नर से नारायण की यात्रा: गिरीश्वर मिश्र(Nar se narayan ki yatra)

Nar se narayan ki yatra: स्वतंत्रता का अमृत महोत्सव भारत की देश-यात्रा का पड़ाव है जो आगे की राह चुनने का अवसर देता है. इस दृष्टि से पंडित दीन दयाल उपाध्याय की चिंतनपरक सांस्कृतिक दृष्टि में जो भारत का खांचा था बड़ा प्रासंगिक है. वह समाजवाद और साम्यवाद से अलग सबके उन्नति की खोज पर केन्द्रित था. वह सर्वोदय के विचार को सामने रखते है और सोच की यह प्रतिबद्धता भारतीय राजनैतिक सोच को औपनिवेशक सोच से अलग करती है. उनका स्पष्ट मत था कि समाजवाद और साम्यवाद सिर्फ शरीर और मन तक सीमित हैं और इच्छा (काम) और धन (अर्थ) तक ही चुक जाते हैं. वे मनुष्य के समग्र अस्तित्व की उपेक्षा करते हैं. एक व्यापक आधार चुनते हुए वह मानव अस्तित्व के सभी पक्षों अर्थात शरीर, और मन के साथ बुद्धि तथा आत्म का भी समावेश करते हैं.

इन्हीं के समानांतर धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष के पुरुषार्थों को भी उन्होंने रेखांकित किया. उनका मानना था कि वैयक्तिकता के विरुद्ध जा कर अंतत: साम्यवाद भी व्यक्ति को कुचल देता है. उपाध्याय जी समाज को अनुबंध (कान्ट्रेक्ट) की जगह एक जीवित प्राणवान सत्ता मानते थे जो राष्ट्र की आत्मा के साथ जुड़ी रहती है. इस सामाजिक सत्ता (जीव!) की आवश्यकताएं भी व्यक्ति की आवश्यकताओं की ही तरह होती हैं. आदि शंकर का अद्वैत वेदान्त उन्हें आकर्षक लगा था जो पूरी सृष्टि में विद्यमान मनुष्य समेत सभी तत्वों को जोड़ने का आधार देता है. महात्मा गांधी की तरह वे भारत को अपनी राह खुद बनाने की तजबीज करते हैं. दोनों ही शुद्ध वैयक्तिकता की श्रेष्ठता को नकारते हैं और हानिकर घोषित करते हैं. उन्हें नैतिक-धार्मिक मूल्यों से अनुप्राणित आधुनिकता में ही आगे की राह दिखती है. भारत के लिए लक्ष्य और दिशा के बारे में सोचते हुए वे दोनों के लिए ही राष्ट्रीय अस्मिता को अत्यंत महत्वपूर्ण पाते हैं और कहते हैं कि अस्मिता के अभाव में राष्ट्र रुग्ण हो जाता है. विश्व के आर्थिक-राजनैतिक इतिहास भी यही बताता है.

पश्चिम में उभरे समाजवाद, प्रजातंत्र और राष्ट्रवाद जैसे विचारों का मूल्यांकन करते हुए वह इनको अपर्याप्त पाते हैं. राष्ट्रवाद ने राष्ट्र और राज्य की अवधारणाओं को एक दूसरे के निकट पहुंचाया. राष्ट्रवादी विचार विश्व शान्ति को खतरा बना. प्रजातंत्र और पूंजीवाद हाथ मिला कर शोषण में जुट गए और समाजवाद ने पूंजीवाद को विस्थापित कर प्रजातंत्र और व्यक्ति स्वातंत्र्य को प्रश्नांकित किया. कुल मिला कर पश्चिमी दुनिया में हुए प्रयोग कोई समुचित समाधान नहीं प्रदान करते दिखते. स्वतंत्र भारत में उभरती सामाजिक, आर्थिक, और राजनैतिक समस्याओं के बीच जरूरी उत्साह और संतुष्टि की कमी उनको दुखी करती थी. उनका विचार था कि हर देश की सामाजिक-ऐतिहासिक दशाएं भिन्न समाधान की अपेक्षा करती हैं. ज्ञान और विचार तो देश-काल से बाहर आ जा सकते हैं पर मनुष्य की प्रतिक्रियाएं उसके देश-काल से अनिवार्य रूप से अनुबंधित होती हैं. इसलिए आलोचक विवेक के आधार पर ही मार्ग को चुनना होगा. ज्ञान कहीं से उपजा हो उसकी स्वीकार्यता अपने सन्दर्भ में उस ज्ञान की उपयुक्तता की कसौटी पर ही जांची जा सकती है.

उपाध्याय जी मानते हैं कि स्वातंत्र्य का आधार संस्कृति में होना चाहिए. ऐसा न होने पर स्वतंत्रता के लिए राजनैतिक आन्दोलन स्वार्थ और सत्तालोभी राजनेताओं द्वारा नष्ट हो जायगा. वह सार्थक तभी होगा यदि वह संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम बने. राष्ट्रीय और मानवता दोनों ही दृष्टि से भारतीय दृष्टि के विचार प्रासंगिक है. भारतीय संस्कृति जीवन को समेकित रूप में देखती है. सिर्फ अंश को देखना व्यावहारिक दृष्टि से ठीक नहीं है. पश्चिमी विचार पहले खंड में देखता है फिर जोड़ता है जब कि भारतीय दृष्टि विविधता और बहुलता को देखती है पर उनके बीच कोई एक योजक सूत्र को तलाशती है. विश्व में व्यक्त असंबद्धता या अव्यवस्था में व्यवस्था ढूढ़ कर विश्व को नियमित करने वाले सिद्धांत की खोज की जाती है. भारत में सकल या समस्त जीवन में एका देखा गया. उपाध्याय जी बीज का उदाहरण ले कर कहते हैं कि बीज जड़, तने, डाल , पत्ते, फूल और फल में व्यक्त होता है.

इन सभी अंशों की विशेषताएं भी भिन्न होती हैं पर उनका मूल बीज से रिश्ता दिखता है और नकारा नहीं जा सकता. विविधता में ऐक्य और उस ऐक्य का विभिन्न रूपों में अनुभव करना भारतीय संस्कृति में एक प्रमुख सरोकार है. यह संस्कृति प्रकृति कि उपेक्षा नहीं करती. वह प्रकृति में निहित उन तत्वों को समुन्नत करती है जो ब्रह्मांड में जीवन संभव और समृद्ध करती हैं. वह जीवन विरोधी तत्वों को नष्ट करती है. मनुष्य उन मूल रिश्तों को आगे बढाता है और सहयोग तथा सामंजस्य के साथ सभ्यता का निर्माण करता है. सत्य और अहिंसा जैसे नियमों के बिना समाज चलेगा ही नहीं. ये मूल स्वभाव हैं जो जन्म से होते हैं और जिन्हें धर्म कहा गया. धर्म प्रधान संस्कृति जीवनदायी होती है. उपाध्याय जी का विचार है कि मनुष्य का समग्र अस्तित्व शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा से मिल कर बनता है. पर ये व्यक्ति में समेकित रूप से मौजूद रहते हैं इसलिए इनको अलग-अलग नहीं समझा जा सकता.

मनुष्य की प्रगति सर्व-समावेशी होनी चाहिए पर पश्चिम में सिर्फ शरीर पर ही ध्यान दिया गया जब कि भारत में सब पर. धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष सभी परस्पर सम्बंधित और पूरक हैं. इनमें धर्म केंद्र में है. जब राज्य को आर्थिक और राजनैतिक दोनों अधिकार मिल जाते हैं तो धर्म घटता है. स्मरणीय है कि शरीर, बुद्धि, मानस और आत्मा अकेले व्यक्ति के स्तर पर ही नही समाज के स्तर पर भी मौजूद होते है. पश्चिम में समाज सामाजिक संविदा के तहत व्यक्तियों का सहमति से निर्मित समूह है. इसमें व्यक्ति ही समाज का निर्माता है यह विचार अस्वीकार करते हुए उपाध्याय जी समाज के आत्म और जीवन को व्यक्ति की ही तरह संप्रभु मानते हैं. समूह व्यक्तियों का कोई यादृच्छिक योग न हो कर उससे अधिक है. व्यक्ति व्यक्ति के रूप में और समाज के अंश के रूप में समान या भिन्न हो सकता है. व्यक्ति और समाज की सोच में फर्क होता है. यदि कुछ समूह साथ रहें तो उनके मित्रता समानता का भाव भरती है. परन्तु ‘राष्ट्र’ कुछ भिन्न है. उनकी दृष्टि में लक्ष्य (आत्मा ) और मातृभूमि ( शरीर ) तत्व प्रमुख हैं. शरीर से आत्मा निकल जाय वह निष्प्राण हो जायगा.

समाज का आतंरिक स्वभाव ‘चिति’ नैसर्गिक है. यह संस्कृति और इतिहास से अलग है और उसी के अनुरूप देश आगे बढता है. चिति के अनुरूप जो होगा वह संस्कृति में जुड़ेगा. चिति देश की आत्मा है. व्यक्ति भी इस चिति का उपकरण है. राष्ट्र की अवयवभूत संस्थाएं भी राष्ट्रीय लक्ष्य पाने के माध्यम हैं. राष्ट्र और राज्य भिन्न हैं. भारत में राज्य को सामाजिक संविदा से पैदा माना गया जब कि पश्चिम में राजा दैवीय था और समाज संविदा पर टिका था. भारत में इसके उलटा सोचा गया . यहाँ समाज स्वतः जन्मा है. व्यक्ति एकल सत्ता न हो कर बहुलता वाली सत्ता है और अनेक संस्थाओं का सदस्य हो कर व्यक्ति कई तरह की जिन्दगियां जीता है. उसे ऐसे व्यवहार करने चाहिए जो परस्परविरोधी न होकर पूरक हों. व्यक्ति और समाज की संस्थाओं के बीच संघर्ष नहीं होना चाहिए.

परस्पर निर्भरता और पूरकता सभी संस्थाओं के बीच होनी चाहिए. राज्य भी एक संस्था है पर उस अर्थ में समाज संस्था नहीं है. यदि राज्य केंद्र में रहता तो यह राष्ट्र कब का समाप्त हो चुका था. राज्य महत्वपूर्ण है परन्तु सर्वोच्च नहीं. उसकी रचना समाज की रक्षा के लिए की गई थी. राष्ट्र की आत्मा चिति ही सर्वाधिक महत्व की है. उसकी अभिव्यक्ति और संरक्षण के नियम राष्ट्र-धर्म हैं. धर्म ही सर्वोपरि है. उसकी हानि से राष्ट्र नष्ट हो जाता है. यह धर्म रेलिजन या पंथ नही है. धर्म का उपयोग देश, काल, और पात्र के ऊपर निर्भर करता है. धर्म के अनेक रूप हैं. धर्म ही राष्ट्र की रक्षा करता है और सभी संस्थाएं धर्म से ही शक्ति पाती हैं.

राष्ट्र एक प्राणवान सत्ता है, स्वत: उद्भूत. उसे मूर्त आकार देने के लिए संस्थाएं होती हैं. राज्य भी एक संस्था है और अर्थ तंत्र भी. आवश्यक वस्तुओं के उत्पादन, लोगों का विकास, और राष्ट्र का विकास विवेक की अपेक्षा करता है. इच्छाओं पर पश्चिम में कोई नियंत्रण नहीं रहा और उपभोगप्रधान विनाशकारी शैली अपनाई गई जिसमें नई-नई जरूरतें पैदा की जाती हैं. उपाध्याय जी एकात्म मानववाद, सर्वोदय, स्वदेशी, ग्राम-स्वराज और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे विचारों के पुरस्कर्ता के रूप में देशी अर्थ व्यवस्था के माडल के पक्षधर थे जिसमें मनुष्य केंद्र में हो.

इसी के अनुरूप भारत का निर्माण उनका स्वप्न था. वह सांस्कृतिक विरासत के लिए गौरव, वर्तमान का वस्तुपरक मूल्यांकन और उज्जवल भविष्य की आकांक्षा राष्ट्र के विराट रूप को जगाना चाहते थे बिना किसी का अनुकरण किए. ऐसा भारत जो अतीत की उपलब्धियों के पार जाए और हर देशवासी को सतत विकास का अवसर दे. सृष्टि के साथ एकात्म होने की अनुभूति नर से नारायण होने की यात्रा है.

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