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Researchers from BHU: काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने ट्राइकोडर्मा से फसलों में आनुवांशिक प्राइमिंग का पता लगाया

Researchers from BHU: ट्राइकोडर्मा की प्राइमिंग एजेंट के रूप में पहचान की, सतत खाद्य सुरक्षा के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है यह अध्ययन

रिपोर्ट: डॉ राम शंकर सिंह
वाराणसी, 19 दिसंबर:
Researchers from BHU: फसलों को खेतों में विभिन्न प्रकार की जैविक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिसकी वजह से अकसर उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। लगातार बढ़ती वैश्विक आबादी के वर्तमान परिदृश्य में, फसल उत्पादकता को बढ़ाने और खाद्यान्न की मांग से जूझने के लिए स्थायी दृष्टिकोण का उपयोग करके पौधों के स्वास्थ्य की रक्षा करने की तत्काल आवश्यकता है। रासायनिक फसल सुरक्षा तकनीकों के उपयोग पर निर्भरता बढ़ने से कई पर्यावरणीय और स्वास्थ्य चुनौतियां भी उत्पन्न होती हैं। ऐसे में प्राइमिंग एक कारगर रणनीति है।

पौधों के संदर्भ में प्राइमिंग वह प्रक्रिया है जिसके अतर्गत पौधों को किसी भी प्रकार के जीवाणु से होने वाले हमले से निपटने के लिए तैयार किया जाता है, जिसके फलस्वरूप हमला होने की सूरत में पौधों में अच्छी प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो पाती है।

इस संदर्भ में काशी हिंदू विश्वविद्यालय स्थित वनस्पति विज्ञान विभाग के शोधकर्ताओं ने एक महत्वपूर्ण अध्ययन किया है। विभाग में सहायक आचार्य डॉ. प्रशांत सिंह और उनके मार्गदर्शन में शोध कर रही छात्रा मेनका तिवारी तथा स्नातकोत्तर छात्र रजत सिंह के समूह ने ट्राइकोडर्मा को एक प्राइमिंग एजेंट के रूप में पहचाना और पहली बार गेहूँ में आनुवंशिक प्राइमिंग का पता लगाया। इस खोज को प्रतिष्ठित शोध पत्रिका (Q1), फ्रंटियर्स इन प्लांट साइंस (IF 6.63) में प्रकाशित किया गया है।

डॉ. सिंह ने बताया कि प्लांट डिफेंस प्राइमिंग एक जानबूझकर, विनियमित और ऑन-डिमांड रक्षात्मक रणनीति है क्योंकि पौधे को जानबूझकर तनाव की एक छोटी खुराक के अधीन किया जाता है जो रक्षा प्रतिक्रिया को तभी चालु करता है जब पौधे पर जीवाणु द्वारा हमला किया जाता है। “डिफेंस प्राइमिंग” की अवधारणा उल्लेखनीय रूप से उसी तरह है जैसे मानव रोगों के लिए टीके विकसित किए जाते हैं। इस के तहत प्रतिरक्षा प्रणाली को यह एहसास कराया जाता है कि उस पर हमला हुआ है, जबकि वास्तव में ऐसा नहीं होता है। जिसके परिणामस्वरूप एंटीबॉडी उत्पादन जैसे रक्षा प्रतिक्रियाएं आरंभ होती हैं। यह एक रक्षात्मक प्रवृत्ति स्थापित करता है।

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डॉ. सिंह के समूह ने इसे ‘हरित टीकाकरण’ का नाम दिया है। इस समूह की खोज में सबसे महत्वपूर्ण पहलु आनुवांशिक प्राइमिंग का पता लगाया जाना है, अर्थात यह क्षमता एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक भी पंहुचती है, जो कृषि उत्पादकता व गुणवत्ता के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है।
शोध समूह ने पहली बार गेहूं की किस्म HUW510 में एक प्राइमिंग एजेंट के रूप में ट्राइकोडर्मा का इस्तेमाल किया और बताया कि प्राइमेड HUW510 बीज बाइपोलारिस सोरोकिनियाना के कारण होने वाले स्पॉट-ब्लॉच रोग से अधिक सुरक्षित थे। एक बार इसके प्रयोग के बाद, गेहूं के पौधों के जीवन भर प्राइमिंग को बनाए रखी गई और अगली पीढ़ी को भी मिली। उन्होंने इसे “इंटरजेनरेशनल इम्यून प्राइमिंग” (IGIP) का नाम दिया है।

इस अध्ययन के निष्कर्ष स्थायी खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि आईजीआईपी के एक कुशल समावेश से गरीब किसान अधिक प्रतिरोधी फसल किस्मों के अपने स्वयं के बीज भंडार एकत्र कर सकेंगे, जिससे उनका खाद्य उत्पादन कीटों और बीमारी के प्रकोप के प्रति कम संवेदनशील हो जाएगा.

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