Mohit Kumar Upadhyay

एक देश एक चुनाव : अर्थ, आयाम एवं चुनौतियां

Mohit Kumar Upadhyay
मोहित कुमार उपाध्याय
राजनीतिक विश्लेषक एवं अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार

हाल ही में संविधान दिवस के अवसर पर गुजरात के केवडिया में आयोजित किए गए पीठासीन अधिकारियों के सम्मेलन में माननीय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा चुनाव सुधारों की अपनी मंशा जाहिर करते हुए एक देश एक चुनाव की प्रतिबद्धता व्यक्त की गई। अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने एक देश एक चुनाव को देश की सबसे बड़ी आवश्यकता के रूप में पेश किया। गौरतलब है कि एक लंबे समय से प्रधानमंत्री व्यक्तिगत रूप से एक देश एक चुनाव को लेकर मुखर है। स्वतंत्र एवं निष्पक्ष निर्वाचन एक स्वस्थ लोकतांत्रिक प्रणाली की मूलभूत विशेषता है। परंतु समयानुसार निर्वाचन प्रणाली में सुधार करना भी एक परिपक्व लोकतांत्रिक राजनीति का परिचय देता है और विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत ने समय एवं परिस्थितियों के अनुसार चुनाव सुधारों से इंकार नहीं किया है। यह प्रश्न उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा संविधान के अंतर्गत एक देश एक चुनाव के समान कोई विशेष व्यवस्था क्यों नहीं की गई! जबकि संविधान में कार्यपालिका को विधानमंडल के प्रति उत्तदायी ठहराया गया है। दरअसल इस प्रश्न के लिए यह तर्क दिया जा सकता है कि शायद संविधान निर्माताओं द्वारा भविष्य की राजनीति में नैतिकता के पतन की कल्पना ही न की हो या हो सकता है कि उन्होंने इस विषय को भावी पीढ़ी के लिए अपनी आवश्यकतानुसार अपनाने के लिए छोड़ दिया हो। जो भी हो परंतु इस विषय पर संविधान मौन है और भारतीय संविधान के अनुच्छेद-324 में केवल यह प्रावधान किया गया है कि “संसद और प्रत्येक राज्य के विधानमंडल तथा राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के निर्वाचनों के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण एक आयोग में निहित होगा” जिसे भारत में आमतौर पर निर्वाचन आयोग के नाम से जाना जाता है। 

PM Narmada innograte edited

आखिर एक देश एक चुनाव की आवश्यकता का मूल कारण क्या हैं? 1952 में संपन्न हुए प्रथम आम चुनावों से लेकर 1967 में आयोजित किए गए चौथे आम चुनावों तक केंद्र एवं सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव का आयोजन एकसाथ किया जाता रहा परंतु चौथे आम चुनावों की समाप्ति के साथ ही यह महत्वपूर्ण कड़ी टूट गई जिसका सबसे बड़ा कारण रहा – 1967 में आठ राज्यों में गैर कांग्रेसी मिश्रित सरकारों का बनना और यहीं से भारत में गठबंधन की राजनीति का दौर शुरू हुआ जिससे दल बदल की राजनीति का जन्म हुआ। भारत जैसे विकासशील देश में जहां प्रत्येक वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनावी माहौल बना रहता है, यह देश के विकास में बाधक ही अधिक साबित होता है। एक ओर जहां राज्यों में अलग-अलग चुनावों के आयोजन से समय एवं धन का अपव्यय होता है वहीं दूसरी ओर कुशल मानव संसाधन को भी अपने मूल कार्य से अलग कार्य को संपन्न करना पड़ता है। पिछले कुछ समय से भारत में चुनाव प्रचार पर राजनीतिक दलों एवं निर्वाचन प्रत्याशियों द्वारा बेतहाशा ख़र्च किया जाता रहा है जो कि एक चिंता का विषय बनता जा रहा है। इससे राजनीति का अपराधीकरण एवं अपराधियों का राजनीतिकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है। चुनाव के संदर्भ में भारत को लेकर अक्सर यह कहा जाने लगा है कि भारत एक ऐसा देश है जहां प्रत्येक वर्ष चुनाव आयोजित किए जाते है। यह सर्वविदित है कि निर्वाचन आयोग द्वारा चुनावों को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष बनाए रखने के लिए चुनाव अधिसूचना के साथ ही चुनाव आचार संहिता लागू कर दी जाती है ताकि सत्तारूढ़ दल अपनी प्रशासनिक एवं शासकीय ताकत के बल पर आम जन को प्रभाव में न लें सकें। इस कारण नए विकास कार्यों को शुरू नहीं किया जा सकता है और भारत में यह स्थिति किसी न किसी राज्य में चुनाव होने के कारण सदा बनी रहती हैं जो भारत को विकसित देश बनने के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-1 में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि “भारत अर्थात इंडिया राज्यों का एक संघ होगा।” अतः संविधान की संघीय भावना के अनुरूप वर्तमान केंद्र सरकार द्वारा इस विषय पर सभी राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श कर उन्हें विश्वास में लिए जाने की आवश्यकता है। उल्लेखनीय है कि भारत विविधताओं से भरा देश है और हर राज्य की अपनी भिन्न भू राजनीतिक स्थिति है इसीलिए अधिकांश राज्य सरकारें एवं राजनीतिक दल राष्ट्रीय हितों से संबंधित मुद्दों के विपरीत केवल क्षेत्रीय मुद्दों तक ही सीमित रहते हैं। इस विषय पर क्षेत्रीय दलों की इस आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि देश में आम चुनावों के साथ ही सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव आयोजित किए जाने से संविधान की संघीय ढांचे को ठेस पहुंचेगी और इससे क्षेत्रीय मुद्दों पर राष्ट्रीय मुद्दे हावी हो जाएंगे और केंद्र में सत्तारूढ़ दल ही राज्य विधानसभाओं के चुनावों में लाभकारी स्थिति प्राप्त करेगा जिससे क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। वहीं विधि आयोग द्वारा अपनी 170वीं रिपोर्ट, 1999 में एक देश एक चुनाव की अनुशंसा की गई थी। तब से लेकर आज तक विधि आयोग की यह अनुशंसा अपने उचित रूप में लागू किए जाने का इंतजार कर रही है। 
भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा भारत की राजनीतिक व्यवस्था के लिए लोकतांत्रिक संसदात्मक व्यवस्था को अपनाया गया है जिसमें सदन, लोकसभा एवं राज्य विधानसभा, में बहुमत प्राप्त करने वाले दल के नेता को ही परिस्थितिनुसार प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री नियुक्त किया जाता है। अर्थात कार्यपालिका को अपने अस्तित्व के लिए विधानमंडल का विश्वास प्राप्त करना आवश्यक है अन्यथा विपरीत स्थितियों में मंत्रिपरिषद के विश्वास खोने के साथ ही सरकार भंग हो जाती है।

यही कारण है कि एक देश एक चुनाव व्यवस्था में लोकसभा एवं राज्य विधानसभा के कार्यकाल को निश्चित एवं नियंत्रित किया जाना मूल आवश्यकता है और इसके लिए भारतीय संविधान के लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण अनुच्छेदों में संशोधन आवश्यक प्रतीत हो रहे है। आज के इस दौर में जहां निहित राजनीतिक स्वार्थों के कारण दल बदल की राजनीति हावी होती जा रही है, लोकसभा एवं राज्य विधानसभा के कार्यकाल से जुड़े अनुच्छेदों में संशोधन किए बिना एक देश एक चुनाव व्यवस्था को प्रभावी एवं स्थायी नहीं बनाया जा सकता है। इसके लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद -83(2), 85(2), 172(1) एवं 174(2) में संशोधन किए जाने की आवश्यकता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-83(2) एवं 174(1) में क्रमशः यह प्रावधान किया है कि “लोकसभा या प्रत्येक राज्य की विधानसभा, यदि पहले ही विघटित नहीं कर दी जाती है तो, अपने प्रथम अधिवेशन के लिए नियत तारीख से (पांच वर्ष) तक बनी रहेगी, इससे अधिक नहीं और (पांच वर्ष) की उक्त अवधि की समाप्ति का परिणाम लोकसभा का विघटन होगा।” अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि यदि सदन में कार्यपालिका विधानमंडल का विश्वास खो दें और कोई अन्य दल सरकार बनाने की स्थिति में न हो तब लोकसभा या संबंधित राज्य विधानसभा के पांच वर्ष के कार्यकाल समाप्ति से पूर्व ही विघटन से कैसे रोका जा सकें!

इसके लिए संविधान संशोधन के माध्यम से एक ठोस एवं स्थिर वैकल्पिक समाधान किए जाने की आवश्यकता है और यह तभी संभव हो पाएगा जब भारत के सभी राजनीतिक दल मिलकर आपसी समझ एवं सहयोग का परिचय दें। हालिया अनेक राज्य विधानसभाओं के चुनाव परिणामो से यह स्पष्ट होता है कि अगर कोई राजनीतिक दल चुनाव परिणामों में सबसे बड़े दल के रूप में उभरकर आता है परंतु बहुमत प्राप्त करने में असफल रहता हैं तो वह सरकार बनाने में सफल नहीं हो पाता है बल्कि सत्ता प्राप्ति के लालच में अन्य दल मिलकर जनादेश की अवहेलना करते हुए बिना किसी विचारधारा या साझे मूल्यों के आधार पर गठबंधन सरकार बना लेते हैं। कभी कभी निहित राजनीतिक स्वार्थों के कारण चुनाव पूर्व गठबंधन को टूटते हुए भी देखा जाता है। यह सभी राजनीतिक दुर्घटनाएं स्वस्थ लोकतंत्र के विकास में बाधक ही अधिक साबित होगी ना कि सहायक। इसीलिए एक देश एक चुनाव की सफलता के लिए और ऐसी घटनाओं को प्रतिबंधित करने के लिए संविधान के इन दोनों उपरोक्त प्रावधान में सफल संशोधन किए जाएं ताकि एक देश एक चुनाव की उपयोगिता एवं भविष्य पर प्रश्नचिन्ह न उत्पन्न हो सकें।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-174(2)(ख) एवं 85(2)(ख) के अनुसार, क्रमशः, “राज्यपाल या राष्ट्रपति, राज्य विधानसभा या लोकसभा का विघटन कर सकेगा।” कभी कभी ऐसा देखा जाता है कि केंद्र में सत्तारूढ़ दल राजनीतिक दुर्भावना के आधार पर या अन्य किसी कारण से राज्यपाल के माध्यम से राज्य विधानसभा का कार्यकाल पूरा होने से पूर्व ही विश्वास मत के अभाव का बहाना बनाकर विघटन करा देते हैं। वहीं लोकसभा में जब गठबंधन सरकार कार्य कर रही हो और सहयोगी दल संकीर्ण राजनीतिक मानसिकता का परिचय देते हुए मौजूदा सरकार से अपना समर्थन वापिस लेने की घोषणा करते है जिससे सरकार अल्पमत की स्थिति में आ जाती है तो बदले की भावना से प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति से लोकसभा विघटन की सिफारिश कर देती है। वहीं राष्ट्रपति के माध्यम से केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद-356 (राज्यों में सांविधानिक तंत्र के विफल हो जाने की उद्घोषणा) के दुरुपयोग की घटनाएं भी लगातार देखने को मिलती रहती है।

यह कहा जा सकता है कि एक देश एक चुनाव वर्तमान में भारत जैसे एक उदार लोकतांत्रिक देश के लिए समय की मांग है जिसे किसी भी प्रकार से झुठलाया नहीं जा सकता है परंतु एक देश एक चुनाव व्यवस्था का यह मार्ग इतना आसान भी नहीं है। इसके लिए हमें अनेक संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक जटिलताओं को आत्मसात करना होगा। वहीं स्थानीय स्तर के शासन को भी इस चुनाव सुधारात्मक प्रक्रिया से जोड़ना आवश्यक है वरना यह शासन के तीनों स्तरों यानि केंद्र, राज्य एवं स्थानीय स्वशासन तक अपनी पहुंच सुनिश्चित नहीं कर पाएगा और एक देश एक चुनाव के ढांचे पर खरा उतरने में असक्षम साबित होगा।

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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