Nature: हमारे जीवन की डोर हमारे पास नहीं, रोज एक पेड़ है कटता कहीं
Nature: !!प्रकृति!!
Nature: मैं बेघर हूं, मनुष्य से मेरा नाता खूंटे से बंधी
उस रस्सी की तरह है जो हर दिन कमज़ोर हो रहा
हमारे जीवन की डोर हमारे पास नहीं
रोज़ एक पेड़ है कटता कहीं
कुछ बेजान पड़े है कुछ अधमरे भी है
नदियां रो-रोकर कर सुख गई
चिड़ियां घरों से बेघर हुई
फूलों ने मुस्कुराना छोड़ दिया
कुम्हार ने मिट्टी से नाता तोड़ लिया
बारिश खफा-खफा सी है
हवाओं ने रुख मोड़ लिया
नहीं दिखते पहाड़,
ना शेर की दहाड़
ओस की बूंदे ढूंढते अपना सहारा
घूट रहा है दम
फैक्टरियों से दूषित नीला आसमान हमारा
मैं पीड़ा अपनी आख़िर किस से कहूं
मैं बेघर हूं
फसलों को प्यास लगी है
मयूर पंख फैलाए रूठी हुई है
सूखे पत्ते झड़ जाते हैं
आख़िरी सांस भी ना सुकून से ले पाते हैं
उस काल से इस काल तक मेरी व्यथा कैसे कहूं
मैं बेघर हूं
जिसने चांद तक पहुंचने का रास्ता बनाया
वो क्यों ना हमें बचा पाया
है गुरूर जिसे अपने होने का
उसने ही मुझे कब्र में दफनाया
मैं अपने वजूद की तलाश हर दिन करती हूं
मैं बेघर हूं
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