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light festival: प्रकाश पर्व है जीवन का आमंत्रण: गिरीश्वर मिश्र

light festival: लगभग दो सालों से चली आती कोविड की महामारी ने सबको यह बखूबी जना दिया है कि जगत नश्वर है और जीवन और दुनिया सत्य से ज्यादा आभासी है. ऎसी दुनिया में आभासी (यानी वर्चुअल!) का राज हो तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. सो अब आभासी दुनिया हम सब के बीच बेहद मजबूती से इस तरह पैठ-बैठ चुकी है कि वही सार लगती है शेष सब नि:सार है. उसमें सृजन और संचार की अतुलित संभावना सबको समेटती जा रही है. अब उसकी रीति-नीति के अभ्यास के बिना किसी का काम चलने वाला नहीं है. उसकी साक्षरता और निपुणता जीवन-यापन की शर्त बनती जा रही है.

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ऐसे में अब उत्सव और पर्व भी लोक-जीवन में यथार्थ से अधिक आभासी स्तर पर ही ज्यादा जिए जाने लगे हैं. शरद ऋतु भारत में उत्सवों की ऋतु है और प्रकृति में उमड़ते तरल स्नेह के साथ कार्तिक का मास आते-आते में भारतीय उत्सवों की झड़ी सी लग जाती है. मुश्किल घड़ी में बड़ी लम्बी प्रतीक्षा के बाद अब लोगों के मन का टूटा उल्लास लौट रहा है. साल भर की प्रतीक्षा के बाद अभी-अभी रावण का पुतला जलाया गया और ‘विजया दशमी’ मनायी गई थी और अब दीपावली की बारी है.

रावण को हम लोग सभी तरह की बुराइयों का प्रतीक मानते हैं और उसको जला-जला कर बुराइयों के विनाश की कामना करते हैं और शायद मान भी लेते हैं कि अब रावण से मुक्ति मिल गई और उसका उन्मूलन हो गया. पर रावण है कि समाप्त ही नहीं होता. जलाये जाने के बाद भी वह पुन: जीवित हो उठता है. प्रतीक के स्तर पर यह क्रम एक तरह से निरंतर चलते द्वंद्व को व्यक्त करता है. विचार करने पर राम और रावण की वृत्तियाँ दिन और रात, सत और असत की तरह परस्परसापेक्ष भी लगती हैं. रावण का होना समाज और संस्कृति के लिए चेतावनी और परीक्षा भी है. उसकी प्रतीति हमें सतर्क करती चलती है कि नकारात्मक और जीवनद्रोही प्रवृत्तियाँ सिर उठाती रहती हैं और उनसे पार पाने के लिए प्रयास, अभ्यास और क्षमता को सतत पुष्ट करते ही रहना होगा.

राम-राज्य की स्थापना सहज नहीं है. रावण को हटा कर ही राम-राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त होता है. राम सात्विक और जीवनोन्मुखी प्रवृत्तियों को रूपायित करते हैं और लोक-कल्याण के प्रति अनन्य भाव से समर्पित हैं. स्नेह, दया और सौहार्द को स्थापित करते हुए वह लोगों को दैहिक, दैविक और भौतिक हर तरह के तापों से मुक्त करते हैं. परम्परा के अनुसार दीपावली का उत्सव इसी प्रकाशमय उदात्त राम-भाव का लोक द्वारा अभिनन्दन है.

Pro Girishwar Misra

प्रकाश जीवन तत्व का स्रोत होता है. उसी से दृश्य जगत उपलब्ध हो कर दृष्टिगोचर होता है. इसके विपरीत अन्धकार नरक कहा जाता है. अन्धकार में कुछ दिखता-सुझाता नहीं है, चलने में ठोकर लग जाती है और जीवन में व्यवधान आने लगते हैं. जीवन के लक्ष्य ओझल होने लगते हैं और पथसे विचलित होने या पथ-भ्रष्ट होने की संभावना बढ़ जाती है. प्रकाश और अन्धकार दोनों एक दूसरे के विरुद्ध रहते हैं और अक्सर अकेले एक दूसरे से छिपते-छिपाते ही आते हैं. प्रकाश आते ही अन्धकार भाग खड़ा होता है. इसलिए प्रकाश की वन्दना की जाती है और प्रकाश के अप्रतिम स्रोत सूर्यदेव विश्व की अनेक संस्कृतियों में वन्दनीय देवता या शक्ति के रूप में स्वीकृत हैं.

सूर्य की प्रथम रश्मियों के आने साथ जड़-चेतन, पशु-पक्षी, वृक्ष-वनस्पति सबके समेत सारी सृष्टि आवश्यक ऊर्जा पा कर जीवन-व्यापार में सक्रीय और गतिशील हो पाती है. प्रकाश का कोई विकल्प नहीं है और वह चाहिए ही चाहिए. उसकी अनिवार्यता सर्व स्वीकृत है. यह जरूर है अब प्रकाश के कृत्रिम स्रोत बिजली ने सारे जगत को आगोश में ले रखा है और हमारी दुनिया बदल गई है. नैसर्गिक या प्राकृतिक प्रकाश से हमारी दूरी बढ़ती जा रही है और प्रकाश की ऊर्जा के नए-नए स्रोतों की तलाश जारी है. प्रकाश का आकर्षण कम होने वाला नहीं है.

प्रकाश समृद्धि लाता है इसलिए दीपावली के दिन शुभ मुहूर्त में विघ्नहर्ता गणेश जी और धन-धान्य की अधिष्ठात्री लक्ष्मी जी की पूजा-अर्चना विशेष रूप से की जाती है. आज भौतिकता और उपभोक्तावाद की गहराती छाया में लिप्सा और लालसा बढ़ रही है. उसी के साथ लक्ष्मी जी की उपासना का चलन भी खूब बढ़ रहा है. इस त्यौहार पर लोग-बाग़ घर की अच्छी तरह सफाई करते हैं और जरूरत हुई तो पुताई भी होती है. अब दीपावली के अवसर पर मिट्टी के दिए और मोमबत्ती की जगह बिजली के लट्टू और झालरों की लड़ी ले चुकी है. अब बाहर की दुनिया में प्रकाश का अतिरेक इतना हो रहा है कि आँखें चुंधिया जाती हैं. पटाखे भी इतने चलते हैं कि वायु-प्रदूषण अपने चरम पर पहुँच कर श्वास की बीमारी का कारण बन जाता है. दीपावली मनाने के बीच ध्वनि और वायु दोनों की गुणवत्ता में जो गिरावट दर्ज होती है उसके सुधरने में कई दिन और कभी कभी हफ्ते भी लग जाते हैं. हम क्षणिक उत्तेजना और तीव्र उत्साह में इस तरह भ्रमित रहते हैं कि यह याद ही नहीं रहता कि हमारे आचरण से पर्यावरण को कितना नुकसान हो रहा है जो खुद अपने लिए ही खतरनाक होता है.

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बाहर के उजाले में यह बात भूल ही जाती है कि प्रकृति के साथ सह जीवन की भावना की जगह उस पर कब्जा ज़माना अल्पकालिक दृष्टि से प्रिय जरूर लगता है पर दीर्घकालिक दृष्टि से क्रूर और भयानक है. अहंकार में दूबे आदमी को यह भी समझ में नहीं आता कि जीवन के सहज स्वाभाविक स्रोत किस तरह दिनोंदिन सूखते जा रहे हैं. भौतिक परिवेश, जिसमें जलवायु प्रमुख आधार है, सभी आयामों में खंडित हो रहा है और उसके संसाधनों का शोषण बढ़ता जा रहा है. धरती की सीमाओं को लांघते हुए विकास की यात्रा विनाश की ओर बढ़ती लग रही है. दूसरी ओर जीवन की आधुनिक शैली और सामाजिक संस्थाएं जस ढर्रे पर चल पड़ी हैं वह चिंताजनक हो रही है. सामाजिक और मानसिक तौर पर जो संसाधन और सुरक्षा पारंपरिक समाज में अनौपचारिक रूप से मिलती थी वह नए दौर की आंधी में उखड़ती-उजड़ती जा रही है.

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उसकी जगह औपचारिक प्रावधान बढ़ते जा रहे हैं. कानून और सरकारी नीतियाँ तर्क और आदर्श की रूपरेखा के बीच व्यवस्था का क्रम ढालते हैं. इस कागजी व्यवस्था को व्यवहार में उतारने की कवायद बेहद जटिल होती गई है और उसमें इतने छिद्र आ जाते हैं कि संसाधन पात्रों तक पहुँच ही नहीं पाते. ग़रीबों और हाशिए के लोगों के जीवन का अन्धेरा कम होने की जगह घना होता जा रहा है. रोशनी पर कड़ा पहरा है और वह उच्च वर्ग के लिए सुरक्षित रहती है. समस्या यह भी है की रोशनी या प्रकाश भी एक नहीं कई रंग रूप वाला है. जीवनदायिनी रोशनी की पहचान करना भी कठिन हो रहा है. सतही रोशनी धोखा होती है जो आकर्षक तो दिखती है परन्तु अंतत: भ्रम ही पैदा करती है. उसके साथ प्रच्छन्न और प्रत्यक्ष दोनों रूपों में हिंसा भी लगी रहती है. ऐसे माहौल में भय और अविश्वास अपना डेरा जमाने लगते हैं.

मन में जो अन्धकार डेरा डालता जा रहा है उससे निपटना आज की बड़ी चुनौती है. अन्धकार का रंग काला होता है पर छद्म रूप में अन्धकार सफेदपोश हो कर समाज में भी विचरने लगता है. चोरी, ठगी, और धोखाधड़ी के नाना रूपों में अन्धकार का दायरा निरंतर बढ़ रहा है. आए दिन निजी लाभ के आगे न्याय और नैतिकता के मानदंड कमजोर पड़ने की घटनाएं सुर्खियाँ बन रही हैं. अब तथाकथित जन-सेवक राजनेतागण सत्ता पाने और उस पर काबिज रहने के लिए कोई भी हथकंडा अपनाने से बाज नहीं आ रहे. शर्म हया छोड़ राजनीति में अब सिर्फ लोभ और लाभ का गणित ही चल रहा है.

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यदि अंतर्मन में अधेंरा बैठा हों तो उजाले में भी दृष्टि दूषित ही रहती है और सत्य नहीं दिखता, या फिर देखना नहीं चाहते और यदि देखते भी हैं तो उसकी आख्या ब्याख्या स्वार्थ के अनुसार ही की जाती है. तब सत्य की जगह असत्य को देखना या आरोपित करना ही चलन हो जाता है. ऐसे में दीपावली के अवसर पर प्रकाश का आवाहन सत्य की ओर कदम बढाने का उपक्रम है. दीपावली का पर्व शुभ्र सात्विक वृत्तियों को जागृत करने की मानवीय आकांक्षा का प्रतीक है. दीपक अँधेरे के विरुद्ध संघर्ष करने और मानवीय जिजीविषा का प्रमाण है. मनुष्य की आन्तरिक शक्ति और प्रतिज्ञा की प्रतिमूर्ति बना दीपक अद्भुत आविष्कार है. दीपक अन्धकार को पास फटकने नहीं देता और दूर भगाए रखता है. उसका जीवन अपने लिए नहीं दूसरों के लिए ही बना हुआ है.

दीपक आत्म-दान का प्रतीक है. महात्मा बुद्ध ने आवाहन करते हुए ‘अप्प दीपो भव’ का सन्देश इसी अर्थ में दिया था कि व्यक्ति स्वयं अपने लिए प्रकाश का स्रोत बने पर दीप की नियति होती है कि वह स्वभाव से विराट और निष्कलुष होता है. वह अभय की भावना के साथ नि:संकोच रूप से चतुर्दिक सबको प्रकाशित करता चलता है. यह करते हुए दीपक को अपने अस्तित्व की चिंता नहीं रहती. वह बताता है कि दूसरों के लिए सर्वस्व लुटा देना ही जीवन का अभिप्राय है. भारतीय चिंतन में आत्म दीप का एक सुन्दर वर्णन इस प्रकार आता है : सत्याधारस्तपस्तैलं दयावर्ति: क्षमा शिखा . दीपक के भौतिक आकार को ध्यान में रख कर यह कल्पना की गई कि दीपक का आधार सत्य से बना है, उसमें तप का तेल है, दया उस दीपक की बाती है और क्षमा उसकी शिखा या लौ है.

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यह रूपक व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के सूत्र को बताता है कि सत्य का साक्षात्कार और स्वीकार जीने की पहली शर्त है. सत्य का होना निर्विवाद होता है क्योंकि व यथार्थ की परिधि बनाता है. सात्विक कर्म करना ही वह तप है जो दीपक को जीवन देने वाला अमृत रस है. इस दीपक का शरीर (बाती!) दया से बनी है अर्थात सबके साथ अहिंसा और प्रेम से सह अस्तित्व में रहना ही जीवन का प्रत्यक्ष मूर्त रूप है.

जीवन के दीपक की लौ (शिखा!) या उत्कर्ष जो प्रकाश को चारो ओर बिखेरता है वह क्षमा है. अन्दर के तम या अन्धकार से जूझने के लिए अंतर्मन के दीपक को प्रज्वलित करना होगा सत्य, तप, दया और क्षमा का जीवन ही ताम का नाश करते हुए ज्योति की ओर ले जा सकेगा. जीवन कोई स्थिर और पूर्वनिश्चित वस्तु या घटना नहीं बल्कि एक प्रक्रिया है. उसका सतत निर्माण होता होता रहता है और नित्य नई-नई संभावनाएं जन्म लेती रहती हैं. आत्म-दीप ही वह उपाय है जो सभी जनों को जीवन के आलोक से प्रकाशित कर सकेगा.