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भारतीय बनाम अमेरिकी लोकतंत्र

Krishna Gopal Pali
कृष्ण गोपाल
पाली ( राजस्थान)

सुबह की सुर्खियों में पढ़कर मेरी आश्चर्य से आंखे विस्फारित हो गई कि ‘अमेरिका की संसद पर अमेरिकियों ने ही हमला कर दिया। अमेरिका का लोकतंत्र सम्पूर्ण विश्व में शर्मसार हुआ…’पढकर एक गर्व से रोम रोम पुलकित हुआ की मेरे भारत में ऐसा सोचा भी नहीं जा सकता। मेरा देश अमेरिका से 170 साल बाद एक लोकतंत्र बना लेकिन आज सबसे बड़ा, सबसे मज़बूत और उम्दा लोकतंत्र भी है।

आपातकाल का एक बदनुमा दाग भारतीय लोकतंत्र के दामन में भी एक रिसता हुआ फोड़ा सा अवश्य है, लेकिन तब से हमने पीछे मुड़ कर भी नहीं देखा। बहुत आगे निकल गये।जम्मू कश्मीर के डिस्ट्रिक्ट कौन्सिल के शांतिपूर्ण चुनाव से भारत के लोकतंत्र में विश्वास और अधिक गहन हो गया।

समय पर पारदर्शी चुनाव, तकनिकी के समावेश, शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण इत्यादी खूबियाँ निस्संदेह गौरव का विषय है ।

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Pic Credit: Google

लेकिन क्या सब कुछ उजला उजला ही है, स्याह कुछ नहीं? एक लम्बी फेहरिस्त है दुरुस्त करने को। 71 वर्ष पहले स्वीकार किये गये गणतंत्र में गण दोयम दर्जे पर है, भले संविधान का स्त्रोत हम भारत के लोग हैं । आज भी जनता के फैसले का मखौल उड़ाते हुए नेता पार्टी बदल देते हैं और बड़ा पद हथिया लेते हैं । जिस पिठासीन अधिकारी पर शुचिता का दारोमदार होता है वह भी पार्टी के इशारे का गुलाम नज़र आता है । क्या यह लोकतंत्र का वैसा अपहरण नहीं जैसा अमेरिका में घटित हुआ। नेता- कारोबारीयो- अपराधियों का नेक्सस देश के कई फैसलों का आधार होता दिखे तो यह भी तो लोकतंत्र का चीर हरण ही है । लम्बे महंगे न्याय प्रक्रिया में उलझे जन का विश्वास लगातार डग मग कर रहा है । आधी जनसंख्या डरी सहमी दूर खड़ी अपनी भागीदारी की याचना करती नजर आती है ।

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क्या आज़ादी के 73 वर्ष बाद भी महिलाओं को राजनिती में उचित प्रतिनीधित्व नहीं मिल पाना कोई षड्यंत्र नहीं लगता? NFHS-5 की रिपोर्ट तो साफ साफ कहती है की कोई मेरे भारत के नौनिहालो के हक़ का पोषण छिन खा गया है । ग्लोबल ट्रांसपरेंसी रिपोर्ट में भारत का बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी छोटा कद मुंह चिढ़ाता है। किसानों का सरहदों पर राज ( कानून के कारण) और राम ( सर्दी के कारण) से लड़ता हुजूम कहता है कि जन आकांक्षाए वरीयता में नहीं है ।

गाल बजाने को ढेरों उपलब्धियां कही जा सकती है, लेकिन भारतीय लोकतंत्र के समक्ष चुनौतियां भी कम नहीं है । सरकारें जन को मूल में रख प्राथमिकतायें निर्धारित करें। महिलाओं, दलितों, वंचितों को सुरक्षा ओर मौकों की बराबरी की रूपरेखा खींचे। अदालतें सस्ता सुलभ न्याय उपलब्ध करवायें। संसाधनों का वितरण इतना प्रभावी करें की अमीर गरीब के मध्य का विपाटन मिटा सके। काम करने को आतुर हाथों को उचित काम उपलब्ध करा सकें। सच में तभी संविधान सभा के उन स्वपन दृष्टाओ के स्वपन यथार्थ होंगे। हमारा लोकतंत्र फ़ौलाद जैसा मज़बूत हो पायेगा और तभी जन गण मन अधिनायक का दर्शन भारत भूमि पर सुरचित होगा। (डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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