Shirish Kashikar

केरल विधानसभा चुनाव (Kerala Assembly Elections) 2021 “भगवान के अपने देश में कौन तैरेगा और कौन डूबेगा..?

Kerala Assembly Elections, Shirish Kashikar
डॉ शिरीष काशीकर
निर्देशक, एनआईएमसीजे, अहमदाबाद

Kerala Assembly Elections: मुख्यमंत्री पी. विजयन के नेतृत्व और उनकी सरकार की छवि को मतदाताओं में चमकाकर पेश किया जा रहा है, संगठन की दृष्टि से देखा जाए तो पिछले २ टर्म से जिन्होंने चुनाव लड़ा है उन्हें टिकट न देकर नए चेहरों को टिकट दिया गया है.

केरला, यह शब्द सुनते ही मुन्नार और ठेकड़ी के मनोरम हिल स्टेशन और बैकवॉटर्स के नजारे सामने आ जाते हैं। देश के सबसे ज्यादा लोकप्रिय टूरिस्ट डेस्टिनेशन माने जाने वाले इस “भगवान का अपना प्रदेश” में माहौल आजकल थोड़ा गरमाया हुआ है। ६ अप्रैल को होने वाले विधानसभा के चुनाव में सभी बड़े खिलाड़ी अपनी अपनी ताकत की आजमाइश करने जा रहे हैं। एलईडीएफ को सत्ता पुनः प्राप्त करने की चिंता है तो कांग्रेस प्रेरित यूडीएफ को अपनी जमीन बचानी है और भाजपा यहां अपना कद बढ़ाने के चक्कर में है। केरला में कोरोना की सेकंड वेव की दस्तक के साथ चुनाव होने जा रहे हैं और सब इसी बात पर ताक लगाए हुए हैं कि फिर से केरला कोरोनावायरस की चपेट मे ना आ जाए।

खैर, केरला का चुनावी दंगल (Kerala Assembly Elections) अब चरमसीमा की ओर बढ़ रहा है और उसका असर दिखना शुरू हो गया है एक दूसरे पर भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद के आरोप शुरू हो गए हैं। खासकर मुख्यमंत्री पी. विजयन को सोने की तस्करी के मामले में भाजपा घेर रही है तो कांग्रेस के धुरंधर पी सी चाको अब अपनी पार्टी छोड़ चुके हैं। भाजपा ने मेट्रोमैन ई श्रीधरन को मुख्यमंत्री पद का दावेदार बताकर सुशिक्षित केरला की राजनीति में एक नई पहल कर दी है। वैसे यहां सब कुछ ठीक हैं ऐसा भी नहीं हर एक पार्टी अपनी अपनी विशिष्ट समस्याओं से भी जूझ रही है।

केरला वैसे तो सतही तौर पर बेहद शांत दिखने वाला राज्य है किंतु अंदर चल रही राजनीतिक उठा पटक और राजनीतिक हत्याओं के खून के धब्बे इस की चमक को फीका कर देते है। केरला की वर्तमान राजनीति को आइए कुछ इस प्रकार से समझते हैं। एक जमाने में कांग्रेस का गढ़ माना जाने वाला केरला पिछले तीन दशकों में उसके हाथ से फिसलता गया है और वामपंथी पार्टियां ताकतवर होती चली गई है। आज वहां ९१ सीटों के साथ सत्ता में है लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ्रंट (एलडीएफ) जिसका नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी मार्कसिस्ट करती है उसके साथ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआई) के अलावा केरला कांग्रेस, एनसीपी, जनता दल( सेकुलर), इंडियन नेशनल लीग जैसे ११ छोटे बड़े दल शामिल है इस
गठबंधन की शुरुआत १९७९ में इएमएस नंबूदिरिपद और पीके वासुदेवन नायर ने की थी।

उसके बिल्कुल सामने है यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) जो कि कांग्रेस के नेतृत्व में चलता है। इसकी स्थापना १९७८ में के करुणाकरण ने की थी। आज इस फ्रंट में कांग्रेस के अलावा इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग (आईयूएमएल) केरला कांग्रेस(जोसेफ) आरएसपी, केरला कांग्रेस (जैकब) नेशनलिस्ट कांग्रेस केरला, सीएमपी (जॉन), फॉरवर्ड ब्लॉक, भारतीय नेशनल जनता दल जैसे छोटे बड़े दल शामिल है और विधानसभा में मुख्य प्रतिपक्ष के स्वरूप में ४५ सीटों के साथ वह विराजमान था।

वैसे देखा जाए तो यहां सत्ता पर रहा एलडीएफ काफी मजबूत स्थिति में है। हाल ही के कुछ महीनों में मुख्यमंत्री पी. विजयन के खिलाफ सोने की तस्करी को लेकर हुए गंभीर आरोपों के अलावा कोई विशेष ध्यान आकर्षक मुद्दा जनता की चर्चा में नहीं आया और एलडीएफ अपने वोट बैंक को मजबूत बनाने में लगी हुई है। उत्तर केरला में मुस्लिम और मध्य केरला में ईसाई और नायर समुदाय उनके निशाने पर हैं। हालांकि यह कांग्रेस के परंपरागत मतदाता है पर अब एलडीएफ उस में सेंध लगाने की कोशिश में है ताकि उसका वोट शेयर बढ़ सके। वैसे राजनीतिक गणित देखे तो राज्य की करीब १८.३८ % मतदाता ईसाई कम्युनिटी से है जो कि करीब ३३ बैठकों पर अपना प्रभुत्व रखते हैं। हालांकि यह वोट ज्यादातर वामपंथी पार्टियों और कांग्रेस के बीच में बंट जाते हैं पर इस बार भाजपा ने अपनी “केंद्र की शक्तियों को” काम पर लगाया है और ईसाई कम्युनिटी के एक समुदाय जेकोबाइट को अपनी और लाने की फिराक में है।

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दरअसल २०१७ में सुप्रीम कोर्ट में चर्च की जमीनों के मामले में ऑर्थोडॉक्स चर्च की और फैसला आने से जेकोबाईट चर्च के कर्ताहर्ता केरला सरकार से नाराज चल रहे हैं और वह इस मामले में राज्य सरकार से कानून चाहते थे पर सरकार ने कोई बड़ी पहल नहीं की भाजपा इस मामले में जेकोबाइट्स को मदद कर रही है, और चर्च ने इशारा भी दिया है कि वह “उसे मदद करने वाले को मदद करेगी”। ऐसे ही एक पुराने चर्च को बचाने में राष्ट्रवादी ताकतों की मदद मिलने से चेंगनूर विधानसभा में भाजपा को १६% वोट मिले थे और उसकी एंट्री हो गई थी। वैसे तो एलडीएफ भी अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने के लिए “विकास की राजनीति” की ही बात करता है क्योंकि एक सुशिक्षित और आर्थिक दृष्टि से समृद्धि की ओर बढ़ रहे राज्य में राजनीति इसी बात पर होनी चाहिए। वैसे अगर थोड़े आंकड़े देखें तो कुछ रसप्रद सूचना सामने आती है।

राज्य विधानसभा की १४० बैठकों में से १२४ सीटे जनरल यानी सामान्य श्रेणी की है। १४ शेड्यूल कास्ट और सिर्फ २ सीटें शेड्यूल ट्राइब के लिए रिजर्व है। मजेदार बात यह है कि यहां महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं से ज्यादा है( करीब करीब १० लाख)। इलेक्शन कमिशन के डाटा के अनुसार २०१६ की विधानसभा चुनाव में ७७.१०% मतदान हुआ था जिसमें ७८.१४% महिलाओं ने और ७५.९७% पुरुषों ने मतदान किया था। चूंकि यहां जातिगत राजनीति सतही तौर पर दिखती नहीं फिर भी हर एक पार्टी अपने “वोट बैंक” को रिझाने के चक्कर में लगी रहती है। २०१६ के वोट शेयर को देखें तो पता चलता है कि कुछ मुख्य खिलाड़ी जैसे सीपीएम को ४४.३८% वोट मिले थे और उसने ५४ सीटें हासिल की थी तो सीपीआई को ४५.०४% वोट मिले थे और वह १९ सीटें हासिल कर पाई थी। कांग्रेस को ३८.०७% वोट मिले थे और वह २२ सीटें जीत पाई थी।

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Kerala Assembly Elections: आईयूएमएल को ४५.६२% वोट मिले थे और उसने १८ सीटें जीती थी तो केइसी(एम) को ३८.९६% वोट मिले थे और उसने ६ सीटों पर अपना कब्जा किया था।लेकिन सावधान इन आंकड़ों पर ना जाएं वरना गलतफहमी हो सकती है क्योंकि यहां दिखाया गया वोट प्रतिशत पार्टी के द्वारा खड़े किए गए कैंडिडेट्स के गुणांक में है और बढ़ा हुआ वह वोट शेर ज्यादा सीटों की ओर निर्देश नहीं करता। अगर हम इस राज्य के दो मुख्य राजनीतिक खिलाड़ियों की चुनावी रणनीति पर गौर करें तो कुछ बातें स्पष्ट है। जैसे की मुख्यमंत्री पी. विजयन के नेतृत्व और उनकी सरकार की छवि को मतदाताओं में चमकाकर पेश किया जा रहा है, संगठन की दृष्टि से देखा जाए तो पिछले २ टर्म से जिन्होंने चुनाव लड़ा है उन्हें टिकट न देकर नए चेहरों को टिकट दिया गया है.

जिनकी एवरेज आयु ५० साल की है और इसकी वजह से एलडीएफ के कार्यकर्ताओं में जोश भरा हुआ है। एक नपीतुली रणनीति के तहत मल्लापुरम समेत नौ विधानसभाओं में स्वतंत्र उम्मीदवारों को एलडीएफ सपोर्ट कर रही है जिसमें ७ मुस्लिम है। इसके अलावा कांग्रेस के बागी नेताओं को भी टिकट दिए गए है।हालांकि राज्य के पूर्व वित्त मंत्री थॉमस इसाक को टिकट न मिलने से उनके कार्यकर्ता नाराज हैं पर पार्टी का मानना है कि कोई भी व्यक्ति पार्टी से ऊपर नहीं है और यह बात आने वाले चुनाव में सिद्ध भी हो जाएगी।

अगर कांग्रेस की बात करें तो यूडीएफ अपनी लोकसभा २०१९ की सफलता को दोहराने के लिए उत्सुक हैं। सत्ता में वापस आने के लिए उसे कम से कम ४२% वोट चाहिए किंतु मुस्लिम और ईसाई समुदायों में उसकी पैंठ धीरे धीरे कम हो रही है और कोढ़ में खाज जैसी स्थिति तब हुई जब उसके कदावर नेता पी सी चाको ने पार्टी ऐन मौके पर छोड़ दी है। वैसे कांग्रेस एलडीएफ के खिलाफ थोड़ा बहुत एंटी इनकंबेंसी फैक्टर बढ़ाने में अपनी शक्ति खर्च कर रहा है और अपनी परंपरागत सीटों को मजबूत करने के लिए कुछ “नए प्रयोग” करने के लिए तैयार है। कांग्रेस यहां भी अपनी पुरानी गुटबाजी और टांगखिंचाई की समस्या से बुरी तरह से पीड़ित है जो की राज्य में उसे सत्ता से दूर रखने का एक बड़ा कारण बन सकती है।

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पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव (Kerala Assembly Elections) में जिसे सबसे कम सफलता केरला में मिलने की संभावना है ऐसी भाजपा यह अपना कद बढ़ाने की कोशिश में है। हालांकि भाजपा यहां बंगाल जितनी आक्रमक नहीं दिखती पर वह “लवजिहाद”और “सबरीमाला” जैसे मुद्दों पर उसे हिंदू समुदाय से मिल रहे प्रतिसाद पर नजर गड़ाए हुए है। ईसाइयों के एक समुदाय और सवर्ण हिंदुओं पर भी डोरे डाल रही भाजपा “एनडीए न्यू केरला विद मोदी” के नारे के साथ उसे हाल ही में लोकसभा में मिली थोड़ी सफलता को भुनाने का प्रयास कर रही है। २०१४ लोकसभा में उसे १०.५०% वोट मिला था जोकि २०१९ लोकसभा चुनाव में १५.५०% हो गया। इस कामयाबी से प्रोत्साहित हो कर, बेहद धीरज के साथ आगे बढ़ रही भाजपा फिलहाल तो एलडीएफ की खामियों को अपने वोट शेयर में परिवर्तित करने पर ध्यान दे रही है।

मेट्रोमैन ई श्रीधरन का भाजपा में आना उसकी विचारधारा की जड़ का राज्य में फैलने का संकेत है। और यहां अगर भाजपा मजबूत होती हैं तो स्वाभाविक तौर पर उसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना होगा क्योंकि २०२१ विधानसभा में वह अगर अपना स्थान खो देगी तो उसे लपकने के लिए भाजपा तैयार खड़ी होगी। भगवान के प्रदेश में राजनीतिक दंगल बेहद दिलचस्प होने जा रहा है इसमें कोई शक नहीं।

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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