covid 19 virus

कोरोना काल में स्वास्थ्य की चुनौती के निजी और सार्वजनिक आयाम

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आजकल का समय स्वास्थ्य की दृष्टि से एक घनी चुनौती बनता जा रहा है जब पूरे विश्व में में मानवता के ऊपर एक ऐसी अबूझ महामारी का असर पड़ रहा है जिसके आगे अमीर गरीब सभी देशों ने हाथ खड़े कर दिए हैं. सभी परेशान है और उसका कोई हल दृष्टि में नहीं आ रहा है. इस अभूतपूर्व कठिन घड़ी का एक व्यापक वैश्विक परिदृश्य है जहाँ पर किसी दूर बाहर के देश से पहुंच कर एक विषाणु चारों ओर संक्रमण फैला रहा है और जान को जोखिम में डाल रहा है और उस पर काबू पाने की कोई हिकमत कारगर नहीं हो रही है. पूरे विश्व में हाहाकार मचा हुआ है. ऐसे में हम अपने को कैसे स्वस्थ रखें यह बड़ी चुनौती बन रही है. पर जब हम विचार करते हैं तो यह प्रश्न खड़ा होता है कि हम अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिए कितने तत्पर हैं? यह सही है कि स्वास्थ्य केवल अपने ऊपर ही नहीं बल्कि व्यक्ति और परिवेश इन दोनों की पारस्परिक अंत:क्रिया पर निर्भर करता है. अपने परिवेश को देख समझ कर भारी अंतर्विरोध अनुभव होता है कि लॉक डाउन के दौर में हमारा परिवेश सकारात्मक रूप से प्रभावित हुआ , प्रदूषण कम हुआ, हवा और पानी की गुणवत्ता ठीक हुई , पेड़ पौधों का स्वास्थ्य ठीक होने लगा पर अब फिर लाक डाउन से छूट मिलने के साथ हालात बिगड़ने लगे हैं. दे श की राजधानी दिल्ली पराली के धुंए से प्रदूषण के चरम पर पहुँच रही है.

कोरोना की आकस्मिक आपदा का मुकाबला करने के लिए कोई भी देश पूरी तरह से तैयार नहीं था. आज अनिश्चित भविष्य को ले कर सभी विवश मह्सूस कर रहे हैं. इस अति संक्रामक और प्राणघातक विषाणु ने वैश्विक स्तर पर व्यापार-व्यवसाय को अस्त व्यस्त कर आर्थिक गतिविधियों को पीछे धकेल दिया है. देशों के बीच के आर्थिक राजनीतिक रिश्तों के समीकरणों को पुन:परिभाषित करने के लिए मजबूर किया है तो दूसरी ओर सभी देशों के आन्तरिक जीवन की लय और गति को भी छिन्न-भिन्न किया है. चूंकि संक्रमित व्यक्ति के साथ किसी भी तरह से सम्पर्क में आने वाला व्यक्ति दूसरों के लिए संक्रमण का वाहक बन जाता है इसलिए संक्रमण का क्रम अबाध रूप से आगे बढता जाता है. इसकी कड़ी को तोड़ना बड़ी चुनौती बन रही है और विषाणु के संक्रमण की संभावनाएं कम होती नहीं दिख रही हैं. दुर्भाग्य से इस रोग की सर्दी , जुकाम और बुखार जैसे सामान्य लक्षणों के साथ साम्य इतना अधिक है कि इसका पता चलना भी सरल नहीं है और लोग इसे प्रकट करने से भी बच रहे हैं हालांकि समय पर उचित उपचार पा कर संक्रमित लोग स्वस्थ हो कर घर भी लौट रहे हैं. अत: इस रोग के विषय में किसी पूर्वनिश्चित दुराग्रह को पाल कर उपेक्षा करना किसी के भी हित में नहीं है.

Girishwar Misra
प्रो. गिरीश्वर मिश्र, पूर्व कुलपति
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय

चूंकि यह विषाणु नया है इसके स्पष्ट उपचार की कोई निश्चित औषधि अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी है. चिकित्सा जगत में इसे ले कर देश विदेश में चारो ओर तीव्र गति से अनुसंधान जारी है पर व्यवस्थित उपचार और सुरक्षित टीके की खोज में अभी समय लगेगा . किसी टीके या सुनिश्चित दवा के अभाव में संक्रमण को बढने से रोकने के लिए लोगों के बीच संसर्ग पर रोक ही एक मात्र उपाय है . इसे ध्यान में रख कर पूरे देश में लाक डाउन का निर्णय लिया गया. इसके चलते कठिनाइयों के बावजूद सबने इसका स्वागत किया और इस प्रयास के अच्छे परिणाम भी मिले. परंतु सामाजिक दूरी के निर्देश का ठीक से पालन न करने की स्थितियां भी कई जगह दिखीं. अधिक संसर्ग के फलस्वरूप संक्रमण की संभावना किस तरह तेजी से बढती है इसका प्रमाण देश के विभिन्न क्षेत्रों से लगातार और बार-बार मिलता रहा . इस तरह के गैर जिम्मेदार आचरण के चलते संक्रमण पर नियंत्रण में कठिनाई आने लगी.

जब हम अपने ऊपर विचार करते हैं तो हमें लगता है कि कुछ विशेष तरह का परिवर्तन ले आना अब आवश्यक हो गया है. जीवन में चुनौतियाँ और समस्याएं बनी रहती हैं, तनाव भी बने रहते हैं . इन सबके लिए आवश्यक है कि हम अपने आप को कैसे संचालित करें? हमको अपने इम्यूनसिस्टम या प्रतिरक्षा तंत्र को कैसे सबल बनाएं? तमाम अध्ययनों के परिणामों से ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जिस व्यक्ति में प्रतिरक्षा तंत्र सुदृढ़ है वह कोविड – 19 की लड़ाई में सक्षम साबित हो रहा है. साथ ही यह भी बड़ा आवश्यक है कि हम अपनी दिनचर्या को व्यवस्थित बनाएं रखें. हम सो कर कब उठते हैं, कब भोजन करते हैं, कब अध्ययन करते हैं और घर के काम में किस तरह हाथ बंटाते हैं इनका नियम से पालन किया जाय. इसके साथ ही साथ यह भी आवश्यक है कि शरीर के श्रम के ऊपर ध्यान दिया जाय. लॉक डाउन की स्थिति में प्रायः लोग एक ही जगह बने रहते हैं , बैठे रहते हैं, सोये रहते हैं यानी पड़े रहते हैं और यह शरीर के स्वास्थ के लिए हानिकर है और इससे कई तरह की कठिनाइयां पैदा हो सकती हैं. इसके साथ ही साथ यह भी आवश्यक है कि संतुलित आहार लिया जाय. अर्थात अपने शरीर, मन और कार्य के बीच में एक संतुलन स्थापित किया जाय.

अतीत की चिंता करते हुए उसी में खोये रहने से समस्या बढती है. हमें उससे भी मुक्त होना चाहिए. मनुष्य अपने भविष्य के बारे में विचार कर सकता है. चुनौती और तनाव के इस दौर में हमको नई राह और नए विकल्प ढूढने चाहिए और उसके आधार पर हमारी समस्याओं के समाधान विकसित हो सकते हैं. इसके लिए अपने आप में आत्मविश्वास चाहिए. पर अपनी क्षमताओं को लेकर दृढ़ निश्चय से अपने ऊपर कार्य करने पर ही मार्ग मिलेगा.इसके लिए ध्यान केन्द्रित करने का प्रयास करना चाहिए. अपनी शक्ति को, अपनी उर्जा को कैसे बनायें रखे इसके लिए, योग और ध्यान ( मैडिटेशन) लाभकर हैं. योग और ध्यान के माध्यम से आप एकाग्रता भी ला सकते हैं और आप में साहस का भी संचार होगा. तब आपकी क्षमता भी बढेगी. स्वस्थ्य शरीर अगर है तभी स्वस्थ्य मन और स्वस्थ्य बुद्धि होगी. इसके लिए मन में अच्छे विचार आने चाहिए . आप जिस किसी भी धर्म का पालन करते हैं, जिस गुरु के विचार को मानते हैं. कोशिश करें कि उसे सुनिए और सकारात्मक विचार लाएं. इनसे जीवन में सुगमता बढेगी, सहजता बढेगी, सरलता बढेगी. हमारे मनोभाव विस्तृत होंगे और मोह (अटैचमेंट)कम होंगे जो तमाम तरह के भय, क्रोध, घृणा और द्वेष पैदा करते हैं.

हमें अपने लिए प्रेरणा पाने की कोशिश करनी चाहिए और ऊर्जा का संचार लाना चाहिए. व्यक्ति अपने लिए ऐसे लक्ष्यों को सुनिश्चित कर उनकी दिशा में सक्रिय हो सकते हैं जो प्राप्त किये जा सके. छोटे लक्ष्य बना कर उन्हें एक-दिन में दो दिन में पूरा करने से स्फूर्ति अएगी. इस प्रसंग में समुदाय या समूह के साथ जुड़ कर उनके साथ संपर्क बनाए रखना भी जरूरी है . आज कल बहुत सारे ऐसे सोशल मीडिया के उपय उपलब्ध हैं जिनके आधार पर यह काम सरलता से हो सकता है. य्ह जरूर है कि सोशल मीडिया के व्यसन से बचा जाय . सम्पर्क से सहयोग की भावना पैदा होगी और अकेले पन की समस्या भी कम होगी. आज की परिस्थिति में सामाजिक दूरी बनाएं रखने को आवश्यक माना जा रहा है और यह संक्रमण की संभावना को घटाती है. पर दूसरी ओर भावनात्मक दूरी को कम करना हितकर नहीं होगा. यह जरुरी होगा कि हमारे मन में जो विचार आयें, जो कार्य हम करें, उनमें व्यक्ति के साथ समाज की चिंता भी शामिल हो. यह कटु सत्य है कि हम प्राय: व्यक्तिवादी होते जा रहे हैं और समाज के हित की कम होती जा रही है. पर लोक हित का ध्यान नहीं करेंगे तब तक हमारा निजी हित भी संभव नहीं होगा. साथ ही वास्तविकताओं को स्वीकार करना भी सीखना चाहिए. हम यदि संयम से काम लें और उपलब्ध साधनों का ठीक से उपयोग करें तो समय का हम अच्छी तरह से उपयोग करते हुए कुछ सृजनात्मक कार्य भी कर सकते हैं.

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कोरोना वायरस से बचने के लिए हमारे लिए स्वयं को स्वच्छ रखना अनिवार्य है. कहा जाता है कि अपने हाथ धोइए, बार-बार हाथ धोइए और यह कोशिश करिए कि विषाणु का संपर्क न हो. आपका स्वास्थ्य आप ही के हाथ में है यब बात सब लोग जानते हैं लेकिन जब सामान्य रूप से काम चलता रहता है तब हमें स्वास्थ्य की चिंता नहीं रहती है . आज के कठिन समय में बाजार में जंक फ़ूड और फास्ट फूड की दुकाने बंद हैं और सब लोग खान पान में बदलाव ला रहे हैं. यह समय अपने उचित आहार, अच्छे व्यवहार और सामाजिकता की आदत ढालने और अपनी जीवन शैली में परिवर्तन ले आने के लिए आमंत्रित कर रहा है जो दीर्घकाल तक लाभकारी हो सकती है. अपने को संस्कार देने का प्रयास करना होगा. बदलाव बाध्यता न हो बल्कि हमारा स्वयं का निर्णय हो. अपने जीवन के लिए ‘मेन्यु’ मेन्यु आप बना कर भविष्य संवारने की आवश्यकता है.

वस्तुत: स्वास्थ्य आपके हाथ में है और स्वास्थ्य कोई ऐसी स्थिति नहीं है कि वहां पर आप एक बार पहुँच गए तो हमेशा स्वस्थ्य रहेंगे. स्वास्थ्य एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है जैसे आप निरंतर साँस ले रहे हैं. तो यह साँस लेना इस पर निर्भर करेगा कि आपको वायु कैसी प्राप्त हो रही है? और आपके शरीर की क्षमता कैसी है? कोरोना के जो मरीज हैं उनके फेफड़े में इतनी क्षमता ही नहीं है तो उनको वेंटीलेटर में रखा जाता है ताकि उनको वायु पहुँच सके. शरीर ही उनका काम नहीं कर रहा है. ठीक से अंग ही नहीं काम नहीं कर रहे हैं. यदि शरीर का अंग काम न करे और बाहर वायु हो या फिर शरीर काम करे लेकिन बाहर वायु न हो, दोनों स्थितियां गड़बड़ हैं. इसलिए दोनों पर ध्यान देना पड़ेगा . अपने व्यवहार और अपने आचरण के द्वारा हमको अपने कार्य की क्रिया, दिनचर्या, आहार-विहार इन सबको नियमित करना होगा. यह हमारे हित में है और समाज के हित में भी है.

स्वस्थ मानसिकता की तलाश : आत्म दीपो भाव !

इसमें कोई संदेह नहीं कि आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा नाना प्रकार के ज्ञान और कौशलों की दृष्टि से मनुष्य को सम्पन्न बनाती जा रही है. इसके हस्तक्षेप से भौतिक परिवेश तेजी से बदल रहा है और देश काल का अनुभव सिकुड़ता-सिमटता जा रहा है. प्रौद्योगिकी के नित्य नए हस्तक्षेप द्वारा प्रकृति की सीमाओं को ढहाते हुए कृत्रिम जीवन स्थितियों का अधिकाधिक विस्तार होता जा रहा है. इन सबके बीच उत्सुकता, उपलब्धि और महत्वाकांक्षा से प्रेरित हो कर मनुष्य के अहंकार की भी अप्रत्याशित रूप से वृद्धि दर्ज हो रही है. इसके परिणामस्वरूप विभिन्न स्तरों पर प्रतिस्पर्धा, संघर्ष , कुंठा और शोषण का दौर भी चल रहा है. रोगों और महामारियों का प्रकोप भी बढ रहा है. कुल मिला कर शांति, संतुष्टि और सह जीवन की स्थिति के लिए खतरे और जोखिम बढ रहे हैं.

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आज की वैश्विक परिस्थितियां सृष्टि में मनुष्य की सत्ता, उसके प्रयोजन और दायित्व पर पुनर्विचार की अपेक्षा करती हैं. आधुनिक विज्ञान के प्रति आस्था के साथ जिस विवेक की परिपपक्वता प्रत्याशित थी वह आज खंडित हो रही है. संभवत: यह दृष्टि एकांगी थी और समग्र के प्रति , सृष्टि की जीवंतता के प्रति उतनी संवेदनशील नहीं थी जितनी वह निजी स्वार्थ के प्रति निष्ठा रख रही थी. इस तरह के असंतुलित नजरिए के दुष्परिणाम पर्यावरण के तीव्र विनाश और आरोग्य-स्वास्थ्य की हानि के रूप में दिखाई पड़ रहे हैं. सीमित और संकुचित स्व / आत्म (सेल्फ) के अकूत विस्तार का उपाय आत्मघाती ही सिद्ध हो रहा है. ऐसे में लोगों का ध्यान आध्यात्मिकता, शांति और प्रकृति की ओर जा रहा है और आत्मविचार को लेकर बड़ी उत्सुकता जग रही है. यह भी महसूस किया जा रहा है कि बाह्य विश्व के साथ ही आदमी के भीतर बसी भावनाओं, विचारों और चेतना को जानना समझना भी जरूरी है. यह अद्भुत ही कहा जायगा कि दूसरों को जानने और दूसरी वस्तुओं के प्रति जिज्ञासा ने जिस तरह ज्ञान का विस्तार किया उसी तरह आत्म या स्वयं को जानने की दिशा में प्रयास बहुत कम हुए और जो हुए भी वे भौतिक दुनिया की खोज के तर्ज पर ही हुए , यानी चेतन को निर्जीव (जड़) मान कर , मनुष्य को पशु मान कर हालांकि “आत्मानं विद्धि” का निर्देश पूर्व और पश्चिम दोनों ही परम्पराओं में प्राचीन है. महात्मा बुद्ध ने आत्म दीपो भाव का उपदेश दिया था. इस परिप्रेक्ष्य में लोगों का ध्यान योग की ओर गया. योग भारतीय ज्ञान और अभ्यास की एक महत्वपूर्ण परम्परा है जो जीवन- संजीवनी सरीखी है.

‘योग’ का सामान्य अर्थ जुड़ना ( प्रक्रिया) या जोड़ ( का परिणाम) है . इसके अनेक अर्थ किए गए हैं. वह उच्च सत्ता या चेतना से मिलन भी है और उसका उपाय या साधन-प्रणाली भी. बिना मनोयोग के छोटा से छोटा काम करना भी सम्भव नहीं होता है. महर्षि पतंजलि के योगसूत्र की मानें तो योग की सहायता से देहात्म बुद्धि की जगह निर्मल आत्म भाव की उपलब्धि की स्थिति प्राप्त होती है. यह स्थिति ऐसी पूर्णता की होती है कि व्यक्ति सुख दुख से परे हो जाता है. योग का तंत्र मंत्र आदि से सम्बंध भी चर्चित है. ज्ञान योग, भक्ति योग , कर्म योग के अलावे हठ योग, लय योग आदि अनेक प्रकर के योगों की विस्तार में चर्चा भी है. भगवद्गीता में प्रत्येक अध्याय को एक विशेष योग का नाम दिया गया है. गीता के अनुसार जो लोग दुनिया में अनासक्त हो कर सारे कार्य सम्पादित करते हैं वे योगी हैं. समय के साथ योग के वास्तविक स्वरूप में विकृति भी आई है और व्यावसायिक प्रवृत्तियों का भी प्रभाव पड़ने लगा है.

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आध्यात्म की ओर प्रवृत्त करने वाले योग की साधन-प्रणाली में स्वास्थ्य, आरोग्य, शांति और आनंद की प्राप्ति, लोक-कल्याण सहज सम्भव है. इसका उपयोग शिक्षा और लोकहित के साधन में प्रयुक्त होना चाहिए. सामान्यत: योग इंद्रियों को नियमित करना, चित्त को शुद्ध और शांत करना , अपने स्वरूप और आत्म भाव में प्रतिष्ठित होने में लाभकारी होता है. भारतीय सोच यह है कि प्राणी के भीतर ईश्वरीय चेतना, ज्ञान, आनंद विद्यमान है. हमारी कामना, वासना, आसक्ति, स्पृहा, मोह, अंधकार आदि के कारण हमें उस सत्ता का अनुभव नहीं होता है. इन बाधाओं से मुक्त हो कर मुक्त , शुद्ध, शांत और पवित्र हो कर ही उस दिशा में आगे बढा जा सकता है. तभी उसकी पात्रता या योग्यता मिलेगी अन्यथा कुमार्ग पर चल कर दुख और पतन ही होगा.

पतंजलि द्वारा मानकीकृत अष्टांग योग में एक विशेष क्रम है जिसके अन्तर्गत अभ्यास करना चाहिए. जैसे यम और नियम के पालन के बिना चित्त का एकाग्र होना सम्भव नहीं है. दुर्गुण हटने पर ही अंत:करण की पवित्रता होगी. यम और नियम के बिना प्राणायाम भी ठीक से नहीं होगा. वस्तुत: यम , नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार , धारणा , ध्यान, और समाधि के आठ अंगों से योग का स्वरूप (जो अंगी है) बनता है. इनमें पहले के पांच बहिरंग और तीन अंतरंग कहे जाते हैं. अंतरंग को संयम भी कहा है. यहां पर यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि महर्षि पतंजलि ने यम अर्थात अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्म्चर्य और अपरिग्रह को जाति देश , काल और निमित्त से अनवच्छिन्न ‘सार्वभौम महाव्रत’ कहा है. दूसरे शब्दों में इनका पालन हर किसी को और हर कहीं करना विहित है. यदि विस्तार में देखा जाय तो ये सभी महाव्रत मानव अधिकार और नागरिक कर्तव्यों की आधुनिक अवधारणा से कहीं व्यापक हैं और लोक तांत्रिक व्यवस्था के लिए आधारशिला सरीखे हैं. यम के साथ नियमों का भी प्रावधान है . ये हैं : पवित्रता , संतोष , तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान . इन पांच नियमों का पालन भी आवश्यक है . योग सूत्र में यह भी निर्देश है कि यदि मन में इनके विरुद्ध भाव आए तो प्रतिपक्ष भावना करनी चाहिए अर्थात उसका दृढता से निषेढ करना चाहिए. यह आसानी से देखा जा सकता है कि ये यम नियम सामान्य जीवन में व्यावहारिक रूप से सकारात्मक फल देने वाले हैं. व्यक्ति और आसपास दोनों ही इससे सकारात्मक रूप से प्रभावित होते हैं. महर्षि पतंजलि ने बड़े विस्तार से इनके प्रभावों की चर्चा की है . उदाहरण के लिए वे कहते हैं कि अहिंसा से लोग वैर त्याग देते हैं, सत्य पालन से व्यक्ति द्वारा कहा सच होने लगता है तथा अपरिग्रह से मन संयत हो जाता है आदि आदि. आज कल प्राय: योग को आसन ( शारीरिक अभ्यास) और ध्यान को मानसिक अभ्यास तक ही माना जाता है . इनका लाभ भी मिलता है परंतु योग तो समग्र जीवन जीने का पाठ्यक्रम है .

वस्तुत: आज कल योग के ऊपर कई दृष्टियों से विचार किया जा रहा है. इनमें आध्यात्म के जिज्ञासु और समाज की आवश्यकता की दृष्टियां प्रमुख हैं. समाज जिसके हम सभी अंग हैं और जो योग और योगी दोनों का ध्यान रखता है महत्वपूर्ण है . निजी जीवन में स्थिरता , शांति और आंतरिक स्वतंत्रता चाहिए और बाह्य सामाजिक जीवन में समाज के कल्याण में योगदान भी देना चाहिए. वह समाज जो हम सब का भरण पोषण करता है, हमारे विकास की व्यवस्था करता है उस पर भी ध्यान रखना आवश्यक है. आज योग की प्रचलित विभिन्न विधाओं में इसका अवसर उपलब्ध हो रहा है.

विचार करने पर प्रतीत होता है कि इतिहास में हम बड़ी लम्बी यात्रा पूरी कर आज की दुनिया में पहुंचे हैं. बडी उपलब्धियां हैं पर कुछ अंधेरे कोने भी बने हुए हैं. असंतुलन , वैमनस्य , पीड़ा , सघर्ष, तनाव, भय और असुरक्षा भी बढी है . इनके प्रश्नों का एक ही उत्तर दिखता है कि हन आंतरिक और बाह्य दुनिया के बीच जरूरी संतुलन नहीं बना सके हैं. जीवन की लय टूट गई है , जीवन संगीत बेसुरा हो गया है. हमारे दुनियावी सरोकार , इच्छाओं और दृष्टि के बीच समरसता नहीं रही. मन में आदर्श जीवन किसी कोने में रहता है परन्तु हमारी महत्वाकांक्षाएं उसमें बाधा बनती हैं. इससे मनोजगत में ही नहीं शरीर में भी असंतुलन होता है और रोग होते हैं. यह तंय करना जरूरी है कि हम खाने के लिए जिएं या जीने के लिए खाना खाएं. आज शारीरिक , मानसिक और सांवेगिक द्वन्द , दुख और अशांति का बवंडर बड़े बड़ों को ले डूब रहा है. यदि अपने विचारों और व्यवहारों का खाता खंगालें तो पायेंगे तो वे ज्यादातर समस्याओं के बारे में हैं. यदि कोई मानसिक या भावनात्मक द्वंद हो तो उसी के बारे में सोचते रहते हैं और अधिक अवसाद की ओर बढने लगते हैं. मन में गुंजलक छा जाता है. कुछ साफ नहीं दिखता. योग असंतुलन को दूर कर आंतरिक स्पष्टता , संतुलन और समरसता प्रदान करता है. योग को अपनाने से इसका समाधान मिलता है. अनेक अध्ययनों में योग गठिया, मधुमेह, उच्च रक्त चाप, पेट के रोग और कैंसर जैसे रोगों में लाभ प्रद पाया गया है. परंतु योग , चिकित्सा से आगे जा कर मानस चेतना का भी परिष्कार करता है . वह आत्म निर्भर बनाता है और ऊर्जा का अनुभव कराता है. अत: योग शिक्षा को सभी स्तरों पर शिक्षा में स्थान देना लाभकारी होगा.

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कोरोना की महामारी ने जहां सबके जीवन को त्रस्त किया है वहीँ उसने हमारे जीवन के यथार्थ के ऊपर छाए भ्रम भी दूर किए हैं जिनको लेकर हम सभी बड़े आश्वस्त हो रहे थे. विज्ञान और प्रौद्यौगिकी के सहारे हमने प्रकृति पर विजय का अभियान चलाया और यह भुला दिया कि मनुष्य और प्रकृति के बीच परस्पर निर्भरता और पूरकता का सम्बन्ध है. परिणाम यह हुआ कि हमारी जीवन पद्धति प्रकृति के अनुकूल नहीं रही और हमने प्रकृति को साधन मान कर उसका अधिकाधिक उपयोग करना शुरू कर दिया . फल यह हुआ कि जल , जमीन और जंगल के प्राकृतिक संसाधनों का क्षरण शुरू हुआ, उनके प्रदूषण का आरम्भ हुआ . धीरे-धीरे अन्न, फल , दूध, पानी और सब्जी आदि सभी प्रकार के सामान्यत: उपलब्ध आहार में स्थाई रूप से विष का प्रवेश पक्का हो गया. दूसरी ओर विषमुक्त या ” आर्गनिकली ” उत्पादित आहार ( यानी प्राकृतिक या गैर मिलावटी ! ) मंहगा और विलासिता का विषय हो गया . इन सबका स्वाभाविक परिणाम हुआ कि शरीर की जीवनी शक्ति और प्रतिरक्षा तंत्र दुर्बल होता गया .

सामाजिक स्तर पर भी देश की यात्रा विषमता से भरी रही . बापू के ‘ ग्राम स्वराज ‘ का विचार भुला कर औद्योगिकीकरण और शहरीकरण को ही विकास का अकेला मार्ग चुनते हुए हमने गावोँ और खेती किसानी की उपेक्षा शुरू कर दी . गाँव उजड़ने लगे और वहाँ से युवा वर्ग का पलायन शुरू हुआ. शहरों में उनकी खपत मजदूर के रूप में हुई . श्रमजीवी के श्रम का मूल्य कम आंके जाने के कारण मजदूरों की जीवन- दशा दयनीय बनती रही और उसका लाभ उद्योगपतियों को मिलता रहा. वे मलिन बस्तियों में जीवन यापन करने के लिए बाध्य रहे. इस असामान्यता को भी हमने विकास की अनिवार्य कीमत मान लिया . बाजार तंत्र के हाबी होने और उपभोग करने की बढती प्रवृत्ति ने नगरों की व्यवस्था को भी असंतुलित किया. उदारीकरण और निजीकरण के साथ वैश्वीकरण ने विदेशी करण को भी बढाया और विचार , फैशन तथा तकनीकी आदि के क्षेत्रों में विदेश की ओर ही उन्मुख बनते गए. हमारी शिक्षा प्रणाली भी पाश्चात्य देशों पर ही टिकी रही । इन सबके बीच आत्म निर्भरता , स्वावलंबन और स्वदेशी के विचारों को बाधक मान कर परे धकेल दिया गया. करोना की महामारी ने यह महसूस करा दिया कि वैश्विक आपदा के साथ मुकाबला करने के लिये स्थानीय तैयारी आवश्यक है. विचार, व्यवहार और मानसिकता में अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों को पुन: स्थापित करना पड़ेगा .

प्रधानमंत्री जी ने स्थानीय के महत्व को रेखांकित किया है और आत्म निर्भर बनने के लिए आह्वान किया है . आशा है ग्राम स्वराज के स्वप्न को आकार देने का प्रयास नीति और उसके क्रियान्वयन में स्थान पा सकेग. इसी प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में भी देश और यहाँ की संस्कृति के लिए प्रासंगिकता पर ध्यान दिया जायगा . जड़ों की उपेक्षा कर वृक्ष कदापि स्वस्थ नहीं रह सकता है .

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.)