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Om Namah Shivay: ऊँ नम: शिवाय !

 Om Namah Shivay: ‘शिव’ अर्थात् शुभ, कल्याण और मंगलकारी ! सभी की इच्छा जीवन में सुख, शांति और आनंद पाने की होती है। पर जीवन का यथार्थ अच्छे-बुरे, प्रिय-अप्रिय हर तरह के अनुभव देता है। हिंदू जीवन दृष्टि में सारी सृष्टि की चक्रीय व्यवस्था में उद्भव, स्थिति और संहार के क्रम को  यानी उतार चढ़ाव को स्वाभाविक मानती है। इस व्यवस्था में नियामक ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीन देवताओं की त्रिमूर्ति की संकल्पना की गई है। इस संकल्पना के विस्तार में शिव सौम्य और रौद्र, लय तथा प्रलय से जुड़ी कई भूमिकाओं में आते हैं और जगत का कल्याण करते हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद शिव को सर्वव्यापी घोषित करता है: सर्वव्यापी स भगवान् तस्मात्सर्वगत: शिव: । ‘हरिहर’ रूप में विष्णु और शिव का द्वय (शिव-केशव, शंकर-नारायण) का रूप भी भक्तों में बड़ा लोकप्रिय है। निश्चय ही शिव की उपस्थिति अन्य देवताओं की तुलना में अधिक व्यापक है।

Om Namah Shivay: pro Girishwar misra

शिव के प्रति आकर्षण बड़ा प्राचीन है। ऐतिहासिक दृष्टि से शिव पूर्ववैदिक काल से चर्चित देवता हैं। सिंधु घाटी की सभ्यता में मिली पाशुपत (योग) मुद्रा शिव का ही बोध कराती है । शिव के विविध रूप वैदिक काल से मिलते हैं। तमिल शैव सिद्धान्त भी अत्यंत प्राचीन है। सातवीं सदी में नयनार भक्त कवि (तिरुमराई, पेरिय पुराणम, तेवारम, तिरुमुलर की तिरूमंत्रम), लिंगायत समुदाय, तथा नाथ-सम्प्रदाय जिसके गुरु गोरखनाथ थे परम शिव भक्त रहे। कश्मीर में उत्पलदेव, अभिनवगुप्त, क्षेमराज, आदि द्वारा प्रत्यभिज्ञा (अद्वैत) दर्शन का विकास हुआ, वसु गुप्त ने शिवसूत्र रचा, शिव पुराण तथा लिंग पुराण आदि ग्रंथों में भी शैव चिंतन के विविध रूप मिलते हैं।

 समग्रता के पर्याय बन चुके शिव भारतीय देश-काल में सतत व्याप्त दिखाई पड़ते हैं । इतिहास में झांकें तो लोक जीवन में शिव की स्मृति उत्तर दक्षिण चारों ओर छाई मिलती है । कई जन जातियों में भी शिव की पूजा होती है। शिव तक पहुँचना सरल है और उनकी पूजा-अर्चना का विधान भी सादगी भरा और सुग्राह्य है। अक्षत, चंदन, धतूरा, आक, गंगाजल और विल्वपत्र से उनका पूजन होता है। अभिषेक उन्हें विशेष रूप से प्रिय है । श्रावण मास में रुद्राभिषेक बड़ा लोकप्रिय है । शिव का औदार्य, पारदर्शिता और निश्छलता मुग्ध कर लेती है। यदि औढरदानी शिव भोलेनाथ बड़े कृपालु करुणाकर हैं तो रुद्र के रूप में शिवशंकर दुष्टों के लिए कालाग्नि सदृश हैं जो सबको भस्म कर दें।

देवाधिदेव महादेव वरदायी दक्षिणामूर्ति हैं। वे शम्भु और पशुपति भी हैं । पार्वतीपति शिव सभी की कामनाओं को पूरा करते हैं। आदिदेव महेश्वर की पूजा मिट्टी के शिव लिंग रच कर भी होती है जिसे पार्थिव-पूजन करते हैं तो स्फटिक के शिवलिंग भी हैं। शिव की स्तुति में अनेक मधुर स्तोत्र रचे गए हैं जिनमें गंधर्वराज पुष्पदंत का महिम्नस्तोत्र और शंकराचार्य की स्तुति विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। शिव के कुछ और नाम भी हैं जैसे पिनाकी, शशिशेखर, विरूपाक्ष, शूलपाणि, नीललोहित, खट्वांगी, वामदेव और विष्णुवल्लभ । सभी के साथ अलग-अलग रोचक आख्यान जुड़े हुए हैं।

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विराट भारतीय मानस के प्रतिरूप सरीखे परम उज्ज्वल ज्योतिरूप शिव जितनी सहजता से उपलब्ध हैं उतने ही विलक्षण भी हैं । वे मुक्त भाव से विचरण करते हैं और सभी चाहने वालों को मुक्ति देते हैं, विश्वेश्वर विश्वनाथ जो ठहरे । वे महाकाल और अविमुक्त भी हैं। भारत के लोक-मानस में बैठा शिव का बहुप्रचलित बानक निराला है । नंदी नामक बैल की सवारी पर विराजने वाले, कैलास पर्वत के वासी, भंग-धतूरा खाने वाले, गले में मुंडमाल धारण करने वाले, व्याघ्र चर्म लपेटे नंग-धडंग रहने वाले दिगम्बर, अपने जटाजूट में अमृतस्वरूपा पतितपावनी गंगा को धारण किए, गले में सर्पों की माला पहने, त्रिलोचन यानी तीन नेत्रों वाले, जिनके माथे पर चंद्रमा विराजते हैं ऐसे शिव नाना प्रकार के विकट भूतादि गणों से घिरे रहते हैं। शंकर जी में कई-कई विरुद्ध एक साथ स्पंदित होते रहते हैं । उनके एक हाथ में त्रिशूल है तो दूसरे में डमरू।

ब्रह्मा के पुत्र शिव के दो पुत्र हैं : गजानन गणेश और कार्तिकेय । दक्ष प्रजापति की पुत्री सती उनकी जीवन संगिनी हैं जो अगले जन्म में हिमवान की पुत्री पार्वती हो कर पुन: साथ निभाती हैं । वे नटराज हैं और तांडव नृत्य में विशारद हैं । एक ओर अयोध्या के श्रीराम उनको पूजते हैं तो दूसरी ओर लंका का राक्षसराज रावण उनका परम भक्त है। रावण का शिव-तांडव स्तोत्र लोक प्रसिद्ध है । कहते हैं नृत्य के बाद प्रसन्न शिव ने चौदह बार डमरु बजाया । उनके डमरू के बजने से निकली ध्वनि से निर्मित चौदह माहेश्वर सूत्र संस्कृत भाषा के व्याकरण के आधार बन गए । क्रुद्ध हो कर कामदेव को तीसरे नेत्र से देख कर शिव ने भस्म कर दिया । फिर कामदेव अनंग हो गए और सर्वव्यापी बन गए । वह अभी भी बिना दिखे अदृश्य रह कर सबको प्रभावित करते फिरते हैं । शिव-पार्वती का एक रूप अर्धनारीश्वर का भी है। वे पिनाकपाणि हैं। गंगाधर हैं और वृषध्वज भूतपति भी हैं।

जब देवता और असुरों के द्वारा समुद्र मंथन हो रहा था तो उससे अनेक रत्न तो निकले ही साथ में विष भी निकला। वह विष अत्यंत ज्वलनशील था। सभी त्राहि माम कर रहे थे तब सभी देवों ने शिव से उसे शांत करने को कहा। फिर उन्होंने विषपान कर सृष्टि बचा ली। यह उन्हीं के बस का काम था। तभी वे ‘महादेव’ कहलाए। विष मृत्यु का ही पर्याय है और उस पर विजय के कारण वे ‘मृत्युंजय’ भी कहे गए। कहते हैं विषपान के बाद शिव जी हिमालय की गुफा में बैठ कर ध्यानमग्न हो गए। तभी देवता गण उनकी स्तुति करने पहुँचे। शिव जी ने बताया कि स्थूल विष धारण करना तो कोई  बड़ी बात नहीं। संसार में रहते हुए जो विषैले अनुभव होते हैं उनको पचाना अधिक बड़ा पुरुषार्थ है।

हमारा मानव मन भी समुद्र ही है जहां विचारों, संकल्पों और विकल्पों का मंथन सदा चलता रहता है। जो आदमी उस मंथन से निकले दोषों, यानी विष को, दूर कर मन  के कल्याणकारी पक्ष को सुरक्षित बचाए रखता है वही शिव है। शिवात्मक प्राण शक्ति द्वारा मृत्यु पर विजय के लिए संघर्ष चारों ओर चलता है। अपनी शक्ति से विष के प्रभाव से मुक्त होना होगा। विष को गले में स्थान दे कर शिव ‘नीलकंठ’ हुए। उनके पास विष भी अमृत बन कर रहा। शिव मृत्युंजय हुए। मानस में सिर उठाते विष को वश में करना ही शिवत्व है। त्र्यम्बक शिव सुगन्धिमय हैं, तापों के दूर होने से दुर्गंध चली जाती है। शुभ गंध अमृतमय और पुष्टिबर्धक होती है । वह मृत्यु से छुटकारा दिलाती है और अमृत की सिद्धि कराती है । हमारा स्वरूप शिव का है: शिवोहं ! शिवोहं !

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