सांस्कृतिक चेतना के उन्नायक भारत रत्न महामना पं मदन मोहन मालवीय

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सात्विक आहार, विचार और व्यवहार वाले महामना एक सनातनी , नि:स्पृह और उदार भाव वाले हिंदू धर्म सच्चे प्रतिनिधि थे. महामना वस्तुत: भारतीयता के साक्षात विग्रह सरीखे थे. संस्कृत, हिंदी और अंग्रेजी तीनों भाषाओं में मंत्र मुग्ध कर देने वाले प्रखर वक्ता, अप्रतिम देशभक्त, कुशल राजनेता, श्रेष्ठ पत्रकार,अग्रणी समाज सुधारक, दूरदर्शी शिक्षाविद, मातृभाषा हिंदी के पुर:स्कर्ता, श्रीमद्भागवत के अनन्य व्याख्याता, पतितपावनी गंगा एवं गो माता के अनन्य भक्त और हिंदू धर्म के अभ्युत्थान के लिए सर्वथा समर्पित धर्मपरायण महामना की धवल कीर्ति भारतवासियों के लिए विशेष रूप से प्रेरणादायी है. उनकी अमूल्य सेवा को स्मरण करते हुए कृतज्ञ राष्ट्र उन्हें वर्ष 2015 में ‘भारत रत्न’ के विरुद से अलंकृत कर स्वयं धन्य हुआ था.

मालवीय जी के समक्ष भारत की स्वराज्य प्राप्ति ही मुख्य ध्येय था पर साथ ही साथ वे यह भी गंभीरता से अनुभव कर रहे थे कि सामाजिक पिछड़ेपन और दयनीय स्थिति से उबरने के लिए समाज सुधार भी परमावश्यक था. वे देश के प्रति समर्पित थे और मन मस्तिष्क में इसके गौरव और गरिमा की प्रतिष्ठा करते थे. आज से एक शताब्दी पहले अंग्रेजी राज के समय समग्र शिक्षा दे सकने वाले इस प्रकार के शैक्षिक संस्थान का स्वप्न देखना भी अचिंत्य था परंतु महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने अपनी तपस्या के बल पर इस स्वप्न को साकार कर काशी हिंदू विश्वविद्यालय को स्थापित कर एक ऐसा कीर्तिमान बनाया जो ज्ञान की सात्विक साधना के इतिहास में सदा स्वर्णाक्षरों में अंकित रहेगा. राष्त्रपिता महात्मा गांधी मालवीय जी का बड़ा सम्मान करते थे.

Pt Madan Mohan Gandhiji

देश अंग्रेजों का गुलाम था और स्वराज्य के बिना इसका उद्धार नहीं होगा यह सोच कर मालवीय जी सद्य: अस्तित्व में आई कांग्रेस पार्टी के साथ आरम्भ से ही जुड़ गए थे. उनके लिए राष्ट्रीयता वह भावना था जो देश वासियों के हृदय में देश हित की लालसा से व्याप्त हो. उन्होने स्थानीय और राष्ट्रीय स्तर पर अनेक भूमिकाएं निभाईं. स्वशासन की मांग उनके लिए सर्वोपरि थी. सार्वजनिक जीवन में उन्होने अनेक स्तरों पर अनेक दायित्वों का निर्वाह किया. उन्होंने चार सत्रों में कांग्रेस अध्यक्ष का कार्यभार संभाला जो देश की स्वतंत्रता मिलने के पहले के इतिहास में अभूतपूर्व घटना थी जो मालवीय जी की व्यापक स्वीकार्यता को व्यक्त करती है. सन 1909-10 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में वे फिर अध्यक्ष बने. इसी तरह सन् 1918 में दिल्ली अधिवेशन में भी कांग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए. चौथी बार 1932-33 में कलकत्ता अधिवेशन में भी कांग्रेस अध्यक्ष का कार्य भार संभाला. स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में वे असहयोग आंदोलन में भागीदारी करते हुए दो बार जेल भी गए. वे वाइसराय की कौंसिल के सदस्य बने और इम्पीरियल लेजिस्लेटिव कौंसिल और सेंट्रल लेजिस्लेटिव कौंसिल दोनों के छह छ्ह वर्षों के लिए सदस्य रहे. लंदन में आयोजित दूसरी गोलमेज परिषद की बैठक में 1931 में गांधी जी के साथ गए और भारत का प्रतिनिधित्व किया. सन् 1934 में सांप्रदायिक निर्णय के विरुद्ध कांग्रेस संसदीय बोर्ड से त्याग पत्र दे दिया और ‘नेशनल पार्टी’ नामक एक नए दल का गठन किया.

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वे 1922 से 1935 तक हिंदू महासभा से भी जुड़े रहे और हिंदू धर्म की उन्नति के प्रयास करते हुए हिंदू समाज की कुरीतियों और कमजोरियों को दूर करने का सतत प्रयास किया. तदुपरांत सीमित साम्प्रदायिक सोच के कारण उससे अलग हो गए. सन् 1932 में डा. अम्बेडकर के साथ मालवीय जी ने प्रसिद्ध ‘पूना पैक्ट’ किया जिसके तहत दलित समाज के लोगों को जन प्रतिनिधित्व में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी. उन्होंने भारत में स्काउटिंग को भी आरम्भ करने में योगदान किया. केरेबियन देशों में जो भारतीय बंधुआ श्रमिक के रूप में गए थे उनकी समस्याओं के समाधान में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. दलित और अस्पृश्य जनों को मंत्र दीक्षा दे कर समाज में उचित सम्मान दिलाया. ऐसे अनेक अवसर भी आए जब उन्होने मुस्लिम बंधुओं की मदद की और उनके साथ सद्भाव और सौहार्द का सम्बन्ध बनाया. उनके मत में जाति, धर्म और वर्ग के भेद राष्ट्रीयता के मार्ग में आड़े नहीं आते. मालवीय जी दृढता से चाहते थे कि सभी धर्मावलम्बी जन मिल कर देश की उन्नति के लिए कार्य करें .

मालवीय जी कर्म क्षेत्र का यह अंश उन की साहित्यिक और सर्जनात्मक प्रतिभा को उद्घाटित करता है. महामना का पत्रकारिता के क्षेत्र में भी विशिष्ट योगदान था. ‘हिंदोस्थान’ के संपादन की चर्चा पहले ही की जा चुकी है. उन्होने 1890 में ‘लीडर’ नामक एक अंग्रेजी अखबार भी शुरू किया. उसके बाद सन् 1907 में मालवीय जी ने ‘अभ्युदय’ नामक एक साप्ताहिक पत्र का भी सम्पादन शुरू किया . मालवीय जी ने ‘मर्यादा’ नामक एक पत्रिका भी प्रकाशित की. न्यायालयों में हिंदी के प्रयोग के लिए प्रयास किया और सन् 1900 में स्थानीय अदालतों में नागरी लिपि के उपयोग की स्वीकृति शासन से दिलाई. मालवीय जी संस्कृत और अंग्रेजी के ज्ञाता और धाराप्रवाह व्याख्यान देते थे थे परंतु जन सामान्य के लिए सरल हिंदी में भाषण करते थे.

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हिंदी के विकास हेतु काशी में ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ की स्थापना में सहयोग दिया और उसके संरक्षक भी रहे. उन्होने संस्कृत में भी कविताएं रची थीं. संस्कृत में एक संक्षिप्त परिचयात्मक ‘हिंदू धर्मोपदेश‘ नामक पुस्तक भी लिखी थी. 1924 में ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ समाचार पत्र को संभाला और 1924 से 1946 तक उसके अध्यक्ष के रूप में कार्य किया. सन् 1933 से 1947 तक उन्होने ‘सनातन धर्म’ साप्ताहिक प्रकाशित किया. मालवीय जी समाचार पत्रों की स्वाधीनता के पक्षधर थे और पत्रकारिता के माध्यम से होम रूल आंदोलन और पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयास को धार देते रहे. राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के साथ मिल कर उन्होने प्रयाग के ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन’ की स्थापना को संभव किया और 1910 में काशी में आयोजित उसके प्रथम अधिवेशन के वे अध्यक्ष थे और हिंदी भाषा के स्वरूप और उसकी प्राचीनता का तर्कसम्मत विवेचन प्रस्तुत किया. सम्मेलन के बम्बई में हुए नवें अधिवेशन में उन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा और देवनागरी लिपि का पक्ष प्रबलता से उपस्थित किया. गुलामी के दौर में भारतीय संस्कृति के पुनरुज्जीवन के लिए वे बड़े व्यग्र थे. इस दृष्टि से वे एक हिंदू विश्वविद्यालय स्थापित करने का उपक्रम किया. उनके प्रयास से सन 1911 में हिंदू यूनिवर्सिटी सोसाइटी का गठन हुआ जिसके अध्यक्ष महाराजा दरभंगा और उपाध्यक्ष श्रीमती एनी बेसेंट हुई. अंतत: ‘ दि बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी एक्ट’ पारित हुआ और 1 अक्तूबर 1915 को गवर्नर जनरल ने उसे स्वीकृति प्रदान की. काशी का सेंट्रल हिंदू कालेज इस विश्वविद्यालय का विश्वविद्यालय का शिलान्यास 4 फरवरी 1916 को बसंत पंचमी के दिन लार्ड हार्डिंग्ज द्वारा सम्पन्न हुआ . विश्वविद्यालय का ध्येय वाक्य है ‘ विद्ययामृतमश्नुते ‘ . मालवीय जी सन् 1919 से 1938 तक विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे और देश और विदेश से श्रेष्ठ विद्वानों को ला कर विश्वविद्यालय को ज्ञान का महत्वपूर्ण केंद्र बना दिया. सन् 12 जनवरी 1946 को उनका देहांत हुआ . उनकी अक्षय कीर्ति के रूप में काशी हिंदू विश्वविद्यालय आज एशिया के सबसे बड़े आवासीय विश्वविद्यालय के रूप में उच्च शिक्षा प्रदान कर रहा है.

महामना का स्पष्ट विचार था कि ‘ भारत केवल हिंदू का देश नहीं है . यह मुसलमानों , ईसाइयों उर पारसियों का भी देश है . यह देश तभी शक्तिवान बन सकता है और अपना विकास कर सकता है जब भारत में रहने वाले विभिन्न समुदायों के लोग पारस्परिक सौहार्द से रह सकें. महामना हिंदू धर्म को भारत की जीवन पद्धति से जोड़ते हुए व्यापक दृष्टि अपनाते हैं. उनके विचार में भारत में स्थापित किसी भी धर्म का अनुयायी हिंदू है. वे शिक्षा को धर्म और आचरण के बिना अधूरा मानते थे. सनातन हिंदू धर्म के प्रति अगाध निष्ठा होने पर भी वे सभी धर्मों के अनुयायियों के साथ समान स्नेह और मैत्री को कर्तव्य मानते थे. नि:स्वार्थ सेवा, सहिष्णुता परस्पर आदर भाव बनाए रखने पर बल देते थे. वे राष्ट्रीयता के सर्वव्यापी भाव के पक्षधर थे. उनकी धार्मिक निष्ठा के स्वरूप का पता उनकी इस व्याख्या से चलता है : ‘ घर में हमारा ब्राह्मण धर्म है, परिवार में सनातन धर्म है, समाज में हिंदू धर्म है, देश में स्वराज्य धर्म है और विश्व में मानव धर्म है’ . आर्य समाज, सिख, बौद्ध और मुस्लिम समुदाय के लोगों की वह यथाशक्ति मदद करते रहे और पारस्परिक सद्भाव स्थापित करने का यत्न करते रहे. तप, त्याग, विनम्रता, परोपकार और देशानुराग की प्रतिमूर्ति महामना भारत और भारतीयता को जिए और आधुनिक युग में सदाचार और संतोष की महिमा को स्थापित किया. उनका जीवन और कार्य सदैव प्रेरणा देते रहेंगे.

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