Education policy & Challenges: शिक्षानीति के क्रियान्वयन की राह और चुनौतियाँ: गिरीश्वर मिश्र
यह संतोष का विषय है कि लगभग तीन दशकों के बाद भारत ने अपने लिए शिक्षा व्यवस्था की पड़ताल की और देश के लिए उसका एक महत्वाकांक्षी मसौदा तैयार किया . भारतीय शिक्षा के इतिहास में यह घटना इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसका आयोजन खुले मन से शिक्षा से जुड़े सभी पहलुओं पर गौर करते हुए किया गया और इसे ले कर विचार-विमर्श का पूरा अवसर दिया गया . ऐसा करना इसलिए भी ज़रूरी हो गया था क्योंकि शिक्षा जगत की समस्याएँ लगातार इकट्ठी होती रहीं और सरकारी उदासीनताओं के चलते कुछ नया करने की गुंजाइश नहीं हो सकी .
परिणाम यह हुआ कि आकार में विश्व की एक प्रमुख वृहदाकार शिक्षा व्यवस्था तदर्थ ( एड हाक ) व्यवस्था में चलती रही . हम लोग पुराने ढाँचे में छिटफ़ुट बदलाव और थोड़ी बहुत काट-छाँट यानी क़तरब्योंत से काम चलाते रहे . औपनिवेशिक विरासत को ओढ़ते हुए और उसके विभिन्न पक्षों को संभालते हुए और ‘शिक्षा’ को छोड़ कर एक यांत्रिक नज़रिए से ‘मानव-संसाधन’ पैदा करने की कोशिश में लगे रहे . इस वरीयता के चलते प्रौद्योगिकी और प्रबंधन के उच्च शिक्षा संस्थान हर तरह का समर्थन प्राप्त करते रहे और अन्य संस्थाएँ भगवान भरोसे छोड़ दी गईं .
परिणाम यह हुआ कि कम गुणवत्ता की संस्थाओं का अम्बार लग गया प र उनके समुद्र में श्रेष्ठ संस्थाओं के कुछ टापू नजर आते रहे जिनमें पढ़ लिख कर युवा विदेश जाने को तत्पर रहे. सभी संस्थाओं की अपनी जीवनी होती है और निहित रुचियां या स्वार्थ भी होते हैं जिनके तहत उनका संचालन होता है. नई शिक्षा नीति इन पर भी गौर कर रही है और संरचनात्मक रूप से बदलाव की तैयारी में है.
हमारे पाठ्यक्रमों को ले कर यह शिकायत भी बनी रही है कि वे भारतीय समाज , यहाँ की संस्कृति , यहाँ की विरासत और ज्ञान की देशज परम्परा से कटे हुए हैं और कई तरह की मिथ्या धारणाओं को बढ़ावा देते हैं . भारत को भारत में ही हाशिए पर पहुँचाते हुए ये पाठ्यक्रम एक संशयग्रस्त भारतीय मानस को गढ़ने का काम करते रहे हैं . यहाँ यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीयता का आग्रह किसी तरह की अवैज्ञानिकता या कट्टरपंथी दृष्टि की विश्वविजय की अभिलाषा नहीं है क्योंकि भारतीय विचार व्यापक हैं और सबका समावेश करने वाले हैं . उनमें मनुष्य या प्राणिमात्र की चिंता है और वे पूरी सृष्टि के साथ जुड़ कर जीने में विश्वास करते हैं . यह बात वेदों , उपनिषदों के काल से चली आ रही है और आज भी अनपढ़ या गंवार आम आदमी के आचरण में देखी जा सकती है .
इसलिए अनेक भारतीय विचारों और अभ्यासों का वैश्विक महत्व है . योग और आयुर्वेद का ज्ञान और उनकी प्रक्रियाओं का स्वास्थ्य और मानसिक शांति पाने के लिए महत्व जगज़ाहिर है और उनकी स्वीकृति भी है . अतः जब नई शिक्षा नीति को भारतकेंद्रित बनाने का संकल्प किया गया तो वह न केवल शिक्षा में भारत को पुनर्स्थापित करने के लिए था बल्कि मनुष्यता के लिए ज़रूरी समझ कर किया गया . महामारी के दौर में पूरे विश्व ने यह अनुभव किया कि जीवन की रक्षा की चुनौती में योग और प्राणायाम का कोई दूसरा विकल्प नहीं है . आज जलवायु का जो संकट है वह भी भारतीय दृष्टि की ओर ध्यान दिलाता है जिसमें मनुष्य को सिर्फ़ उपभोक्ता समझने की सख़्त मनाही है . यहाँ त्यागपूर्वक भोग करने पर बल दिया गया है क्योंकि मूलतः कोई मालिक नहीं हो सकता सिर्फ़ न्यासी या ट्रस्टी ही रह सकता है . सारे संघर्ष , प्रतिद्वंद्विता और हिंसा का मूल जिस अधिकार-भावना में निहित है वह बेमानी है .
अतः भारतकेंद्रित शिक्षा वस्तुतः मनुष्य और जीवनकेंद्रित शिक्षा है और वह उन मूल्यों के प्रति समर्पित है जो सह अस्तित्व , सहकार और परस्पर सहयोग को जीवन शैली में स्थापित करती है . शिक्षित होते हुए मनुष्यत्व के इन चिह्नों को बचाए रखना और संजोना आज पहले से ज़्यादा ज़रूरी हो गया है . अतः पूरी शिक्षा व्यवस्था को इन्ही के संदर्भ में आयोजित किया जाना चाहिए . इनके स्रोत अभी भी जीवन और समाज में मौजूद हैं , उपेक्षा के कारण कुछ कुम्हला ज़रूर गए हैं पर उन्हें हरा-भरा किया जा सकता है . शिक्षा को नौकरी से जिस तरह जोड़ा गया है और जीवन के अन्य उद्देश्यों से तोड़ दिया गया है वह एक सामाजिक सांस्कृतिक समस्या बन गई है . आज पढ़ लिख कर बेरोजगार जिस संख्या में बढ़ रहे हैं वह चिंता जनक है क्योंकि औपचारिक शिक्षा जीवन के अन्य विकल्पों को बंद करती जा अही है जिसका परिणाम कुंठा और मानसिक अस्वास्थ्य को जन्म दे रहा है.
शिक्षा समाज की ख़ास ज़रूरत होती है क्योंकि समाज अपनी कैसी रचना करना चाहता है इसका विकल्प शिक्षा द्वारा तय होता है . न्याय , समता और स्वतंत्रता जैसे सरोकार स्थापित करने के लिए और नागरिक के दायित्व मन में बैठाने के लिए शिक्षा अवसर दे सकती है बशर्ते उसका आयोजन इन मूल्यों की अभिव्यक्ति करते हुए किया जाय . शिक्षा संस्था में इन मूल्यों को जीने का अवसर मिल सकता है और स्वाधीन भारत की संकल्पना साकार हो सकती है . इसके लिए जिस मानसिकता की आवश्यकता है वह प्रवेश और परीक्षा की चालू अनुष्ठानप्रधान शैली से नहीं निर्मित हो सकती . करोना के दौर में यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि हमें मूल्यांकन के नए विकल्प ढूँढने ही होंगे . साथ ही आन लाइन शिक्षा को भी व्यवस्था में शामिल करना होगा . सृजनात्मक होना जितना ज़रूरी है ठीक उतनी ही शिद्दत से हमारी शिक्षा अनुकरणमूलक व्यवस्था और पुनरुत्पादन के आसरे चलती आ रही है .
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नई शिक्षा नीति इस समस्या की काट सोचती है और अध्ययन के विषय और पद्धति में लचीलेपन का स्वागत करती है . इसे लागू करने के लिए बहुविषयी संस्थाओं और अवसरों की विविधता का प्रावधान किया गया है . इसी तरह मातृभाषा में शिक्षा मिले इस बात की वकालत करते हुए पद्धति में बदलाव लाने की कोशिश की बात की गई है . शिक्षा को सिर्फ़ किताबी न बना कर जीवनोपयोगी बनाने पर ज़ोर दिया गया है . इसी तरह संस्थाओं को स्थानीय समाज और पारिस्थितिकी से सतत जुड़ने का अवसर बनाने के लिए भी कहा गया है . शिक्षक – प्रशिक्षण हमारे लिए एक बड़ी चुनौती बन चुकी है .
उल्लेखनीय है कि बढ़ती जनसंख्या के दबाव को झेलने के लिए संस्थाओं की संख्या ज़रूर बढ़ती गई पर उसी अनुपात में शिक्षा-स्तर में गिरावट भी दर्ज हुई और गुणवत्ता का सवाल गौड़ होता गया . सरकारी तंत्र से अलग निजी शिक्षा संस्थान भी खड़े होते गए . स्कूली शिक्षा में कन्वेंट और मिशनरी स्कूलों का एक अलग दर्जा अंग्रेजों के जमाने में ही बन गया था . उसी की तर्ज़ पर देसी धनाढ्य वर्ग भी स्कूल चलाने में रुचि लेने लगे और अब उच्च शिक्षा में भी उनकी अच्छी दख़ल हो चुकी है . इन सब की आंतरिक व्यवस्था , पाठ्यक्रम और शिक्षा शुल्क में सरकारी संस्थाओं की तुलना में बड़ी विविधता है .
अन्तत : इनमें व्यापारिक दृष्टिकोण ही प्रमुखता पाता है और बाज़ार के हिसाब से इनका आयोजन किया जाता है . इनके विज्ञापन जिस तरह मीडिया में आते हैं उससे इन संस्थाओं में शिक्षा एक जिंस या माल की तरह बेंचने की प्रवृत्ति झलकती है . इनके उत्पाद अच्छे बुरे हर तरह के हैं पर कोई मानक नहीं होने से इन्हें काफ़ी छूट मिल जाती है . शिक्षा जगत में निजी क्षेत्र का विस्तार ख़ूब हुआ है पर कुछ गिनी चुनी संस्थाओं को छोड़ दें तो निजी क्षेत्र की उतनी साख नहीं बन सकी है जिसकी अपेक्षा की गई थी . इन परिस्थितियों में शिक्षा को मूल अधिकार बनाने का स्वप्न कमजोर पड़ता है . संसाधनों की कमी और शिक्षा के प्रति सरकारों के अल्पकालिक और चलताऊ रवैए के कारण शिक्षा संस्थानों में अकादमिक संस्कृति प्रदूषित होती जा रही है . शैक्षिक परिसर राजनीतिमुक्त और स्वाधीन होने चाहिए ताकि वे उत्कृष्टता और गुणवत्ता की ओर उन्मुख हो सकें .
नई शिक्षा नीति के प्रति वर्तमान सरकार ने अनेक अवसरों पर प्रतिबद्धता दिखाई है परंतु करोना की अप्रत्याशित उपस्थिति उसके क्रियान्वयन में गतिरोध पैदा किया है . नीति को के कर शिक्षा जगत में वेबिनारों की सहायता से जागृति फैली है , भ्रम दूर हुए हैं और लोगों में आशा का संचार हुआ है . शिक्षा नीति के विभिन्न पक्षों पर मार्ग योजना के लिए विशेषज्ञों के दल कार्यरत हैं . अब आवश्यकता है कि संरचनात्मक सुधारों को लागू किया जाय . पर सबसे ज़रूरी है कि शिक्षा संस्थाओं में शैक्षिक वातावरण की बहाली की जाय और अकादमिक संस्कृति का क्षरण रोका जाय .
शिक्षा की गरिमा की रक्षा के लिए यह ध्यान देना होगा कि ग़ैर शैक्षिक माहौल शिक्षा जगत को न लील सके . साथ ही इसके उपाय भी करने होंगे कि अधकचरे ढंग से नए शिक्षा संस्थान खोलने की अपेक्षा जो संस्थान हैं उन्हें ठीक से चलाया जाय . इसके लिए शिक्षा में अधिक निवेश करना होगा . पिछले कुछ वर्षों से विश्वस्तरीय संस्थान बनाने की चेष्टा हो रही है पर हमें उससे अधिक अपनी ज़रूरतों पर भी सोचना होगा और शिक्षा को देश के अनुकूल और पूरे समाज को समर्थ बनाने पर भी ध्यान देना होगा .
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