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World mental health day: जीवन में आरोग्य है समृद्धि का द्वार: गिरीश्वर मिश्र

10 अक्टूबर विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस( World mental health day)

‘जीवेम शरद: शतम्’ !(World mental health day) भारत में स्वस्थ और सुखी सौ साल की जिंदगी की आकांक्षा के साथ सक्रिय जीवन का संकल्प लेने का विधान बड़ा पुराना है. पूरी सृष्टि में मनुष्य अपनी कल्पना शक्ति और बुद्धि बल से सभी प्राणियों में उत्कृष्ट है . वह इस जीवन और जीवन के परिवेश को रचने की भी क्षमता रखता है . साहित्य , कला , स्थापत्य, और ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में उसकी विराट उपलब्धियों को देख कर कोई भी चकित हो जाता है. यह सब तभी सम्भव है जब जीवन हो और वह भी आरोग्यमय हो. परन्तु लोग स्वास्थ्य पर तब तक ध्यान नहीं देते जब तक कोई कठिनाई न आ जाय.

दूसरों से तुलना करने और अपनी बेलगाम होती जरूरतों और महत्वाकांक्षाओं के बदौलत तरह- तरह , चिंता कष्ट , तनाव और अवसाद से ग्रस्त होना आज आम बात हो गयी है. मुश्किलों के आगे घुटने टेक कई लोग तो जीवन से ही निराश हो बैठते हैं . कुछ लोग इतने निराश हो जाते हैं कि उन्ह्ने कुछ सूझता ही नहीं. ऐसे अंधेरे क्षणों में वे अपनी जान की परवाह नहीं करते और जीवन को ही सारी समस्याओं की जड़ मान बैठते हैं. वे यह भूल जाते हैं कि वे इस जीवन के न स्वामी हैं , न निर्माता है और न यह याद रख पाते हैं कि जीवन कोई स्थिर, पूर्व निश्चित व्यवस्था नहीं है.

उनको यह भी नहीं याद रहता उनका जीवन सिर्फ उन्हीं का नहीं है और भी जिंदगियां उस जीवन से जुड़ी हुई हैं. जीवन की सत्ता ही अकेले की उपलब्धि नहीं है. वह रिश्तों की परिणति होती है . जीवन इन्हीं रिश्तों और सम्बन्धों से बनता और बिगड़ता है. अत: जीवन की पूरी संकल्पना व्यक्ति केंद्रित बनाना कुतर्क है और निरापद तो है ही नहीं. पर जब आदमी ऐसे बुद्धि भ्रम से ग्रस्त होता है उसके आत्म हत्या जैसे भीषण परिणाम होते हैं और सारी संभावनाओं का अंत हो जाता है.

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वैसे हार मान बैठना और स्वयं को हानि पहुंचाना जैसा व्यवहार तर्कसम्मत-बौद्धिक (लोजिकल-रैशनल) दृष्टि के खिलाफ जाता है. पर आज जो सामाजिक परिवर्तन हो रहे हैं उनके बीच मानसिक स्वास्थ्य की चुनौती भारत समेत पूरे विश्व में बढ रही हैं. इस स्थिति के व्यापक कारण अक्सर आर्थिक, पारिवारिक धार्मिक जीवन के ताने बाने , आदमी के विश्वासों और मान्यताओं में ढूंढे जाते हैं. आधुनिकीकरण और रिश्तों की टूटती कड़ियों के बीच जीवन की स्थापित व्यवस्थाएं प्राय: तहस-नहस होने लगती हैं.

जब सामाजिक जुड़ाव और निकटता कमजोर पड़ने लगती है और सामाजिक नियमन की व्यवस्था विशृंखलित होने लगती है तो उससे उपजने वाला मानसिक-सामाजिक असंतुलन मानसिक अवास्थ्य को अंजाम देता है.आजकल अपनी क्षमता से ज्यादा कर्ज लेना, प्रतिस्पर्धा में पिछड़ना, वैवाहिक जीवन में नकारात्मक घटना होना और विफलताएं आदमी को निराश, अवसादग्रस्त बनाती हैं और खुद के बारे में हीन भावना पैदा करती है. ये सब आत्म हत्या जैसी घटना को अंजाम देती हैं. तीव्र भावनात्मक पीड़ा के चलते शायद आदमी दुनिया और खुद दोनों से दूर भागना चाहता है . पीड़ा से आत्म नियमन बिखर जाता है या ढीला पड़ जाता है और तब व्यक्ति आत्म हत्या की ओर कदम बढता है.

विगत वर्षों में किसानों की आत्महत्या, प्रौढों द्वारा पारिवारिक झगड़ों , वैमनस्य, असफलता , अकेलापन, आदि के संदर्भ में आत्म हत्या की घटनाओं में खूब वृद्धि हुई है. कोरोना की महामारी ने स्वास्थ्य की चुनौती को नया आयाम दिया है गरीबी/दीवालियापन, प्रेम में विफलता, शारीरिक उत्पीड़न तथा घरेलू हिंसा भी मानसिक परेशानियों के खास कारण हो रागे हैं.

राष्ट्रीय स्तर उचित स्वास्थ्य सुविधा और उपचार की, क्राइसिस सेंटर, हेल्प लाइन, नेटवर्क, जन शिक्षा के उपाय वरीयता के साथ उपलब्ध होने चाहिए. साथ ही परिवार के साथ जुड़ाव, समुदाय-सामाजिक समर्थन और धार्मिक विश्वास आदि के लिए सामुदायिक स्तर पर कदम उठाना होगा. यह भी जरूरी है कि मीडिया रिपोर्ट जिम्मेदारी के साथ हो और सकारात्मकता पर बल दिया जाय. विद्यालयों में भी स्वास्थ्य के लिए जागरण अभियान चले , अवसाद की रोकथाम के लिए मानसिक उपचार और परामर्श की सुविधा उपलब्ध कराई जाय. समाज और व्यक्ति दोनों ही स्तरों पर सक्रिय हस्तक्षेप द्वारा ही स्वस्थ्य भारत का स्वप्न पूरा हो सकेगा.

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