Teachers day: शिक्षक होने की चुनौती: गिरीश्वर मिश्र
मानव शिशु को मनुष्य बनाने में शिक्षा की भूमिका सभी सभ्य समाजों में स्वीकृत है और इसे सुचारु रूप से सम्पादित करने के लिए शिक्षा संस्थाओं का विकास हुआ . ये संस्थाएँ समाज की उन्नति के साथ बदलती रहीं ताकि ज्ञान में आ रहे बदलाव को शामिल करते हुए सामाजिक परिवर्तन के अनुकूल नई पीढ़ी तैयार ही सके . समाज के लिए ज़रूरी कारोबार चलाने के लिए प्रशिक्षित लोगों ( मानव संसाधन !) की ज़रूरत पड़ती है . इस तरह अपनी उपादेयता के चलते शिक्षा संस्था समाज और राज्य की अहं जिम्मेदारी बन गई कि वह इनके भरण -पोषण की व्यवस्था करे . पर शिक्षा की संस्था स्वायत्त रखी गई जहां गुरु और शिक्षक बिना किसी दबाव के स्वाधीन रूप में ज्ञान-सृजन और उसके विस्तार का कार्य करते रहें .
इस तरह शिक्षा- कार्य की परिधि का निर्धारण गुरु जनों के विवेक द्वारा होता था जिन्हें परम्परा और समकालीन परिस्थिति दोनों का ज्ञान होता था . वे शिक्षा देते हुए समाज के भविष्य को संवारने का दायित्व निभाने के संकल्प के साथ अपना कार्य करते थे . प्राचीन गुरुकुल के समय से जो छवि गढ़ी गई और लोक जीवन में प्रतिष्ठित हुई उसने गुरु से बहुत सारी अपेक्षाएँ जोड़ दीं और उसे आचरण के मानक के रूप में स्थापित कर दिया . नैतिकता , निस्पृहता , विवेकशीलता, दक्षता और उदारता के सद्गुणों के साथ अध्यापक को आदर्श या माडल के रूप में देखा जाने लगा . समाज की यही आकांक्षा रही कि गुरु स्वयं में एक संस्था बन कर बिना किसी स्वार्थ के शिक्षा के उन्नयन में लगा रहे . गुरु को यदि रचनाकार ( कबीर के शब्दों में कुम्हार ! ) कहा गया तो उसका आशय यही था क़ि अपने हस्तक्षेप द्वारा वह एक अनगढ़ विद्यार्थी में अपूर्व कुशलता पैदा कर पात्रता ले आता है . तब विद्यार्थी स्नातक घोषित होता है और दीक्षांत के बाद कर्म भूमि की ओर प्रस्थान करने के लिए प्रस्तुत होता है .
जीवन-यापन के लिए वित्त और उसके लिए व्यवसाय तो ज़रूरी है पर शिक्षा का क्षेत्र अन्य व्यवसायों से इस अर्थ में अलग हो जाता है कि यह मनुष्य के मानस के निर्माण और उसके द्वारा समाज के स्वभाव को सीधा-सीधा निर्धारित करता है . विद्यार्थी गुरु की ओर बड़े विश्वास और भरोसे के साथ देखता है और गुरु सिर्फ़ अपने ज्ञान से ही नहीं अपनी भौतिक शारीरिक उपस्थिति , चाल – ढाल , बात – व्यवहार , वेश- भूषा और हाव – भाव सबसे चेतन और अचेतन स्तर पर अपने विद्यार्थियों को सिखाता रहता है . इस तरह गुरु की भूमिका अपनाते ही व्यक्ति को स्वयं को भी नए साँचे में ढालना होता है . यदि इसे नौकरी और व्यवसाय मानें भी तो यह इस अर्थ में सबसे भिन्न तरह का हो जाता है की यह एक वस्तु , क्रिया या फ़ाइल की जगह बड़ी लम्बी अवधि तक जीते जागते और विकसित हो रहे इंसान से मुख़ातिब रहता है और ‘ डील ‘ करता है . रक्त सम्बन्धियों से अलग हट कर गुरु- शिष्य जितना गहरा रिश्ता कोई और नहीं होता है .
कहना न होगा कि प्राथमिक विद्यालय से ले कर विश्वविद्यालयों तक पूरे देश में पसरे शैक्षणिक परिसरों में वैकल्पिक या समानांतर संस्कृति पलती -पनपती है या कि उसकी सम्भावना बनी रहती है जो समाज के निर्माण के लिए एक बड़ा अवसर होता है . इस अवसर का सदुपयोग करना या फिर उसके प्रति तटस्थ बने रहना अथवा दुरुपयोग करना समाज की चेतना पर निर्भर करता है . साथ ही इस संस्कृति का दारोमदार अध्यापकों पर ही निर्भर करता है . प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर तो इसकी बड़ी अहमियत है जब कि अध्यापकों की उपलब्धता और सेवा शर्तों को के कर बड़ी मुश्किलें बनी हुई हैं .
आज के बदलते परिवेश में बाज़ार , राजनीति और उपयोगितावाद ने सबकी मानसिकता अर्थकरी शिक्षा पर केंद्रित कर दिया है . शिक्षा ज्ञान के लिए उसी हद तक उपयोगी मानी जाती है जितनी मात्रा वह अच्छी तनख़्वाह या पैकेज दिला पाती है . शिक्षा संस्थाओं के विज्ञापन भी इसकी जानकारी के साथ प्रसारित लिए जाते हैं . आज की नई पौध के लिए यही प्रमुख सरोकार हो चुका है . अध्यापक भी चकाचौंध की आँधी में अछूते नहीं रहे और कमाई करने के उपक्रमों की ओर तेज़ी से आकर्षित हो रहे हैं और उसकी इच्छा – आकांक्षा दौड़ रही है . ज्ञानार्जन , अध्यवसाय , शास्त्र-चर्चा और सृजनात्मकता के लिए उत्साह कम होता जा रहा है . उच्च शिक्षा के स्तर में गिरावट जिस तरह दर्ज हो रही है वह चिंता का विषय है . अध्यापन को दूसरे व्यवसायों के तर्ज पर रखते हुए रुपया पैसा कमाना ही लक्ष्य होता जा रहा है .
अध्यापक की छवि और साख में कमी आई है . अब साहित्यिक चोरी , शॉर्ट कट से सीखना – सिखाना और ग़ैर अकादमिक कार्यों के प्रति रुझान बढ़ रही है . पढ़ने – पढ़ाने का सुख और ज्ञान का व्यसन एक दुर्लभ अनुभव होता जा रहा है . इसकी जगह शैक्षिक परिसर राजनीति के अखाड़े बन कर अपनी रही सही श्री भी खोते जा रहे हैं . इस तरह मुक्त करने की जगह शिक्षा बंधनों में बांधने वाली होती जा रही है . इस परिस्थिति को सामाजिक परिवर्तन का स्वाभाविक अंग मान कर अंगीकार कर लेना समाज के लिए हित कर न होगा . शिक्षा चाहे जैसी हो एक हस्तक्षेप होती है और समाज में दृष्टिगत प्रवृत्तियों को उससे अलग कर नहीं समझना चाहिए . शिक्षा और शिक्षक
देश की नीति की वरीयता सूची में अभी तक पिछड़ते रहे हैं . वर्तमान सरकार इस दिशा में ज़्यादा सक्रिय हुई है .
नई शिक्षा नीति जिस भारतकेंद्रित शिक्षा की बात कर रही है और जिस तरह छात्रों की दक्षताओं और प्रतिभाओं पर ध्यान देने के लिए अवसर बनाने के लिए सोच रही है उसका ताना – बाना अध्यापकों के इर्द गिर्द ही बुना जा सकेगा . उसके लिए अध्यापकों का प्रशिक्षण और दृष्टिकोण भी बदलना होगा . यह आवश्यक होगा कि ज़मीनी हक़ीक़त बदली जाय और इसके लिए प्रतिबद्ध हो कर कार्य किया जाय .
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