Paandity-parampara: पांडित्य-परम्परा की अनोखी सम्पदा रक्षणीय है: गिरीश्वर मिश्र
वाचिक पद्धति से सीखने और याद करने की अपनी सीमाएँ हैं । वाचिक ढंग से ग्रहण कर किसी सामग्री को स्मृति में बनाए रखने के लिए किसी तकनीकी उपकरण की अपेक्षा नहीं होती । परंतु मानवीय स्मृति स्वयं में रचनात्मक होती है इसलिए याद की गयी सामग्री में विभिन्न व्यक्तियों की स्मृतियों में पाठ-भेद पैदा हो जाते हैं। साथ ही समय के साथ उसमें परिवर्तन का आना भी अवश्यंभावी हो जाता है। इस सीमा के बावजूद भी बहुत हद तक सामग्री हमारी स्मृति में अपने प्रामाणिक रूप में उपलब्ध रहती है और उसे अगली पीढ़ी तक पहुँचाना सरल होता है । चूँकि आरम्भ में छापे खाने की सुविधा भी उपलब्ध नहीं थी इसलिए पुस्तकों की प्रतिलिपि भी हाथ से तैयार होती थी और सीमित मात्रा में ही उपलब्ध होती थी । इस स्थिति का परिणाम यह भी था कि विषय प्रतिपादन के लिए की युक्तियों का सहारा लिया गया। कुछ लेखकों ने काव्य की विधा का उपयोग किया । उदाहरण के लिए भास्कराचार्य गणित की अपनी पुस्तक ‘लीलावती’ काव्य में रचे थे।
अनेक विषयों के प्रतिपादन में संक्षिप्त, सांकेतिक तथा संयत सूत्र पद्धति का उपयोग किया गया । बादरायण का ब्रह्म सूत्र, आपस्तम्ब का धर्म सूत्र, वात्स्यायन का काम सूत्र, गौतम का न्याय सूत्र, पतंजलि का योग सूत्र और पाणिनिरचित व्याकरण का प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अष्टाध्यायी’ आदि अनेकानेक मूल्यवान ग्रंथ सूत्र की शैली में अपने-अपने विषय का वैज्ञानिक रीति से व्यवस्थित प्रतिपादन करते हैं । थोड़े से अक्षरों में निबद्ध सूत्र अपने भीतर प्रचुर जानकारी सुरक्षित रखते हैं जिसे आवश्यकतानुसार निरूपित और व्याख्यायित किया जाता है। बाद में सूत्रों की व्याख्या की जाती है। व्याकरण, न्याय, संगीत और नाट्य आदि विभिन्न विषयों के ग्रन्थों में मूल रचना में प्रस्तुत ज्ञान के वक्तव्य पर भाष्य और टीका लिखने का ज़बरदस्त क्रम भी चलता रहा है ।
पाणिनि के अष्टाध्यायी के सूत्रों पर कात्यायन ने वार्तिक लिखे। मूल अष्टाध्यायी को आधार बना कर व्याकरण शास्त्र की अनेक रचनाएँ हुई हैं जिनमें वरदराजाचार्य ने लघुकौमुदी, भट्टोजिदीक्षित ने सिद्धांतकौमुदी, पतंजलि ने महाभाष्य, भर्तृहरि ने वाक्यपदीय, नागेश भट्ट ने शब्देन्दुशेखर और परिभाषेन्दुशेखर जैसे अनेक व्याख्या ग्रंथ लिखे गए। इनमें विचार, चिंतन और विश्लेषण की गम्भीरता और स्वतंत्रता जिस व्यापकता और ऊँचाई तक पहुँची मिलती है वह किसी के लिए भी स्पृहणीय हो सकती है।
इस प्रसंग में यह उल्लेख करना भी उचित होगा कि भारत के विभिन्न दर्शनों में मिलने वाले विविध मत वैचारिक उदारता और सहनशीलता का भी अपने ढंग का विलक्षण उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। केवल वेदांत-दर्शन के क्षेत्र को ही लें तो उसके अंतर्गत अद्वैत, द्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, भेदाभेद, शुद्धाद्वैत, अचिंत्य भेदाभेद जैसे विभिन्न रूप मिलते हैं । ये सभी कोरे वाग्विलास न हो कर पारमार्थिक और व्यावहारिक धरातल पर उठने वाली चुनौतियों का समाधान भी उपस्थित करते हैं और वैकल्पिक दृष्टि प्रदान करते हैं । इन विचार-सारणियों के प्रवर्तक शंकराचार्य, निम्बार्काचार्य, मध्वाचार्य, रामानुजाचार्य और वल्लभाचार्य आदि के द्वारा प्रस्तुत व्याख्याएं तर्क, अनुभव और आस्था के आधार पर अस्तित्व को निरूपित करते हुए सृष्टि, जीवन और जगत की समग्र व्यवस्था उपस्थित करती हैं।
ज्ञान की यह परम्परा विद्यार्थी से कठिन साधना की अपेक्षा करती है जिसमें ज्ञानार्जन और ज्ञान-सृजन की इस पद्धति में सिद्धांत को समझना, उसका उपयोग करना और उसकी सीमाओं को पहचानना एक सतत प्रक्रिया के रूप में ग्रहण किया जाता है । प्रत्येक शास्त्र की विषय वस्तु, उद्देश्य, प्रासंगिकता और इसके जिज्ञासु को सुनिश्चित किया गया था। विज्ञ जनों द्वारा बड़ी कड़ी परीक्षा से गुज़रने के बाद ही किसी सिद्धांत में परिवर्तन और परिवर्धन करने का विधान रखा गया । ज्ञान अबाधित होना चाहिए और छल प्रपंच से रहित होना चाहिए । किसी ज्ञान का कथन मात्र ही उसे स्वीकृत करने के लिए पर्याप्त नहीं होता उसे प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द आदि विभिन्न स्वीकृत प्रमाणों पर खरा उतरना चाहिए। ज्ञान की इस साधना में श्रवण, मनन और निदिध्यासन की लम्बी और परिश्रम साध्य प्रक्रिया अपनाई जाती है ।
आज के युग में जब ज्ञान सूचनामूलक होता जा रहा है, निजी अनुभव से अधिक तकनीकी पर निर्भर करने लगा है और ज्ञान की सार्थकता रूपये पैसे कमाने की सम्भावना से आंकी जाने लगी है परम्परागत शास्त्र-ज्ञान को सुरक्षित रखना कठिन होने लगा है । इसके लिए ज़रूरी एकनिष्ठ आस्था और समर्पण अब दुर्लभ वस्तु होती जा रही है । इसे ध्यान में रख कर भारत सरकार ने शास्त्र-परम्परा में निष्णात संस्कृतज्ञ विद्वानों को राष्ट्रपति सम्मान और बादरायण सम्मान द्वारा अलंकृत करने की सराहनीय परम्परा आरम्भ की थी। यह डाक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन के राष्ट्रपति काल में आरम्भ हुई थी और अनवरत चल रही थी। विगत तीन वर्षों से यह स्थगित हो गयी है। ज्ञान-परम्परा की सामाजिक प्रतिष्ठा की दृष्टि से यह एक महत्वपूर्ण पहल थी। ऐसा सुनाई पड़ा है कि विद्वानों के चयन के मानदंड पर पुनर्विचार हो रहा है और प्रकाशनों की संख्या को अनिवार्य आधार के रूप में ग्रहण करने पर विचार हो रहा है।
शिक्षा मंत्रालय को इस प्रतिष्ठित सारस्वत आयोजन को उसके मौलिक रूप में संचालित करना चाहिए। उल्लेखनीय है कि पूर्व में इस योजना के अंतर्गत जिन अनेक विद्वानों को समादृत किया गया था उनमें अनेक अपने वैदुषिक योगदान के लिए पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्म श्री आदि राष्ट्रीय सम्मानों से अलंकृत किया जा चुका है। संस्कृति के जीवित प्रवाह स्वरूप ज्ञान की इस परम्परा को प्रतिष्ठित करते हुए देश की अस्मिता ही समृद्ध होगी।
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