राष्ट्र (nation) का पुरुषार्थ
भारत एक आधुनिक राष्ट्र (nation के रूप पिछले सात दशकों में अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए लोक तंत्र के मार्ग पर अटल रहा है और यदि कभी स्खलन हुआ तो उसका प्रतिकार भी किया है.
आजादी का अमृत महोत्सव सुनते हुए भारतवर्ष की सार्वभौम सत्ता और अस्मिता की स्मृति हमारे मानस में कौंध जाती है जिसे प्राणों की आहुति और दृढ संकल्प के तेज ने संभव किया था . आजादी का क्षण भारत के असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों के संघर्ष, समर्पण और बलिदान की अमर गाथाओं को अपने में संजोए हुए है . यह उस प्रतिज्ञा को भी याद दिलाता है जो सारे देश ने एक जुट हो कर गुलामी का प्रतिकार करने के लिए ली थी . बारह मार्च की तिथि इसलिए भी ख़ास हो गई कि इसी दिन 1930 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध निहत्थे नमक सत्याग्रह का आरम्भ हुआ था जो अपने ढंग का अकेला था और सारे विश्व का ध्यान आकृष्ट कर सका था.
पूरे राष्ट्र (nation) ने सारे भेदों को भुला कर मातृभूमि के लिए अपना सर्वस्व अर्पित करने की ठानी थी. आज देश स्वतंत्रता की दीप शिखा को संजोने के लिए कृत संकल्प है और नए दम ख़म के साथ देश की आगे की जय यात्रा के लिए तत्पर हो रहा है. पर यह तत्परता और जज्बा निरी भौतिक सत्ता से कहीं अधिक भारत के भाव से उपजता है जो समाज के रक्त और मज्जा में जाने कब से घुला मिला हुआ है.
गौर तलब है कि महात्मा गांधी समेत सभी नए पुराने चिंतकों ने सीमित आत्म या स्व के विचार को अपरिपक्व और नाकाफी पाया है. इसीलिए ब्रह्म का विचार हो या सत्व , रज और तम की त्रिगुण की अवधारणा इन सबमें अपने सीमित स्व या अहंकार ( स्वार्थ) के अतिक्रमण की चुनौती को प्रमुखता से अंगीकार किया गया है. अहंकार ही अपने पराये का भेद चौड़ा करते हुए प्रतिस्पर्धा और संघर्ष को जन्म देता है. यही प्रवृत्ति आगे बढ़ कर अपने परिवेश और पर्यावरण के नियंत्रण और दोहन को भी जन्म देती है. विश्लेषण और विविधता से एक बहुलता की दृष्टि पनपती है संश्लेषण के बिना बात नहीं बनती है. बहुलता की प्रतीति एकता की विरोधी नहीं होती है :
एकं सद विप्रा: बहुधा वदन्ति .. एक विचार के रूप में भारत विविधताओं को देखता पहचानता हुआ एकत्व की पहचान और साधना में संलग्न रहा है. इस विराट भाव की अभिव्यक्ति स्वामी विवेकानंद , महात्मा गांधी और महर्षि अरविंद के चिंतन में प्रकट हुआ. इन सबने विकास, प्रगति और उन्नति की कामना में पूर्व की परम्परा को आत्मसात करते हुए उसमें जोड़ कर आगे बढ़ने पर बल दिया है न कि ज्यों के त्यों के स्वीकार की . इस सिलसिले में कालिदास की बात कि ‘ सब पुराना ही अच्छा है और नया खराब है’ ऐसा सोचना बुद्धिमानी नहीं है. विचारवान लोग जांच-परख कर ही अच्छे का ग्रहण करते हैं और बुरे का त्याग करते हैं’ उल्लेखनीय है .
मनुष्य की उत्कृष्टता धर्म की प्रधानता में है जो उसे धरती के अन्य प्राणियों से अलग करता है अन्यथा पशुओं और मनुष्यों दोनों में ही भूख, प्यास, निंद्रा और मैथुन की प्रवृत्ति समान रूप से परिलक्षित होती है. जीवन लक्ष्यों के रूप में परिगणित मनुष्य के सभी पुरुषार्थों में धर्म केन्द्रीय है और सबको धारण करता है. धर्म को अपनाने से अभ्युदय और नि:श्रेयस दोनों की ही सिद्धि होती है. अर्थ और काम के पुरुषार्थ हमें कार्य में संलग्न करते हैं और संसार का ताना बाना रचते हैं पर उच्छ्रिन्खल न हो कर धर्म के सापेक्ष होता है . मोक्ष के पुरुषार्थ का अभिप्राय मोह या आसक्ति के क्षय से है . इस तरह जीवन में भोग और त्याग दोनों का संतुलन जरूरी होता है. त्याग की आवश्यकता पूरे समाज के समावेश को ध्यान में रखने के लिए है. तभी रार्वोदय का स्वप्न साकार हो सकेगा. संसार के संसाधन सीमित है और उनमें बहुत से ऐसे हैं जो पुनर्नवीकृत ही नहीं हो सकते अर्थात उनका निरंतर क्षरण होता रहेगा.
इस तरह जीवन और सृष्टि की परिस्थिति की स्वाभाविक दशा है कि हम निरंकुश न हो कर अपने संसाधनों का समुचित दोहन करें . भारत एक आधुनिक राष्ट्र के रूप पिछले सात दशकों में अनेक चुनौतियों का सामना करते हुए लोक तंत्र के मार्ग पर अटल रहा है और यदि कभी स्खलन हुआ तो उसका प्रतिकार भी किया है. इस विशाल देश की समस्याएँ जटिल हैं और साथ साथ विश्व परिदृश्य भी बदलता रहा है. अपनी सफलताओं और कमियों से सीख लेते हुए एक समर्थ राष्ट्र बनाने की दिशा में हम आगे बढ़ रहे हैं.
राष्ट्र की अवधारणा का भारतीय रूप वैदिक काल से ही मिलता है . वाक्सूक्त में अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम कहते हुए सबको सुगठित करने वाली राष्ट्री वाक् प्राकृतिक संपदा को जुटाने वाली है.पृथ्वी सूक्त भूमि को माता घोषित करता है: माता भूमि: पुत्रोहं पृथिव्या: माता अपनी संतान का बहुविध भरण पोषण करती है.दूसरी और मातृ ऋण की अपेक्षा है कि संतान माता की हर तरह से रक्षा और सेवा करे. एक जीवंत भारत एक समग्र रचना है जिसका अपना व्यक्तित्व है. जो उसके सभी अंशों के योग से अधिक है. यह एक बहु स्तरीय और बहु आयामी अवधारणा है. आर्थिक, भौतिक, मानसिक , राजनीतक, सामाजिक परिवेशीय, और सांस्कृतिक तत्व हैं. इनको व्यक्ति , समुदाय और देश के स्टार पर देखा जा सकता है. जैसे स्वास्थ्य का अर्थ मात्र रोगहीनता न हो कर एक सकारात्मक स्थिति होती है वैसे ही देश की जीवन्तता भी एक सकारात्मक स्थिति है. इसे हम कई तरह से देख सकते हैं.
जन आकांक्षाओं और समस्याओं के प्रति प्रतिक्रया करने का वेग , कठिन परिस्थितियों में संस्थाओं की सुनम्यता और जुझारूपन , सिर्फ सक्रियता ही नहीं बल्कि अपने परिवेश में ओअनी स्थिति को बनाए रखने की क्षमता भी जरूरी है. राष्ट्र का पुरुषार्थ निष्क्रियता , असहायता और क्लान्ति की परिस्थिति से ऊपर उठ कर जीवन स्पंदन को व्यक्त करता है. आज कई मोर्चों पर कार्य आवश्यक है. इनमें आम जनों का जीवन स्तर ऊपर उठाना , औद्योगिक उत्पादन, राजनैतिक सत्ता का विकेंद्रीकरण , जन स्वास्थ्य के स्टार की उन्नति , नागरिक सेवाओं की गुणवत्ता और सुभीता , प्रशासन में पारदर्शिता , सांस्कृतिक संसाधनों और विरासत को सुरक्षित कर समृद्ध करना प्रमुख हैं. देश ने कोविड महामारी के दौरान और टीकाकरण के क्रम में जिस क्षमता का परिचय दिया है उसने वैश्विक नेतृत्व का दर्जा दिलाया है . देश ने स्वदेशी और आत्म निर्भरता की भावना से अपनी नीतियों को नए रूप में ढालने का काम शुरू किया है . शिक्षा नीति का जो ढांचा स्थापित किया जा रहा है उससे देश को बड़ी आशाएं हैं. यह सब संवेदनशील नौकरशाही और आधार संरचना में सुधार के साथ आचारगत शुद्धता की भी अपेक्षा करता है. स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव हमें इसी का आमंत्रण देता है.
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो:
Mind is the cause of human suffering and liberation.
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