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Education: शिक्षा के लिए संसाधन चाहिए: गिरीश्वर मिश्र

Education: आज के युग में किसी देश की उन्नति बहुत हद तक वहाँ की शिक्षा की गुणवत्ता पर ही निर्भर करती हैं

Education: आज के युग में किसी देश की उन्नति बहुत हद तक वहाँ की शिक्षा की गुणवत्ता पर ही निर्भर करती है। सूचना, ज्ञान और प्रौद्योगिकी की स्पर्धा में ज्यादा से ज्यादा बढ़त पाने को सभी देश आतुर हैं। आज जब देश ‘सशक्त’ और ‘आत्म निर्भर’ बनने को तत्पर हो रहा है तो शिक्षा की दशा-दिशा पर विचार और भी जरूरी हो जाता है। हालाँकि भारत ने विद्या, ज्ञान और शिक्षा का भौतिक और पारमार्थिक दोनों स्तरों पर महत्व बहुत पहले ही पहचान लिया था।

ज्ञान सबसे पवित्र माना गया था और ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में जितनी प्रगति थी उसकी बदौलत भारत को ‘विश्व गुरु’ का दर्जा भी मिला था। परंतु औपनिवेशिक काल में शिक्षा पर ऐसा ताला पड़ा और ज्ञान परंपरा को ले कर जो संशय और उदासीनता पैदा हुई उसके चलते हम ज्ञान के क्षेत्र में उधारी पर कमाई करने वाले होते गए।

इस माहौल में ज्ञान के क्षेत्र में परनिर्भरता सुदृढ़ होती गई । हम पश्चिम (यूरो-अमीरीकी माडल) को एकल, मानक और वैश्विक विकल्प मान बैठे और शेष को उससे विचलन मान लिया। गौरतलब है कि उपनिवेश बनने के पहले भारत विश्व में अधिक समृद्ध देशों में से एक था और यहाँ विश्वस्तरीय शिक्षा केंद्र भी थे जिन्हें आक्रांताओं ने नष्ट किया था।

औपनिवेशिक दाय की स्वीकृति के साथ नव उदारवादी माहौल में हम ज्ञान विज्ञान की पराई दृष्टि में जकड़ते ही चले गए। हमारी पूरी शिक्षा ज़्यादातर अनुकरणमूलक होती गई जिसमें सर्जना शक्ति को हाशिए पर बैठा दिया। बाहर से आरोपित होने के कारण शिक्षा और समाज का ठीक तालमेल भी नहीं हो सका।

आज यदि शिक्षा के प्रति संशय और अन्यमनस्कता है तो इसका एक बड़ा कारण शिक्षा की विषयवस्तु और प्रक्रिया की दुर्बलता और देश के संदर्भ से उसका कटा होना भी है। सरकारी नीति में शिक्षा की लगातार उपेक्षा होती रही और भेद-भाव बना रहा। बजट में जो बचा खुचा होता है शिक्षा को मिलता है। आज आँगन वाड़ी, प्राथमिक विद्यालय, हाई स्कूल, माध्यमिक विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय जैसी संस्थाओं में अधिकांश की स्थिति संसाधनहीनता और अव्यवस्था के चलते नाज़ुक होती जा रही है।

यह खेदजनक है कि यह जानते हुए भी कि शिक्षा सामाजिक गतिशीलता, आर्थिक उन्नति, रोज़गार के अवसर और सांस्कृतिक विकास की कुंजी है इसे देश की विकास-योजना में कभी भी वह जगह नहीं मिली जो उसे मिलनी चाहिए थी। फलतः शिक्षा में ज़रूरी निवेश नहीं हुआ, फिर सरकार इससे अपने हाथ भी खींचने लगा, निजी क्षेत्र हाबी होने लगा, शिक्षा बाज़ार के हवाले होती गई और अब वह बाज़ार का मुकम्मल हिस्सा बन चुकी है। फिर शिक्षा का व्यापार शुरू हो गया, सभी बड़े व्यापारी शिक्षा की दूक़ानें खोलने लगे। शिक्षा की जो भी सरकारी या जन-संरचना थी वह चरमरा कर ध्वस्त होने लगी।

निजी क्षेत्र में शिक्षा का तीव्र विस्तार जिस तरह हो रहा है उसके कई परिणाम हो रहे हैं। सम्पन्न घरों के छात्र ऊँची फीस दे कर वहां पढाई कर रहे हैं। दिल्ली के आस पास अशोका, अमिटी, शिव नाडार और जिन्दल के विश्वविद्यालय जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर लाने की कोशिश हो रहे हैं वहाँ शैक्षिक असमानता का एक नया आयाम उभर रहा है। यही हाल पुणे, बैंगलुरु और अन्य महानगरों का भी है। निजी विश्वविद्यालय सरकारी विश्वविद्यालयों की तुलना में कई-कई गुनी फीस ले कर असंख्य पाठ्यक्रमों की पढाई कर रहे हैं। उनकी नीति और नियम अपने ही ढंग के हैं।

ऐसे में संविधान द्वारा शिक्षा के अधिकार सबको देने के बावजूद शिक्षा के अवसर आर्थिक स्थिति से जुड़ते गए। आज हर स्तर पर शिक्षा संस्थाओं की जातियां और उप जातियां खड़ी होती जा रही हैं। शिक्षालय के साथ कोचिंग की विराट संस्थाएँ खड़ी होती गईं और सामान्य विद्यालयी शिक्षा की उपयुक्तता जन-मानस में संदिग्ध होती गई। फ़िलहाल जैसे तैसे प्रवेश और परीक्षा को निपटाना ही शिक्षा के प्रथम और अंतिम लक्ष्य बने चुके हैं।

आज भारत के प्रतिभाशाली और आर्थिक औक़ात वाले विद्यार्थी अवसरों की तलाश में बड़े पैमाने पर विदेश की ओर रुख़ कर रहे हैं। इसका कारण भारत में शिक्षा की गुणवत्ता का निरंतर ह्रास है। युवा वर्ग महत्वाकांक्षी है, वह आगे बढ़ना चाहता है। पढ़-लिख कर बहु राष्ट्रीय कंपनियों में ऊँची पगार पर काम करने के अवसर उनको आकृष्ट करते हैं और देश को उनका लाभ नहीं मिल पाता है। यह देख कर कि विश्व की अनेक बड़ी आई टी कंपिनियाँ भारतीय चला रहे हैं मन को थोड़ी संतुष्टि और गौरव-बोध होता है पर यह सोच कर दुःख होता है कि ऐसी प्रतिभाओँ के लिए हम शिक्षा और कार्य के अवसर नहीं जुटा पा रहे हैं।

औपचारिक शिक्षा भारतीय मूल से भी कटती गई और हम अपने आप से बिछुड़ते गए। आज इक्कीसवीं सदी हमारे सामने एक वैश्विक दुनिया प्रस्तुत करती है जिसमें संचार और यातायात की क्रान्ति देश काल को नए ढंग से संयोजित कर रही है। टी वी, मोबाइल, लैप टाप, आई पैड आदि सूचना के लेन -देन और उनको उपयोग में लाने के अवसरों में अभूतपूर्व क्रांति ला रहे हैं। इनके अच्छे बुरे असर अब बच्चों और किशोरों में दिखने लगे हैं।

यहाँ पर यह भी गौरतलब है कि युवा वर्ग का जनसंख्या में अनुपात की दृष्टि से भारत युवतम देश हो रहा है। यह उत्पादकता, क्षमता और राष्ट्र-निर्माण का अनोखा अवसर बन रहा है। कुशल और सुसंस्कृत युवा सचमुच भारत का कायापलट करने में सक्षम हो सकता है बशर्ते उसे निपुण और ज्ञान-सम्पन्न बनाया जाय। परंतु स्थिति निरंकुशता की हो रही है और स्वच्छंदता के साथ शिक्षा के नाम पर ऐसा बहुत कुछ अवांछित भी हो रहा है।

चूँकि शिक्षा की उपेक्षा संभव नहीं है इसलिए जब तब कुछ कुछ होता रहा है पर गम्भीर पहल नहीं हो सकी । यदि कुछ हुआ भी तो लड़खड़ाते ढांचे, राजनैतिक हस्तक्षेप और भ्रष्टाचार के चलते सार्थक परिणाम नहीं दे सका। आज भारी भरकम और अंशत: अनुपयोगी विषय वस्तु और सामग्री के साथ बचपन से ही शिक्षा का खिलवाड़ शुरू हो जाता है।

पुस्तकों का ज्यादा भार, सांस्कृतिक संवेदना का विकास, चरित्र निर्माण और मातृभाषा में आरम्भिक शिक्षा जैसे मामलों में हम तमाशबीन बने हुए हैं। उच्च शिक्षा में अनियंत्रित विस्तार और कुशलता के अभाव के चलते बेरोजगारों की फौज बढ़ती जा रही है। इस स्थिति में सुधारों का सिलसिला कब शुरू होगा किसी को पता नहीं पर ज़मीनी हालात बेकाबू से हो रहे है।

शिक्षा का आयोजन ज्ञान की अभिवृद्धि, समाज के मानस-निर्माण, शर्म की कुशलता, उत्पादकता तथा सांस्कृतिक और सर्जनात्मक उन्मेष जैसे कई सरोकारों से सीधे-सीधे जुड़ा हुआ है । इसलिए शिक्षा को लेकर सबके के मन में आशाएँ पलती रहती हैं । पिछले सात दशकों में शिक्षा केन्द्रों की संख्या तो जरूर बढी है पर उतनी नहीं जितनी चाहिए। इस बीच शिक्षा-तंत्र कई तरह के विकारों से ग्रस्त भी होता गया है जिनको सहते हुए शिक्षा अपने लक्ष्यों को पाने में पिछड़ती रही है।

सरकारी नीति के मुताबिक़ यदा-कदा टुकड़े-टुकड़े कुछ-कुछ तदर्थवादी सोच (एडहाकिज़्म) के साथ किया भी जाता रहा है जिनके मिश्रित परिणाम हुए हैं । भारत में शिक्षा की गहराती चुनौतियों पर विचार कर वर्तमान सरकार ने शिक्षा नीति लाने की पहल की। उसके तहत इन प्रश्नों पर ध्यान दिया गया है पर इक्कीसवीं सदी के लिए भारत की तैयारी के लिए जो संलग्नता और प्रयास होने चाहिए, कार्य योजना पर अमल भी करना होगा। अभी तक सरकार की ओर से शिक्षा में न पर्याप्त निवेश हो सका है और न व्यवस्था ही कारगर हो सकी।

नई शिक्षा नीति के तहत अमल करते हुए कई कदम उठाए जा रहे हैं। अनुमान किया जाता है कि बन रहे पाठ्यक्रम से ज्ञान, कौशल और मूल्य को संस्कृति और पर्यावरण के अनुकूल ढालने के उद्यम को सहयोग मिलेगा। उससे अपेक्षा है कि नए पाठ्यक्रम नौकरी, नागरिकता, संस्कृति और प्रकृति सभी के लिए प्रासंगिक होगा। वह भारतकेन्द्रित होने के साथ-साथ वैश्विक दृष्टि से भी सम्पन्न होगा।

मातृभाषा को माध्यम के रूप में और भारतीय ज्ञान परम्परा को अध्ययन-विषय के रूप में प्रमुखता से स्थान मिलेगा। यह सब कैसे और कब होगा यह भविष्य के गर्भ में है। अगले पचीस वर्ष के ‘अमृत काल’ की अवधि में एक नए भारत (न्यू इंडिया!) के स्वप्न को साकार करने के लिए अच्छी शिक्षा बेहद जरूरी है।

यह एक निर्णायक दौर होगा जिसे अवसर में बदलने के लिए शिक्षा में गुणात्मक सुधार लाना होगा। अमृत-काल का लाभ तभी होगा यदि मरणशील शिक्षा को संजीवनी मिलेगी। आशा है आगामी बजट शिक्षा को वरीयता देगा और उसके विभिन्न अवयवों के लिए समुचित संसाधन उपलब्ध कराने की व्यवस्था करेगा। नए भारत के लिए शिक्षा की सुधि लेनी ही होगी।

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