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हम भारत के लोग

Banner Mohit Upadhyaya

भारतीय संविधान की प्रस्तावना “हम भारत के लोग” शब्दों से शुरू होती हैं जो इस बात का प्रतीक है कि भारतीय संविधान का स्रोत जनता है और राजनीतिक शक्ति अंतिम रूप से जनता में निहित है। प्रस्तावना किसी भी संविधान का सार होती है जिसमें उस संविधान के अंतिम लक्ष्यों का उल्लेख किया जाता है। संविधान की मूल प्रस्तावना में भारत को संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न एवं लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया है जिसका तात्पर्य यह है कि भारत अपने निर्णय लेने में पूर्ण रूप से स्वतंत्र है और किसी विदेशी हुकूमत के निर्णयों या आदेशों को राष्ट्रहित के प्रतिकूल पाए जाने पर स्वीकार करने से इंकार कर सकता है अर्थात भारत की सरकार किसी बाह्य दबाव में ऐसी कोई सन्धि या निर्णय लागू नहीं करेगी जो भारत की जनता के अनुकूल न हो।

वहीं लोकतांत्रिक गणराज्य से तात्पर्य है कि शासन व्यवस्था को लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अनुरूप संचालित किया जाएगा और संवैधानिक अध्यक्ष के रूप में राष्ट्रपति का चुनाव देश की जनता द्वारा किया जाएगा। चाहे वह प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष परंतु राष्ट्रपति का पद ब्रिटेन के समान वंशानुगत नहीं होगा। भारतीय संविधान में प्रत्येक नागरिक को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रदान की गई है तथा सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय को सुनिश्चित किया गया है। भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को स्वीकार किया गया है परंतु ब्रिटेन के समान भारत में संसद प्रभुत्वसंपन्न नहीं है बल्कि संविधान को सर्वोच्चता प्रदान की गई है। भारतीय में लोकतंत्र के तीनों आधारभूत स्तंभ अर्थात विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के लिए शक्ति का एकमात्र स्रोत संविधान है। संविधान निर्माताओं द्वारा न्यायपालिका को संविधान के संरक्षक के तौर पर मान्यता प्रदान की गई है जिसका तात्पर्य यह है कि यदि विधानमंडल कोई ऐसी विधि बनाती है या कार्यपालिका कोई ऐसा आदेश जारी करती है जो संविधान द्वारा अधिरोपित मर्यादाओं के प्रतिकूल है या संविधान का अतिक्रमण करता है तो न्यायपालिका ऐसे किसी विधि या आदेश को न्यायिक पुनराविलोकन की शक्ति का प्रयोग करते हुए असंवैधानिक या शून्य घोषित कर सकती है और व्यवहार में न्यायपालिका संविधान निर्माताओं द्वारा प्रदत्त इस शक्ति एवं उत्तरदायित्व का समय एवं परिस्थितियों के अनुसार युक्तियुक्त ढंग से निर्वहन कर रही है। उल्लेखनीय है कि भारतीय संविधान में न्यायपालिका को प्रत्यक्ष रूप से न्यायिक पुनराविलोकन की शक्ति प्रदान नहीं की गई है परंतु भारतीय संविधान के लिखित होने के कारण न्यायपालिका को यह शक्ति स्वयं ही प्राप्त हो जाती है। इसके अलावा संविधान के अनुच्छेद 13 के खंड (2) में यह प्रावधान किया गया है कि “राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाईं गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी” अर्थात संविधान का यह अनुच्छेद न्यायपालिका को न्यायिक पुनराविलोकन की शक्ति प्रदान करता है।

भारतीय संविधान यह स्पष्ट रूप से उल्लेख करता है कि राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा और धार्मिक क्रियाकलापों में राज्य कोई विभेद नहीं करेगा। इससे साबित होता है कि संविधान निर्माताओं का मंतव्य भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के तौर पर स्थापित करना था और संविधान निर्माताओं अपने इस लक्ष्य को प्राप्त करने में पूरी तरह सफल साबित हुए है क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 25 में प्रत्येक व्यक्ति को अंत: करण की स्वतंत्रता और किसी भी धर्म को मानने और अबाध रूप से उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता प्रदान की गई है परंतु धर्म की यह स्वतंत्रता अबाध नहीं है क्योंकि इस स्वतंत्रता पर लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के आधार पर राज्य निर्बंधन अधिरोपित कर सकता है। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों के रूप में धर्म और भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को बनाए रखने तथा अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं को स्थापित करने का अधिकार प्रदान किया गया है। वहीं शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश से किसी भी नागरिक के विरुद्ध धर्म, मूलवंश, जाति या इनमें से किसी भी आधार पर विभेद नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 350 क में यह प्रावधान किया गया है कि राज्य भाषाई अल्पसंख्यक वर्गों के बालकों के लिए शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा की सुविधाएं प्रदान करने का प्रयास करेगा। अनुच्छेद 350 ख में राष्ट्रपति से यह अपेक्षा की गई है कि वह भाषाई अल्पसंख्यक वर्गों के कल्याण के लिए एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति करेगा। गौरतलब है कि भारतीय संविधान में धर्म या भाषा के अलावा अन्य किसी आधार पर अल्पसंख्यक वर्गों को परिभाषित नहीं किया गया। भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक वर्गों के लिए जो विशेष प्रावधान किए गए हैं उस पर “आइवरी जेनिंग्स” की यह टिप्पणी अनुचित प्रतीत होती है कि “भारतीय परिसंघ का जो विशेष लक्षण है वह यह है कि इसमें अल्पसंख्यकों के दावों की पूर्णतया उपेक्षा की गई है।”

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अनुसूचित और जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन की बाबत भारतीय संविधान के अनुच्छेद 244 के खंड (1) और (2) में विशेष प्रावधान किए गए हैं। भारतीय संविधान के निर्माताओं द्वारा अपनी विलक्षण प्रतिभा एवं दूरदर्शिता का परिचय देते हुए और सामाजिक सद्भाव की स्थापना के लिए और सामाजिक एवं राजनीतिक क्षेत्र में समता एवं न्याय स्थापित करने के लिए अस्पृश्यता का अन्त कर दिया गया है और ऐसा कोई आचरण दण्डनीय होगा। वहीं औपनिवेशिक शासन काल के अनुभवों के आधार पर मानव के दुर्व्यापार, बेगार तथा बलात् श्रम को प्रतिषिद् कर दिया गया है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 में यह प्रावधान किया गया है कि राज्य किसी भी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी भी आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। यह विश्व का अनोखा संविधान है जिसमें मूलवंश के आधार पर विभेद को प्रतिषिद् किया गया है। अक्सर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि भारतीय संविधान संघीय संविधान हैं या एकात्मक! दरअसल भारतीय संविधान में संघ को विधायी, वित्तीय और कार्यपालिका विषयों की बाबत इतनी अधिक शक्ति प्रदान की गई है कि कभी कभी ऐसा अनुभव होता है कि राज्य संघ की दया पर निर्भर है। इस बात को स्वीकार करने से इंकार नहीं किया जा सकता है कि संविधान निर्माताओं के पास औपनिवेशिक शासन काल का एक लंबा अनुभव था और इस संदर्भ में उन्होंने भारत की एकता एवं अखंडता को बनाए रखने के लिए राज्यों की अपेक्षा संघीय सरकार को अधिक योग्य समझा इसीलिए राज्य विधानमंडलों की अपेक्षा संघीय सरकार को अधिक अधिकार प्रदान कर शक्तिशाली बनाने का प्रयास किया गया। भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ भीमराव अम्बेडकर ने इस संदर्भ में कहा है कि “यह एक संघीय संविधान है, क्योंकि यह दोहरे शासनतंत्र की स्थापना करता है, जिसमें केंद्र में संघीय सरकार तथा उसके चारों ओर परिधि में राज्य सरकारें हैं जो संविधान द्वारा निर्धारित निश्चित क्षेत्रों में सर्वोच्च सत्ता का प्रयोग करती हैं।” इसके अलावा भारत के सर्वोच्च न्यायालयों ने भी अनेक मामलों में अपना यह मत निर्धारित किया है कि भारतीय संविधान एक संघीय संविधान है। किसी भी संविधान की संघीयता का निर्धारण कुछ मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर किया जाता है। पहला, द्वैध शासन अर्थात केंद्र और राज्यों की सरकार। दूसरा, केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण। तीसरा, संविधान की सर्वोच्चता। चौथा, न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता। इस संदर्भ में यह साबित होता दिखाई पड़ता है कि भारतीय संविधान संघीय संविधान के उपरोक्त वर्णित मूलभूत सिद्धांतों की शर्तों पर खरा उतरता है इसीलिए यह कहना अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं होगा कि भारतीय संविधान एक संघीय संविधान है। 

प्रत्येक भारतीय के लिए यह गर्व का विषय है कि भारतीय संविधान विश्व का सबसे विशाल एवं लिखित संविधान है। अक्सर भारतीय संविधान पर यह आरोप लगाया जाता है कि यह उधार का थैला है। निस्संदेह यह सत्य है कि भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा विश्व के अलग अलग संविधानों से अलग अलग प्रावधानों को संविधान के स्रोत के रूप में शामिल किया गया है परंतु इन प्रावधानों को शामिल करने में भारतीय परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा गया है। ऐसा नहीं है कि इन स्रोतों को ठीक उसी रूप में भारतीय संविधान में शामिल किया है जिस रूप में वह प्रावधान संदर्भित देश के संविधान में शामिल था। उदाहरण के लिए भारत ने ब्रिटिश संसदीय शासन व्यवस्था को अपनाया है परंतु ब्रिटेन में संसद सर्वोच्च है जबकि भारत में संसद की शक्ति को संविधान द्वारा मर्यादित किया गया है। स्वतंत्रता के समय में जब देश की जनसंख्या का एक बड़ा भाग सामान्य अक्षरों को भी पहचान नहीं पाता था उस समय संविधान निर्माताओं द्वारा अपनी दूरदर्शिता एवं भारतीय जनता की राजनीतिक चेतना पर भरोसा व्यक्त करते हुए संविधान के अनुच्छेद 326 में सार्वजनिक व्यस्क मताधिकार प्रदान किया गया और संविधान निर्माताओं की इस दूरगामी सोच के परिणामस्वरूप वर्तमान में भारत विश्व के सबसे विशाल लोकतंत्र के रूप में जाना जाता है। संविधान निर्मात्री सभा द्वारा संविधान निर्माण का कार्य 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में पूरा किया गया। इस दौरान संविधान सभा के कुल 11 सत्र हुए। संविधान सभा के इन ग्यारह सत्रों में 165 दिन खर्च हुए। इनमें से सभा ने 114 दिन संविधान के मसौदे पर विचार करने में खर्च किए। मूल संविधान में 395 अनुच्छेद, 22 भाग एवं 8 अनुसूची शामिल थी। संविधान निर्माण के इस जटिल एवं अद्भुत कार्य की महत्ता को व्यक्त करते हुए पं जवाहर लाल नेहरू ने कहा है कि इस काम को कारगर ढंग से तभी पूरा किया जा सकता है जब राजनीतिक और मनौवैज्ञानिक परिस्थितियां मौजूद हों तथा इसकी प्रेरणा और आग्रह के पीछे जनता खड़ी हो। 

26 जनवरी 1950 से लेकर आज तक भारत का संविधान सुचारू रूप से गतिशील है और इस प्रकार संविधान निर्माताओं के उद्देश्यों एवं उम्मीदों पर सफल साबित होता दिखाई पड़ रहा है परंतु यह एक स्थापित सच्चाई है कि किसी भी संविधान की सफलता या असफलता उस संविधान को क्रियान्वित करने वाले लोगों पर निर्भर करती है। इस संदर्भ में डा भीमराव अम्बेडकर का यह कहना एकदम सत्य दिखाई पड़ता है कि एक संविधान की कार्यप्रणाली संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करती है। एक बुरा संविधान भी अच्छा साबित हो सकता है यदि उसे लागू करने वाले लोग अच्छे हो और एक अच्छा संविधान भी बुरा साबित हो सकता है यदि उसे लागू करने वाले लोग बुरे हों।

*मोहित कुमार उपाध्याय,राजनीतिक विश्लेषक एवं अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं. प्रकाशित लेख उनके निजी विचार हैं।