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Pahachaan jara: कवि, कवित्त को पहचान जरा

!! पहचान जरा!! (Pahachaan jara)

Varun singh

Pahachaan jara: कवि, कवित्त को पहचान जरा
शब्द लय मिला या किस बिम्ब छन्द
ढूढ़ता वो गान बह चली जिस धार
चल, उठ, फिर ठहर जाता मन्द – मन्द

भाव – विचार तत्व संचरित प्रज्ञा दीप में
तरंगित कर झंझा झंकोर – सी पंक्ति
शब्द – शब्द के उलट-पुलट में फँसी जा
वर्तनी वर्ण शब्द फिर कवित्त महल खड़ा

देखा, असमंजस में यह गीत या कविता
यह घटक किस दश इंद्रियों में देखे या संगीत
रिद्म – लय में है या वो खेलें शब्दों के
अपरिचित थे अब भींगी परिचित – सी

शब्दों के रहस्यों में कौन अर्थ छुपाएँ खड़ा !
खेल – खेल में होता यहाँ सृजन कवित्त विधा
सृजितकर्ता अमन में खिला दिया वो पुष्प
जो बिखर – बिखर कर बेसुर में रहती थी अकेला

स्वप्न या ख़्वाब में, देखो बीती काल
तू किस प्रतीक्षा में, है यहाँ करता कौन?
दुनिया तेरी प्रतीक्षारत, उठ चल चलाचल
छू महासागर के तल ऊपर क्षितिज असीम

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