Munshi premchand

Munshi Premchand: प्रेमचन्द का भारत-बोध: गिरीश्वर मिश्र

~~जन्म जयंती पर विशेष~~

Munshi Premchand: बनारस के लमही गाँव में पैदा हुए , पले बढे धनपत राय का लेखक प्रेमचंद में रूपांतरण भारतीय साहित्य जगत की एक विशिष्ट उपलब्धि है. कहते हैं उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ का संबोधन शरद चन्द्र चट्टोपाध्याय ने दी थी

Munshi Premchand: हिन्दी और उर्दू दोनों के सिद्धहस्त कथाकार मुंशी प्रेमचंद का तीन दशकों का लेखन भारत की सामुदायिक समरसता का एक अद्भुत दस्तावेज प्रस्तुत करता है. बीसवीं सदी के आरंभिक काल की उनकी रचनाएं आम आदमी की ख़ास उपस्थिति को रेखांकित करती हैं. मोहक आख्यान से पाठक को बाँध कर चलने वाली उनकी कथाएँ आदर्श और यथार्थ के बीच आवाजाही करते हुए एक संतुलित दृष्टि विकसित करती हैं. उनके कथा -शिल्प की कलात्मक झंकृति एक अनोखे सौन्दर्य बोध का संकेत देती हैं जो साधारण , सहज और सीधा होते हुए भी हृदयस्पर्शी होता है. उसकी ग्र्याह्यता का दायरा समाज के बड़े व्यापक वर्ग को अपना मुरीद बना लेता है और उनके होरी, घीसू-माधो या हामिद जैसे पात्र पाठकों के लिए अविस्मरणीय प्रतीक बन जाते हैं.

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गाँव, कस्बा और शहर के बीच उनका जीवन बीता था और घर-बाहर में पसरी दुनिया के बीच रिश्तों के उतार-चढ़ाव को वे जीते रहे और कई-कई संघर्षों के बीच उनका लेखन चलता रहा. सरकारी नौकरी से आरभ कर स्वतन्त्र लेखन की की उनकी जिन्दगी कठिन थी. एक सहज साहस के साथ उन्होंने अपनी दुनिया भी रची थी और साहित्य तथा जीवन दोनों में नए मोड़ को अंजाम दिया था. अपनी स्पष्ट , सहज और प्रभाव -शाली शैली वाली कहानियों और उपन्यासों को लेकर कई कालजयी रचनाएं दे कर प्रेमचंद (Munshi Premchand) ने अध्यवसाय और कर्मठ जीवन शैली के साथ जहां एक ओर मनुष्य स्वभाव की सनातन उलझनों को शब्द दिया वहीं अपने समकालीन देश-काल से भी जुड़ते रहे और समाज की नब्ज पहचान कर रास्ता ढूँढ़ने का काम भी करते रहे.

यहाँ यह भी नोट करने लायक है कि शायद वही ऐसे लेखक जिन्हें हिन्दी और उर्दू दोनों के पाठकों का प्यार मिला. भाषाई दृष्टि से उनकी हिन्दी का उर्दू से विरोध नहीं है और जन समुदाय में उनकी लोकप्रिय उपस्थिति यह भी एक कारण है. यहाँ यह भी उल्लेख्य है कि ‘हंस’ पत्रिका के सम्पादन में प्रेमचंद (Munshi Premchand) ने साहित्य के अखिल भारतीय पक्ष को उपस्थित करने का काम किया था. उन्होंने माधुरी पत्रिका और साप्ताहिक जागरण का भी संपादन किया . वे हिन्दी को बृहत्तर भारत की साहित्य प्रवृत्तियों से जोड़ना चाहते थे. उन्होंने दक्षिण भारत में साहित्यिक आयोजनों में भी भाग लिया था और उनकी लेखकीय उपस्थिति भी पूरे भारत में स्वीकार्य हुई . वे प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष भी रहे और हिन्दी साहित्य सम्मलेन में भी शामिल रहे. मराठी , गुजराती , जापानी और जर्मन भाषाओं में उनकी रचनाओं के अनुवाद 1930 के आस पास ही प्रकाशित हो चुके थे.

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प्रेमचंद की रचनाओं का मूल स्वर भारत बोध का है. रंग भूमि, प्रेमाश्रम, सेवा सदन, गबन, वरदान , गोदान, निर्मला जैसे उपन्यास और कफ़न, पञ्च परमेश्वर , बूढी काकी , दो बैलों की जोडी पूस की रात जैसी कहानियों रच कर प्रेमचंद ने यहाँ की धरती, यहां के गाँव, शहर , जाति , वर्ग, स्त्री जीवन, दुखियारे लोग, वणिक समुदाय, वकील, शिक्षा, भ्रम, रीति, कुरीति, देश-भक्ति अर्थात समग्र जीवन ही उनका संबोध्य है और वे इनके सुखी जीवन की अड़चनों को टटोलते हैं और समाधान ढूँढ़ते हैं. प्रेमचंद के डेढ़ दर्जन उपन्यासों और तीन सौ कहानियों के विपुल रचना संसार में पात्रों का विस्तार देखें तो आपको बच्चे बूढ़े , जवान, अधेड़ , हर पेशे के लोग और हर धर्म का समावेश मिलेगा .

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मानव मन की गुत्थियों की ओर उनकी पैनी नजर रहती है और उसे उकेरने में माहिर हैं. इन सब के बीच स्वस्थ यानी अपने में स्थित जैसे हुआ जाय यह उनका मुख्य सरोकार है. भारतीयता की परिधि में ही वह समाधान ढूँढ़ते हैं. भारतीय संस्कार और जीवन-वृत्तियाँ उनके लेखन में निरंतर बनी हुई हैं. कल्पनाशीलता यदि विस्तार देती है तो यथार्थ उसे ठोस आधार देता है जो पाठक को उसके अनुभव का हिस्सा बना देता है. अपने समय के कुशल चितेरे प्रेमचंद (Munshi Premchand) पर महात्मा गांधी का भरपूर असर पड़ा था. ‘ सोजे वतन’ उनकी ऐतिहासिक रचना है जो देशप्रेम के भावोद्गार के लिए अंग्रेजों द्वारा प्रतिबंधित की गई थी.

लोक के साथ प्रेमचन्द की सम्पृक्ति और मूल्यबोध विकसित करने की उनकी आकांक्षा जो ‘प्रेमाश्रम’ जैसी उनकी रचनाओं में उभरती है वह गांधी जी विचारों के प्रति उनके आकर्षण को द्योतित करती है. सोजे वतन यह सब करते हुए प्रेमचंद जिस भाषा का प्रयोग करते हैं वह उनके आस-पास की है. बिना किसी तनाव के वह इतनी सहज और प्रवाहमयी बनी रहती है कि पाठक के सामने पाठ नहीं पूरा (चल!)चित्र उपस्थित हो जाता है.

प्रेम चंद ने फिल्म जगत की ओर भी रुख किया था जो सफल नहीं रहा और वे वापस आ गए थे शुद्ध साहित्य की दुनिया में . पर मजदूर फिल्म की कथा लिखी थी जिसका प्रदर्शन बाद में रोक दिया गया. वैसे साइन जगत भी उनकी सत्यजित रे ने शतरंज के खिलाड़ी और सद्गति फ़िल्में बनाईं , मृणाल सें ने एक बंगाली फिल्म कफ़न कहानी को लेकर बनाई . निर्मला , गोदान और गबन पर टी वी सीरियल भी प्रदर्शित हुए.

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  • बनारस के लमही गाँव में पैदा हुए , पले बढे धनपत राय का लेखक प्रेमचंद में रूपांतरण भारतीय साहित्य जगत की एक विशिष्ट उपलब्धि है. कहते हैं उन्हें ‘उपन्यास सम्राट’ का संबोधन शरद चन्द्र चट्टोपाध्याय ने दी थी . पर वे ‘कथा सम्राट’ विरुद के भी उतने ही हकदार हैं. प्रेमचंद ने समय की धार पहचानी और सामाजिक मूल्यों और मान्यताओं की जरूरत महसूस की और यह भी महसूस किया कि उनमें गतिशीलता न हो तो अव्यवस्था पैदा होती है. इसलिए उनके हिसाब से यथास्थिति को तोड़ा जाना चाहिए और गतिरोध को दूर करते हुए आवश्यक पुनर्गठन भी होना चाहिए . व्यवस्था में खुलेपन की उनकी यह पेशकश उनको आदर्श या यथार्थ की स्पष्ट और भिन्न कोटियों का अतिक्रमण करने वाले रचनाकार के रूप में स्थापित करती है.

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शायद इसीलिए उनको कुछ आलोचक आदर्शोन्मुख यथार्थवादी घोषित करते हैं. वैसे भी साहित्य यदि सिर्फ दैनिक डायरी ही रहे तो अखबार की तरह बासी होता रहेगा . आदर्श की और आगे बढ़ने की संभावना ही किसी साहित्यिक कृति को कालातिक्रामी बनाती है. साथ ही जीवन और मनुष्य के लिए उसकी मूल्यवत्ता उसे स्थायी रूप से प्रासंगिक ठहरा जाती है. वह निजी न रह कर सबकी धरोहर बन जाता है. पाठक ऎसी रचना से गुजर कर स्वयं को परिष्कृत, समृद्ध, भाव-विगलित अनुभव करता है और उद्वेलित हो कर सक्रिय होने लगता है. पाठक के मन मस्तिष्क मेमन हलचल होती है. मन में उठा विचार कर्म की प्रेरणा बन जाता है. प्रेमचंद की कहानियां और उपन्यास कुछ ऐसा ही करते हैं.

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