वो निगाहें जो तरस गई थी प्यार को
बहन की ताकत बीवी का प्यार, पिता की शान, बच्चों का दुलार काफी था,
लेकिन एक नशा चढ़ा मुझे और, आँख खुली तो पहुँचा लाहौर।।
शक्ल, लिवाज़ के बारे में क्या कहूँ, लगे सब अपने फिर क्यू उनकी निगाहों में था लहू।।
ना जाने किस ठेस का बदला उतारा उन्होंने, भूखे चूहों के साथ जंज़ीरों में जकड़ा उन्होंने।।
सोच रहा था कि भयंकर गुनाह किया होगा मैने,
जब भी मैं बोलता था, ना जाने क्यू उनका लहू खोलता था।।
आखिर कौन था वो रंजीत जिसने सरबजीत की पहचान बदलदी,
मुदत्तों के बाद अपने जख़्मी दिल से एक चिट्ठी मैने भी लिखदी।।
इंतजार में घरवाले तरसे, भूखी प्यासी चाह लिए पिता चल बसे,
बीवी, बच्चों की उम्मीद भी छूटी, लेकिन मेरी बहन की हिम्मत न टूटी।।
चिठ्ठियों में बयां करता था दिल-ए-ज़ख्म, खुदा से मौत मांगकर होना चाहता था ख़त्म।।
फिर एक दिन मेरा परिवार सामने था, बहन, बीवी, बच्चों ने जगाई आस मैं फिर जी उठा।।
वो निगाहें जो तरस गई थी प्यार को, आज मिला मौका अपने हाथों से सवारने को,
जाते-जाते मेरी बहन की आवाज़ कानों में गूंज रही थी, जल्द छूडाऊंगी तुजे मानो कोई शक्ति बोल रही थी।।
एक बार फिर ताज़ा हुई वो यादें, खेतों की हरियाली, पिता की लाठी, और बहन की डाटे।
जिस्म ही नहीं मेरी रूह भी छन्नी हो गई इस कैद में, बिना पर का एक पक्षी उड़ना चाहता हो आसमान में।।
बाल सफेद हो गए उस बहन के, जिसके हाथों में ना मेहँदी लगी, ना फूल लगे गजरे के।
एक बहन की बदौलत मिली सरबजीत को इस दुनिया में पहचान,
बच्चे, बूढ़े, जवान हर कोई बचाना चाहता था मेरी जान।।
कारवां थम गया जब फांसी की सज़ा हुई, लेकिन एक बहन तब भी न रुकी।
सोचा ना था एक मामूली सा धागा, इस बंधन में बांधेगा,
शायद मेरी बहन को रक्षाबन्धन का इंतजार होगा।।
आखिरकार लाखों लोगों की भीड़ के साथ मैं अपने वतन पहुँच ही गया, टूटी बहन की उम्मीद, सुहागन का सुहाग उजाड़ गया।।
चाह थी उन्हें की मैं ज़िंदा उनके सामने होता, लेकिन खुश था मैं क्योंकि हर सरबजीत तिरंगे में विदा नहीं होता, तिरंगे में विदा नहीं होता।।
यह आत्मकथा है उस शख्स(सरबजीत) की जिसे सालों तक बिना किसी जुर्म के सज़ा भुगतनी पड़ी,
लाहौर की उस कैद में उसने जिंदगी को भी जिया लेकिन रोज मरते मरते।।
हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारे पाठक अपनी स्वरचित रचनाएँ ही इस काव्य कॉलम में प्रकाशित करने के लिए भेजते है।
अपनी रचना हमें ई-मेल करें
writeus@deshkiaawaz.in