घड़ी परीक्षा की है पर हिम्मत न हारें

Girishwar Misra
प्रो. गिरीश्वर मिश्र, पूर्व कुलपति
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय

आज कोरोना की महामारी ने ठण्ड और प्रदूषण के साथ मिल कर आम आदमी की जिन्दगी की मुश्किलों को बहुत बढ़ा दिया है. बहुत कुछ अचानक हो रहा है और उसके साथ जुड़ी चिंता, परेशानी, कुंठा, व्यथा दुःख की विभीषिका की तरह चल रही है. प्रिय जन को खोना, नौकरी छूट जाना, गंभीर रोग, दुर्घटना, त्रासदी जैसे भयानक अनुभव से गुजर कर उठना और आगे बढ़ना एक कठिन चुनौती होती है पर वह असंभव नहीं है.

इस दौरान ऎसी कई कहानियां भी सुनने, पढने या देखने को मिल रही हैं जिनमें लोग कठिन परिस्थिति से उबर कर आगे बढ़ते हैं. ऐसी स्थिति में जब खुद को पाते हैं तो क्या करें? अपनी व्यथा से कैसे पेश आएं? ऐसे सवालों का कोई सीधे-सीधे उत्तर नहीं है. इस हाल में प्रतिरोध या जूझने की क्षमता (रेसीलिएंस) का विचार मदद करता है. जूझने का दम हो तो आदमी जीवन की कठिन परिस्थिति मे या कहें तनाव या त्रासद घड़ी से उबर कर वापस स्वस्थ्य जीवन जी पाता है. इसमें सिर्फ लड़ कर वापसी ही नहीं बल्कि एक तरह का विकास भी पाया गया है. इसमें जीवन के अर्थ और उद्देश्य की खोज, खुद अपनी चेतना का समृद्ध होना और आपसी रिश्तों में सुधार करना भी आता है. कुछ लोग घटना के अनुभव के तुरंत बाद ही सामान्य दशा की और वापसी दिखाते हैं. कुछ लोगों में तनाव और चिंता से निबटने की प्रवृत्ति मूलत: अधिक हो सकती है. वे अपनी भावनाओं को बेहतर ढंग से संभाल सकते हैं. वस्तुत: रेसिलिएंस कोई ऐसी एकल विशेषता न हो कर कौशलों का एक समूह है जिसमे ऐसे व्यवहार और विचार शामिल होते हैं जो सीखने के साथ परिष्कृत होते हैं. साथ ही इसमें सन्दर्भ और माहौल की भी बड़ी भूमिका होती है. बाह्य संसाधनों का मौजूद होना रेसीलिएंस दिखाने की क्षमता के पीछे पमुख कारण होता है. रेसीलिएंस गत्यात्मक होता है. हम सभी जीवन की एक अवस्था में अधिक और दूसरी में कम जुझारू हो सकते हैं.

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यह याद रखना चाहिए कि जुझारू होने का यह अर्थ भी नहीं होता की आप को कोई घाव या चोट ही नहीं लगती है. कुछ न कुछ पीड़ा और व्यथा तो हर किसी के हिस्से में आती है. यह जरूर है कि जुझारू आदमी उसके नकारात्मक असर से उबर जाते हैं. ऐसा आदमी मुश्किलों और कठिनाइयों के साथ संपर्क में रहता है न कि हमेशा अच्छी और सकारात्मक परिस्थितियों में ही रहता है. जीवन की कठिनाइयों और मुश्किलों से दूर रहना सही रास्ता नहीं है. हममें से कई लोगों को बचपन में अक्सर यह सिखाया जाता है की कठिनाइयों और तनावों से बचें या दूर रहें. यह बात सही है कि लगातार तनाव की नकारात्मक स्थिति बने रहने से मानसिक स्वास्थ्य के लिए जोखिम बढ़ जाता है. परन्तु एक हद तक तनाव का अनुभव कठिनाइयों के बीच मजबूती से टिके रहने के लिए जरूरी होता है. यदि कोई जीवन की चुनौतियों का सामना करने से बचता रहता है तो मुश्किल घड़ी में उससे निपटने के लिए जरूरी कौशल ही नहीं पनपेंगे. इसलिए जूझने की जटिल और गत्यात्मक प्रकृति को समझना जरूरी है.

जुझारूपन के लिए हमें अपने आतंरिक और बाह्य संसाधनों को ग्रहण आ आत्मसात करना जरूरी होता है. इस क्रम में सबसे जरूरी है दूसरों से जुड़े रहना. मुश्किल घड़ी में कई लोग शर्म या फिर दूसरों द्वारा आंके जाने के डर दुनिया से मुंह मोड़ लेते हैं. मुश्किल घड़ी में अकेले रहना कोई बेजा बात नहीं है पर यह जरूरी है की एक हद तक दूसरों के साथ संपर्क जरूर बना रहे. यह याद रखना चाहिए कि मित्र और परिजन भी मेलजोल न हो तो मौक़ा पड़ने पर मदद करने से चूक जांयगे. अलग-थलग रहने वालों की तुलना में वे लोग जो दूसरों से जुड़े रहते हैं और रिश्तों को निभाते हैं कठिनाइयों से निपटने में और उन परिस्थितियों से बाहर निकलने में ज्यादा सफल होते हैं. नजदीकी रिश्तों से जो भावनात्मक और संसाधनों की सहायता मिलती है वह तनाव को स्वस्थ्य तरीके से संभालने में काफी मददगार साबित होती है. इसलिए जब मुश्किलें बढ़ती हैं तब उन लोगों की तरफ हाथ बढ़ाना चाहिए जो मदद दे सकते हैं. आप लोगों से बात कर अपनी व्यथा कथा साझा कर सकते हैं. आप दैनिक कार्यों के बारे में सलाह ले सकते हैं . जुझारू लोग इस बात से अवगत होते हैं की वे सारी समस्याओं को अकेले ही हल नहीं कर सकते. यदि किसी को अकेले ही सभी समस्याओं को सुलझाने की आदत है या वह दूसरों पर निर्भरता को कमजोरी की निशानी मानता है तो मुश्किल बढ़ जाती है. सहायता मांगना भी साहस का काम है और यह मानना चाहिए कि गलती करना या कमी होना तो मनुष्य होने की निशानी है.

लोगों से जुड़े रहना बेहद जरूरी है. यदि आप टहलने घूमने जाते हैं तो किसी और को भी अपने साथ ले लें. फोन करने या इ मेल आदि से नियमित संपर्क रखना चाहिए . मित्रों के साथ हास-परिहास भी करना चाहिए. यदि कुछ ऐसे सामाजिक समूह हैं जिनकी रुचि आपसे मिलती-जुलती है तो उनसे जुड़ जाना चाहिए . दूसरों को अनौपचारिक ढंग से या स्वयंसेवी संस्थाओं के जरिये सहायता पहुंचाना भी प्रभावी उपाय है . दूसरों को सहायता पहुंचाना खुश रखता है. जुड़ने के लिए किसी त्रासदी का इंतज़ार नहीं करना चाहिए. यह सुनिश्चित कीजिए कि आपके पास सहयोग और समर्थन देने वाले रिश्ते हों जो आपकी अंतरंगता की इच्छा को पूरा करें. ऐसा करना आपके लिए जुझारूपन की राह खोलेगा. कुछ लोगों की उपस्थिति और सहयोग जिन्दगी की कठिन परिस्थितियों में वरदान साबित होती है.

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अपनी परिस्थिति को स्वीकार करना और उन बातों पर ध्यान देना जो आपके बस में हैं आपकी मुश्किल को आसान बना सकता है. परिस्थिति को स्वीकार करने से दुःख कम हो जाता है. इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि आप भाग खड़े हो रहे हैं. इसका अर्थ है कि जो हो रहा है उसे आप साधारण तरीके से देख पा रहे हैं . ऐसा करते हुए आप अप्रिय अनुभवों को भी रहने देते हैं और स्वीकार करते हैं. इससे आप अपने लिए वह रास्ता चुन सकते हैं जो आपके लिए मूल्यवान है और अपने द्वारा स्वीकृत मूल्यों का पालन भी कर सकते हैं. स्वीकृति की स्थिति में वर्त्तमान में रहते दुःख भरे अनुभवों को उपहार मान कर चल सकते हैं. यह वास्तविकता है कि जिन्दगी के सारे अनुभव प्रिय ही नहीं होते , कुछ पीड़ादायी और कुछ डराने वाले भी होते हैं पर सभी कीमती होते हैं. उन्हें स्वीकृति देने से आगे बढ़ने की राह भी खुलती है. जब कोई दुःख आता है तो यह सोचना चाहिए की इस हाल में क्या किया जा सकता है ? उन मुद्दों और पहलुओं की तरफ ध्यान देना चाहिए जिनको लेकर कुछ करना संभव होता है. सारी सीमाओं और अप्रियताओं के बीच आप ऎसी बातों को खोज सकते हैं जिन पर आपका नियंत्रण है और आप कुछ कर सकने की स्थिति में होते हैं.

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जुझारूपन के लिए पीड़ा के साथ जुड़ने का अभ्यास भी जरूरी होता है. बहुत लोग अप्रिय भावनाओं को परे धकेल कर पीछा छुडाने की कोशिश करते हैं. ऐसा कर कुछ परिस्थति पर काबू पाया जा सकता है पर इसमें पेंच यह है की यदि अपनी बेचैनी को इस तरह कम करने का तरीका अपना लिया जाता है तो लोग नकारने को अपनी युक्ति बना लेते हैं. यह जीवन के तनावों से जूझने की शक्ति के खिलाफ जाता है. यदि भावनाओं को नकारते रहें या फिर उनको रोकने की कोशिश करें तो जिन्दगी का मजा फीका पड जायगा. साथ ही कुछ परिस्थितियों में अपनी भावनाओं को नियमित करने के लिए उनकी उपेक्षा करना ठीक हो सकता है पर उसे आदत नहीं बन जाने देना चाहिए. अपनी भावनओं के साथ एक दूसरे किस्म का रिश्ता बनाना चाहिए . कठिन संवेग की अनुभूति करते समय उन्हें दूर न हटा कर खुद से पूछाना चाहिए कि कैसा महसूस कर रहे हैं. संवेगों को नाम देने से उनकी तीव्रता कम हो जाती है. उनके बारे में उत्सुक रहना चाहिए और ज्यादा जानना चाहिए. यह संवेग क्या बता रहा है ?

इसका उद्देश्य क्या है? अगर किसी ने झूठ बोल कर दुखी किया है तो इसका मतलब हुआ कि आप ईमानदारी को महत्त्व दे रहे हैं. कुछ संवेग कठिन लगते हैं पर हर संवेग की ख़ास भूमिका होती है. वे आपके बारे में और आपके पसंदीदा मूल्य को बताते हैं. यह भी जरूरी है कि अपने विचारों से खुद को दूर बनाए रखें. हम अपने बारे में, अपने रिश्तों के बारे में, या फिर जीवन की घटनाओं के बारे में खुद को कहानी सुनाते हैं. अपने विचारों के आशय समझना चाहिए. बहुत से विचार सिर्फ विचार होते हैं वे पूरी-पूरी सच्चाई नहीं बयान करते. कई बार लोग खुद से जुड़ी घटनाओं को ले कर एक निराशा भरी कहानी खुद से कहते हैं और उसी से चिपक जाते हैं. वे इन विचारों का विश्वास करने लगते हैं . ऐसे विचारों से दूरी बना कर रहना ठीक होता है और उनके चक्कर में न पड़ना ही ठीक होता है. अपनी को कहानी से बाहर निकालना चाहिए और अपने विचारों को सिर्फ विचार ही मानना ठीक होता है न कि पक्का तथ्य.

अपनी कठिनाइयों को चुनौती के रूप में देख़ना भी बड़ा उपयोगी होता है. मुश्किल घड़ी में भी अपने विकास की राह तलाश की जा सकती है. कई लोगों ने महामारी के दौरान घर से काम करते हुए बच्चों के साथ ज्यादा समय बिता पा रहे है. डरे होने के बावजूद आत्ममंथन और मुश्किल वक्त में कैसे जिया जाय इसके गुर भी सीख पा रहे हैं. जो लोग मुश्किलों को चुनौती और विकसित होने के अवसर के रूप में देखते हैं. वे परेशानियों से अच्छी तरह निपट पाते हैं. लोग तनाव और त्रासद परिस्थितियों को नए ढंग से देख समझ कर ऊर्जा और उत्साह पाते हैं.

नकारात्मक स्थिति को बिना नकारे उस परिस्थति को प्रेरणा का माध्यम मान कर उसमें सार्थक अवसर खोजना नई राह बनाता है. आशावादिता, साहस, धैर्य, क्षमा, प्रेम, अध्यात्मिकता, हास्य, अपनी शक्ति का उपयोग, कृतज्ञता तथा दया जैसी भावनाएं स्वास्थ्यवर्धक और कल्याणकारी साबित होती हैं. मुश्किल घड़ी को अवसर बना कर जीवन पथ पर आगे बढ़ना ही मनुष्य की विवेक बुद्धि का तकाजा है.