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Public Manifesto: देश क्या चाहे ? एक जन-घोषणा पत्र

Public Manifesto: प्रत्याशियों के चयन में कमोबेश हर जगह भरोसे के लोगों की तलाश शुरू हुई। चूँकि राजनीति में भरोसा बड़ा अहम होता है पार्टी हाई कमान राज-काज में भागीदारी के लिए योग्यता या अनुभव की जगह अपने विश्वासपात्रों को तलाश रहा है जो अविचल भाव से पार्टी नेतृत्व के प्रति “लायल” बना रहे।

 गिरीश्वर मिश्र 

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 Public Manifesto: अंग्रेज़ी उपनिवेश के अंधे युग से मुक्ति के बाद भारत ने एक आधुनिक लोकतंत्र के रूप में सात दशकों की यात्रा पूरी की है। इस बीच उतार-चढ़ाव के कई दौर आए, कई आंतरिक और बाह्य आपदाएँ भी आईं फिर भी संसदीय लोकतंत्र की रक्षा करने में देश सफल रहा। नेतृत्व में भागीदारी भी इस अर्थ में विकेंद्रित हुई कि वह अभिजात वर्ग के वर्चस्व से बाहर आई। देश की सामाजिक चेतना का निश्चित रूप से विस्तार हुआ। इस तरह पराधीन से स्वाधीन होना एक औपनिवेशिक विदेशी शासन की जकड़न से मुक्त कराने वाला राजनैतिक अनुभव था पर ‘स्वराज’ की सोच एक अधूरी प्रोजेक्ट परियोजना ही रही। उसने देश के नागरिकों को अनिवार्य दायित्व की अनदेखी डोर से भी बांधा था जिसे हम बिसराते गए। स्वतंत्रता का मायने समर्थ होना और  आत्म-निर्भर होना भी होता है।

सात दशक बाद हमने अमृत काल की अवधि में एक आत्मनिर्भर और सशक्त भारत के निर्माण के लिए संकल्प लिया है। इस कार्य के लिए पूरे भारतीय समाज की संलग्नता ज़रूरी है। इस लक्ष्य के प्रति एकल समर्पण के साथ ही देश आगे बढ़ सकेगा ।  इसके लिए गणतंत्र की परिधि में कार्य करना होगा जिसे संसदीय प्रणाली के अनुसार होना है । इस दृष्टि से लोक सभा का चुनाव एक महत्वपूर्ण अवसर है। अगली लोक-सभा के गठन के लिए आगामी चुनाव की बढ़ती सरगर्मियों के बीच सभीराजनैतिक दल जनता को लुभाने के लिए क़िस्म-क़िस्म के उपाय करने में जुट रहे हैं । सबका एक ही तात्कालिक लक्ष्य है जन-समर्थन हासिल करना ताकि अपनी पार्टी के लिए ज़्यादा से ज़्यादा वोट इकट्ठा किया जा सके । इस मुहिम में बड़े नेताओं के संग जनसभा, रोड शो, रैली और रेला के बड़े और विशाल आयोजन (मेगा शो!) साथ-साथ अब घर-घर मतदाताओं से मिल कर अपने पार्टी के पक्ष में ज़मीनी स्तर पर प्रचार करने की क़वायद रफ़्तार पकड़ने लगी है।

इन सब के लिए पृष्ठभूमि तैयार करने का काम टी वी चैनलों पर होने वाले वाद-विवाद (जिन्हें दंगल! हल्लाबोल! शंखनाद! के रूप में प्रचारित कर लोकप्रिय बनाया जाता है), नेताओं के अंत:करण की आवाज के साथ उनकी दृष्टि (और पार्टी) में बदलाव की आहट, दल-बदल की खबरें, चुनावी टिकट की अनोखी बंदरबाँट और विभिन्न दलों के झूठे-सच्चे आपसी आरोप-प्रत्यारोप के छोटे-बड़े दावे, राजनैतिक पार्टियों के प्रवक्ताओं के (अनोखे) वक्तव्य और वाग्युद्ध तथा राजनैतिक विश्लेषकों द्वारा की जाने वाली रोचक टिप्पणियाँ। आशा की जाती है कि ये सभी श्रोताओं और दर्शकों को वह ज़रूरी सूचना देते रहते हैं जिससे उसे अपनी राय बनाने में सहूलियत होती है हालाँकि विभिन्न पार्टियों के परस्परविरोधी दावे अक़्सर दिग्भ्रमित भी करते हैं। साथ ही वर्तमान के बदले पुराने इतिहास को खोदे-खोद कर बीती सरकारों और नेताओं के दोषों, कमियों और ग़लतियों की फ़ेहरिस्त भी पेश की जाती है।

नेताओं के पुराने और यादगार अच्छे-बुरे, प्रासंगिक और ग़ैर-प्रासंगिक (बेतुके!) कारनामे भी पिटारे से बाहर निकाले जाते हैं। उनके भूत उतारे नहीं उतरते और वर्तमान की लड़ाई के लिए इतिहास अस्त्र-शस्त्र मुहैया कराता रहता है। इस बीच राजनैतिक घटनाक्रम भी कभी विराम नहीं लेता, वह भी निरंतर इतिहास रचता रहता है। राजनीतिक परिदृश्य कुछ ऐसा है कि मोदी की उपस्थिति, छवि और संवाद-पटुता ने उनको राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया है। उनकी गतिशीलता ने भारत की छवि को भरोसेमंद बनाया है। उनकी रीति नीति में समावेश की प्रवृत्ति झलकती है।

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उनकी जनपक्षीयता जन-सुविधाओं के व्यापकीकरण जैसे- डिजीटलीकरण, संसाधनों और इंफ़्रास्ट्रक्चर का विस्तार, आर्थिक मोर्चे पर मजबूती, प्रतिरक्षा तंत्र का स्वदेशीकरण, अंतरिक्ष विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में देश के बढ़ते कदम आश्वस्ति का संकेत देते हैं। ‘मोदी की गारंटी’ असरदार हो रही है। सामाजिक और राजनीतिक समीकरण साधने की उनकी कोशिश भी रंग ला रही है।

पिछले दिनों कई दलों ने प्रत्याशियों के चयन के साथ टिकटों का एलान किया। प्रत्याशियों के चयन में कमोबेश हर जगह भरोसे के लोगों की तलाश शुरू हुई। चूँकि राजनीति में भरोसा बड़ा अहम होता है पार्टी हाई कमान राज-काज में भागीदारी के लिए योग्यता या अनुभव की जगह अपने विश्वासपात्रों को तलाश रहा है जो अविचल भाव से पार्टी नेतृत्व के प्रति “लायल” बना रहे। दूसरी ओर जनता को विश्वास में लेने के लिए “न्याय “ और “ गारंटी “ जैसे जुमले तैरने लगे हैं। राजनैतिक दलों के घोषणा-पत्रों में युवा, स्त्री, मज़दूर, किसान, गरीब आदि समुदायों के लिए तरह-तरह की मुफ़्त की ख़ैरात बाँटने का प्रलोभन देने वाली घोषणा-दर घोषणा की भरमार दिख रही है। इस तरह (पक्के!) वादों को जनता की भलाई का नुस्ख़ा बना कर पेश किया जा रहा है।

मसलन आरक्षण की सीमा बढ़ाने, नौकरी के अवसर देने, क़र्ज़ की व्यवस्था करने और क़र्ज़माफ़ी करने, महिला और किसान जैसे विभिन्न वर्गों के लिए अनुग्रह राशि देने और जातिगत जनगणना कराने के द्वारा सबको संतुष्ट करने की कोशिश की जा रही है। विपक्षी दलों की सोच में जहां परिवार-प्रथम की युक्ति आज़माई जा रही है और दायरा संकुचित होता जा रहा है। वे जातिवाद और तुष्टीकरण की नीति पर काम कर रहे हैं। भ्रष्टाचार में संलिप्तता के मामले विपक्षी नेताओं की साख के लिए घातक सिद्ध हो रहे हैं। विपक्ष का एक मोर्चा आइ एन डी आई ए का स्वरूप संकल्पहीन नाटक हो रहा है। सबसे पुराने दल कांग्रेस जिस तरह अस्तित्व के लिए संघर्षरत है वह चिंता की बात है। उसके लिए गहरे आत्म-मंथन की ज़रूरत है। मोदी के चेहरे पर जनता का भरोसा भाजपा को आश्वस्ति ज़रूर देता है ।

आज जाति, क्षेत्र और धर्म जैसे समाज-विभाजक आधारों का आसरा लेकर चुनाव की तैयारी ख़ास-ख़ास समुदाय के फ़ायदे लिए सोची जा रही है। इस तरह के तुष्टिकरण की परियोजना ख़तरनाक है। इसे अंजाम देने की मुहिम जारी है। हर नेता बे-अन्दाज़ हो कर प्रलोभनों की इस तरह से बौछार करता है मानों वे देवताओं के ख़ज़ांची कुबेर हैं और उनके ख़ज़ाने पर उसी का क़ब्ज़ा है। मतदाता को बहकावे लाने की हर कोशिश चल रही है । सुरा, सुविधा और रूपया-पैसा बाँट कर जनता से वोट की सौदेबाज़ी राजनीति को घृणित आधार दे रहा है। नए माहौल में अब संसदीय प्रत्याशी को भी करोड़पति होना ज़रूरी हो रहा है । वह बाहुबली हो (या संदिग्ध अपराधी) हो तो भी चलता है। भारत की जनता में सहनशीलता है और वह उदारतापूर्वक सबको अवसर देती है। चुनावी सफलता पाने के बाद नेतागण अक़्सर सत्ता सँभालने और उसका सुख भोगने में लग जाते हैं । कुछ अपवादों को छोड़ ड़ें तो आम जनता के सुख-दुःख पर उनका ध्यान काम ही जा पाता है।

कटु सत्य यह भी है कि सत्तासीन सरकार के नुमाइंदे और जनता के बीच का बड़ा अंतराल आता गया है। आम जन और उनके नेताओं के बीच का संवाद क्रमश: घटता गया है । संचार में आने वाले इन व्यवधानों ने राजनैतिक प्रतिनिधियों और उनके दलों के प्रभाव-क्षेत्र को प्रभावित करता है और उसी के अनुसार नेताओं की साख भी घटती-बढ़ती है। महँगाई, बेरोज़गारी और सरकारी काम-काज की धीमी गति और उबाने वाली नौकरशाही पूरी व्यवस्था की प्रामाणिकता पर प्रश्न खड़ा कर देती है । आम जन अक़्सर इनसे उद्धार पाने के लिए तड़फड़ाता रहता है । नारे और वायदों से उकता चुकी जनता को ज़मीनी हक़ीक़त में बदलाव की चाहत है । आगामी चुनाव की भी यही कसौटी रहेगी । देश की जनता के मन में भी एजेंडा है। उसके जन-घोषणा पत्र में किसी एक की संतुष्टि नहीं बल्कि लोक-कल्याण सर्वोपरि है।

इसके उपाय के रूप में लुंज-पुंज हो रही संस्थाओं का पुनर्जीवन, भ्रष्टाचार का उन्मूलन और सदाचार का पोषण, आत्मनिर्भर भारत का निर्माण, वंचितों की मौलिक सामर्थ्य को बढ़ाना न कि उनको परोपजीवी बनाए रखना, पारदर्शिता के साथ सुशासन की व्यवस्था हो, देश की लचर और ‘मिकेनिकल’ तकनीकी बनाती जा रही न्याय-प्रणाली को सुधारा जाय और  शिक्षा का महत्व समझ कर उसकी गुणवत्ता को सुनिश्चित किया जाय। युवा भारत के कर्णधार सरीखे लोगों जैसे महिलाएँ,  किसान, मज़दूर और युवा वर्ग को सार्थक जीवन का अवसर उपलब्ध कराया जाय। भविष्य का भारत इन्हीं पर टिका है। फ़ौरी प्रलोभन दे कर वोट बटोरने की क़ुप्रथा अंतत: नुक़सान ही देती है और इससे बचने की ज़रूरत है। भारत एक ऐसे सशक्त भारत का स्वप्न देख रहा है जिसमें ऐसी पारदर्शी व्यवस्था हो जो लोक-कल्याण से प्रतिबद्ध हो और सबकी सहभागिता हो।

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