख्तियार किया था और देश के आत्मबोध के लिए जो चुनौती खडी की थी वह न केवल आज भी बनी हुई है बल्कि कुछ ज्यादा जटिल हो चुकी है क्योंकि हममें से बहुत लोग ऐसे भी हैं जो उसे चुनौती भी नहीं मान रहे हैं. गौर तलब है कि अंग्रेजों ने शिक्षा-दीक्षा और भारत की संस्कृति का जो खाका हमारे लिए बनाया था वही मानक बन गया और उसी लीक पर हम चल पड़े, यह मान कर कि यही एक मात्र विकल्प है. उन्होंने भारत को ‘इंडिया’ बना दिया और हम उसे गढ़ने लगे. भारत, भारतीयता और भारत-भाव पराया, गौड़ और निरर्थक बनता गया. सांस्कृतिक विस्मरण की प्रक्रिया आधुनिक होने, विकसित होने की वैश्विक दौड़ की अनिवार्यता बन गई. चूँकि विचार और कर्म भाषा से अनुविद्ध होते हैं , हमारे अस्तित्व की बनावट और बुनावट में भाषा और शिक्षा के संस्कार की अनिवार्य भूमिका होती है. देखने-समझने अर्थात अपने होने का अर्थ इसी के जरिये बनता बिगड़ता है.

अंग्रेजी भाषा ज्ञान के क्षेत्र में जिस तरह पैठी उसने ज्ञान के साथ अज्ञान को भी बढाया. हम अपने यथार्थ को न केवल उधार की कोटियों में रख कर देखने लगे बल्कि वह भी देखने लगे जो था भी नहीं. सोचने-विचारने की प्रक्रिया कुछ इस तरह अस्त-व्यस्त और विश्रृंखलित हुई कि ज्ञान की गुणवत्ता प्रश्नांकित होती गई.

संवाद , संपर्क और ज्ञान की भाषा के रूप हिंदी की भारत में व्यापक उपस्थिति है. उल्लेखनीय है कि इन्डियन ओपिनियन में 1909 में लिखते हुए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने यह विचार प्रकट किया था कि ‘सारे भारत के लिए जो भाषा चाहिए, वह हिन्दी ही होगी’. आगे चल कर स्वतंत्रता के लिए छिड़े राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए हिन्दी देश की संपर्क भाषा बन गई. विद्यार्थी के रूप में बापू ने अंग्रेजी में पढाई को एक अतिरिक्त भार के रूप में महसूस किया था जो ज्ञानार्जन में बाधक बनती है और शैक्षिक प्रगति में रुकावट आती है. वस्तुत: संस्कृत को छोड़ दें तो सभी भारतीय भाषाओं से अधिक व्यापक क्षेत्र में फैली है.

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इसका क्षेत्र हिमालय की तराई , नर्मदा , पंजाब, सिन्ध, गुजरात, बंगाल, छोटा नागपुर तक विस्तृत है. इसकी सीमाएं बांग्ला, ओडिया , तेलुगु, नेपाली, पंजाबी, गुजराती और सिन्धी से जुड़ती हैं. आज के डिजिटली दौर में मीडिया में हिन्दी की उपस्थति बढी है . देश के बाहर भी भारतवंशी और आप्रवासी जनों के साथ हिन्दी का प्रसार हुआ है. लचीली, व्यापक शब्द भण्डार के बावजूद, जोड़ने की प्रवृत्ति और खुलेपन के चलते राजा राम मोहन राय, केशव चन्द्र सेन, स्वामी दयानंद, तिलक और गांधी ने हिन्दी का पक्ष रखा था. संस्कृत से निकली मराठी, बंगला, उडिया और गुजराती भाषाओं से हिन्दी का निकट रिश्ता है. अनेक विदेशी प्रतिष्ठान भी हिन्दी का पठन-पाठन और अनुसंधान करने में जुटे हैं.

हिन्दी क्षेत्र जनसंख्याबहुल होने से व्यापार के लिए अच्छा बाजार भी उपलब्ध करा देता है. हिन्दी फ़िल्में, संगीत (जैसे गजल) पूरे भारत में प्रचलित है. भारत की आधी से ज्यादा जनसंख्या हिन्दीभाषी है. शेष में ज्यादातर लोग हिन्दी को समझते हैं. यह स्थिति तब से है जब संत संन्यासी और आम जन देश

सरकारी तौर पर 14 सितम्बर 1949 को हिन्दी संवैधानिक तौर पर राजभाषा घोषित हुई और उसे अंग्रेजी से टक्कर लेने के लिए कहा गया. अंग्रेजी बड़े पुखते आधार पर खडी थी जिसे दूरदर्शी अंग्रेजों ने बनाया था. उनका जाल मजबूत था और वे सरकारी काम काज, अध्ययन, आदि के लिए प्रामाणिक और वैश्विक उपाय के रूप में अंग्रेजी को बैठा गए थे और भारतीय मानस को इस सत्य के अधीन कर गए थे . अंग्रेजी के साथ प्रतिद्वंदिता में हिन्दी हीनता का पर्याय बन गई. अंग्रेजी जानने वाला ही जानकार और बाक़ी अनपढ़ या गंवार बन गए. अंग्रेजी पबलिक स्कूलों की बाढ़ जिस तरह आई है और सरकारें जिस तरह उसे तरजीह दे रही हैं वह मानसिक रुग्णता के स्तर तक पहुँच चुका है. यह नियति का खेल ही है कि जो भाषा उपनिवेशवाद के खिलाफ लडी वह उपनिवेश ख़त्म होने के बाद बंदी बना ली गई. गुलामी से मुक्ति पाकर हिन्दी निस्तेज हो गई. पर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को खोने का अर्थ सांस्कृतिक एकता, भारतीयता, भारतीय मानस, भारत की पहचान को खोना है.

भारत की आत्मा भारत की भाषाओं में बसती है. भारतीय चिंतन की निरंतरता तिरुवल्लूर, नामदेव, शंकरदेव, तुलसीदास सबमें मिलती है. अंग्रेजों का राज्य ख़त्म होने पर भी अंग्रेजी संस्कार और सोच-विचार बने रहे और अंग्रेजी का आतंक चारों और फ़ैल रहा है. भावात्मक ऐक्य पिछड़ रहा है. प्रादेशिक भाषाओं में न्याय, प्रशासन और उच्च शिक्षा में ज्ञानार्जन आदि की व्यवस्था न होने से जनता की कठिनाई बढ़ती है. आज जनता की सरस्वती होने पर भी हिंदी के प्रति दुर्भावना बनी हुई है. विदेशी राजभाषा और स्वदेशी लोक भाषा का समीकरण सरकार और जनता के बीच की खाई को बढाने वाली बात है. वास्तविक अर्थों में अंग्रेजी राजकीय भाषा बनी हुई है. विदेशी भाषा का लादा जाना विनाशकारी है.

अंग्रेजी बोलना जानना श्रेष्ठता का ऐसा प्रतीक बन चुका है कि हम अपनी भाषा का तिरस्कार कर हिन्दी को हिंगलिश बना रहे हैं. भारत की बहु भाषिकता के बीच संपर्क सूत्रों की पहचान करने पर यही लगेगा कि मध्यदेश की हिन्दी और उसकी बोलियों का प्रसार व्यापक है. भाषाओं के बीच परस्परपूरकता भी है और हिन्दी इस संपर्क भाषा की भूमिका निभा सकने में समर्थ है. यदि बापू ने राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र को गूंगा कहा था तो यही आशय था हिन्दी में संवाद सहज है. हिन्दी का विकास अंतर भाषा के रूप में हुआ था और अनेक अहिंदी भाषियों ने हिन्दी की शक्ति को पहचाना था.

अंग्रेजी का मोह और हिंदी से असंतोष वैश्विकता के व्यामोह के चलते है जिसकी सीमाएं आए दिन प्रकट हो रही हैं. नई शिक्षा नीति के अंतर्गत इस समस्या की पहचान की गई है और भारतीय भाषाओं को ज्ञानार्जन का माध्यम बनाने का संकल्प लिया गया है और भारतीय ज्ञान परम्परा को भी स्थान दिया गया है. आवश्यकता है कि हम औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकलें और भारत को भारत की दृष्टि से समझें .

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