fight for life: जीवन के लिए संघर्ष सबकी चुनौती है: गिरीश्वर मिश्र
fight for life: आज कोविड-संक्रमण के नित्य नए-नए रूप भी आ रहे हैं संक्रमण के माध्यम के बारे में जो जानकारी मिल रही है उससे पता चलता है कि अब किसी धरातल से संपर्क जरूरी नहीं बल्कि विषाणु वायु में भी उपस्थित हो कर प्रभावित कर रहा है. इस तरह सूक्ष्म और अदृश्य इस विषाणु का अस्तित्व कुछ और भयावह हो चला है. कोविड संक्रमण से मुक्त होने वाले रोगियों में ‘ब्लैक फंगस’ नाम के भयानक संक्रमण के मामले बढ़ रहे हैं जिनसे नाक, आँख, मुंह और मस्तिष्क पर प्राणघातक असर हो रहा है. कई मामलों में इसका सम्बन्ध कोविड संक्रमण के दौरान रोग पर काबू पाने के लिए स्टेरायड दवाओं के अधिक मात्रा में उपयोग से भी पाया जा रहा है. इन सबके फलस्वरूप स्वास्थ्य की चुनौती और भी गहरा गई है. कोविड का संक्रमण जो सर्दी , जुखाम, बुखार जैसे अति सामान्य लक्षणों के साथ शुरू होता है और छठें दिन परिवर्तन होता है. बुखार ज्यादा होता है . संक्रमण अचानक विकराल रूप अख्तियार कर लेता है फेफड़े को प्रभावित कर अपनी गिरफ्त में ले लेता है.
जो लोग पहले से ही अन्य रोगों के शिकार हैं उनकी मुसीबत अधिक होती है. (fight for life) इसलिए इन लोगों को अधिक सावधानी बरतने की जरूरत है. दवाओं, व्यायाम और आहार की उपयुक्त व्यवस्था से इनकी प्रतिरोध क्षमता को बनाए रखना बेहद जरूरी है. इनके लिए वित्तीय संसाधन और सुविधाओं इनकी उपलब्धता सुनिश्चित करना होगा. बढ़ती मंहगाई और सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण इस दिशा में हमारा समाज पिछड़ता रहा है. हमारी व्यवस्थाएं जिस तरह की कोताही से पीड़ित हैं और निर्लज्ज भाव से कमियों को एक दूसरे पर ठेला जा रहा है वह सभ्यता और मानव मूल्यों का मजाक बनाने वाला होता जा रहा है. अब राजनीतिक विमर्श में उसके लिए ‘सियासत’ का छद्म आवरण खड़ा किया जाने लगा है और जिम्मेदारी से मुक्ति ले ली जा रही है.
टी वी पर ‘दंगल’, ‘महाभारत’ , ‘कुरुक्षेत्र’ , और ‘हल्ला बोल’ के हंगामों की प्रकट नाटकीयता से आम आदमी उकता चुका है. जरूरी सवाल अनुत्तरित ही रह जा रहे हैं और जमीनी हकीकत दिन-प्रतिदिन लोगों को कुछ और ज्यादा हताश और कुंठित करने वाली होती जा रही है. विविधता भरे देश की विशाल जनसंख्या की चुनौती जिस प्रभावी प्रबंधन और प्रशासन की अपेक्षा करती है उसमें चूक होना भयंकर त्रासदी को जन्म देती है. कोविड की दूसरी लहर ने हमारे शासन – प्रशासन के विन्यास की सारी पर्तों को उघाड़ कर रख दिया. केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के तौर-तरीके की खामियों , सीमाओं , दावों और टकरावों के बीच जनता किस तरह पिसती रही यह सर्वविदित है.
रोगियों के लिए डाक्टर , दवा और आक्सीजन की समय पर उपलब्धता सुनिश्चित करना बड़ा जरूरी है . नीतिगत खामियों और अकर्मण्यता के चलते व्यवस्था लचर होती गई और जब दबाव पड़ातो चरमरा गई. आक्सीजन को लेकर व्यवस्था की जो भद्द हुई और इंसानों की जानें किस तरह जाती रहीं यह किसी से छिपा नहीं है. ऊपर से धन लोलुप लोगों ने कालाबाजारी , दवा में मिलावट ( नकली रेम्डेसिविर इंजेक्शन !) और जालसाजी की हर तरकीब अपनानी शुरू कर दी ताकि मौके का फ़ायदा उठा कर मन चाही कमाई हो सके . ऐसों के गिरोह ने दूसरे की मजबूरी को अपने लिए लाभ में बदलते हुए हुए कोविड से जुड़ी हर चीज की किल्लत पैदा की जिसका फल हुआ कि नामी गिरामी अस्पतालों में आक्सीजन न मिलने से मरीज लगातार दम तोड़ते रहे . इस बीच किस्म-किस्म की अफवाहें भी फैलाई जाती रहीं.
विवश और बदहवास आदमी कई-कई गुना मंहगे दाम पर मरीज के लिए बेड, दवा, डाक्टर, आक्सीजन आदि की सुविधाएं जुटाता प्राणों की भीख मांगता रहा ताकि जीवन बच जाय . पर मुश्किल यह भी कि जीवन न बचे तो मौत भी कुछ कम बड़ी चुनौती नहीं रही . श्मशान और कब्रिस्तान में जिस कदर भीड़ बढ़ती गई लोगों को प्रतीक्षा सूची में लगना पड़ा और टोकन लेना पड़ा . कई जगह अंत्येष्टि की नई सुविधाओं की व्यवस्था करनी पड़ी. अब शवों को नदियों में बहा देने और नदी किनारे बालू में दफ़न करने के चित्र मीडिया में वायरल हो रहे हैं. कोविड की इस जंग में हार और जीत का सिलसिला कुछ ऐसा लगा रहा कि कोई बिरला ही बचा हो जिसने कुछ न खोया हो. आये दिन परिवार, परिजन, हित , मित्र के असमय विदा होने की खबर से सभी व्यथित हो रहे हैं .
आस-पास पसरी उदासी और सन्नाटा भयावह लगने लगता है. कोविड का घातक प्रभाव परिवार और समुदाय के जीवन पर भी नकारात्मक प्रभाव डाल रहा है. बहुत सारे प्रभावित परिवारों का आर्थिक-सामाजिक ताना-बाना छिन्न भिन्न होता जा रहा है और बहुत से बच्चे अनाथ हो रहे हैं जिनके पुनर्वास की समस्या भी खड़ी हो रही है . इस तरह की दयनीय परिस्थिति नियति के अज्ञात पद-चाप के प्रति शंकालु बना रही है .
इन सब अतिरेकों के बीच और सारे कोलाहल के बावजूद किसी न किसी कोने से जीवन की सुगबुगाहट स्तब्ध होते परिवेश में उठ खड़े होने की गुहार लगाती है . घना होता अंधेरा जिजीविषा के आगे छोटा पड़ता है जो अजन्मे और अनियत भविष्य को आकार देने को आतुर रहती है . अवसाद भरे माहौल में निजी और सामुदायिक स्तर पर निर्व्याज दूसरों की परवाह करने की घटनाएं भी हो रही त्वहैं जो सांत्वना देती हैं .
डाक्टर , नर्स , धार्मिक और समाजसेवी लोग जोखिम उठा कर भी आगे बढ़ कर सहायता का हाथ बढ़ा रहे हैं और तरह-तरह से तकलीफ में पड़े अनजान लोगों को दवा, आसीजन , भोजन , और देख-भाल आदि के द्वारा मदद पहुंचा रहे हैं. इस संकट की घड़ी में आपसी सहयोग और सावधानी की जरूरत है. आज अधिकार की मांग से अधिक कर्तव्य के विवेक को सुनने की जरूरत है. फौरी तौर पर टीकों के साथ रोग प्रतिरोधी क्षमता से पूरे समाज को लैस करना पहली प्राथमिकता है . इसके साथ जीवन शैली में सुधार भी जरूरी होगा जिसमें संयम और नियंत्रण की दरकार होगी.
कोरोना महामारी की व्याख्या सरल नहीं है परन्तु समाज , प्रकृति और स्वयं अपने प्रति दायित्व से मुकरना इसके प्रभाव और प्रसार के साथ जरूर जुड़ा दिख रहा है . अपने अस्तित्व की स्वार्थान्ध समझ ने हमारी राह को कुछ यूं बदला कि हम स्वयं अपने ही दुश्मन होते गए और हमें इसका पता भी चला. हमारी जीवन शैली योग की जगह भोग और त्याग की जगह संग्रह पर टिक गई. इस बदलाव ने हमारे मानसिक और बाह्य जगत दोनों की जलवायु को कुछ ऐसा आकार दिया कि हम सबसे कटते गए .
जिस भारतीय चित्त ने प्रकृति को सहचर मान पशु, पक्षी , जल, वनस्पति को अपने अस्तित्व के अभिन्न अंग के रूप में देखा था वह खुद को सबके स्वामी के रूप में देखने लगा और आचार , विचार , व्यवहार तथा आहार के स्वीकृत सामान्य क्रम और विधान की धज्जियां उड़ानी शुरू कर दीं. इस व्यतिक्रम ने मिथ्या अधिकार और शक्ति का अहसास तो जरूर दिया पर उसकी कीमत भी लगाई. विकास के इस सम्मोहक आकर्षण में हम कहीं के न रहे और अब कोविड महामारी ने जीवन पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया है. मनुष्य की प्रज्ञा और विवेक को इस चुनौती का समाधान ढूँढ़ना होगा. अब टिकाऊ ( सस्टेनेबिल ) विकास की नहीं जीवनदायी विकास की जरूरत है.
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