Gift of AI: ए आई की सौगात: ख़तरे और संभावनायें
Gift of AI: ए आई यानी कृत्रिम बुद्धि के विकास और उपयोग की दिशा में वैज्ञानिकों और तकनीकविदों ने कमाल की बढ़त हासिल की है और उसके अभियान का क्रम लगातार जारी है । ए आई बड़ा संक्रामक है और देश और काल की सीमाओं को तोड़ते-फ़लांघते वह जल, थल और अंतरिक्ष हर कहीं मनुष्य की अप्रत्याशित रूप से त्वरित पहुँच का विस्तार करता जा रहा है । वैसे तो ए आई भी एक नैसर्गिक यानी स्वाभाविक मानवीय बुद्धि का ही करिश्मा है परंतु आज जिस गति से सब कुछ में निर्बाध दखल देते हुए इसके ज़रिए जो बदलाव लाए जा रहे हैं वे दुनिया का नक़्शा ही बदल रहे हैं। निर्माण अपने निर्माता की नियति तय करता दिख रहा है।

आज वर्चुअल और डिजिटल को इस तरह स्थापित किया जा रहा है कि उनके आगे सत्य और यथार्थ हिलने काँपने लगा है । मनुष्य सत्य और असत्य (झूठ) पर भरोसा करता आ रहा है । सत्य अर्थात् वह जिसका अस्तित्व है (सत्) परन्तु अब नाना प्रकार के सत्य अस्तित्ववान हो रहे हैं जिनमे से अपनी पसंद से चुनना होता है पर जिस भी संस्करण के सत्य उभर रहे हैं उनके पीछे आ आई का हाथ ज़रूर होता है । वैसे तो किसी भी तरह के चुनाव का आधार मुख्य नियामक होता है ताकि होड़ लेते विभिन्न सत्यों के कई प्रत्याशियों के बीच असली या उपयोगी सत्य को खोज कर पहचाना जा सके । सत्य के साथ स्थिरता, निरंतरता और सातत्य या फिर अपरिवर्तनशीलता और विश्वसनीयता जैसे मानक भी स्वाभाविक रूप से जोड़ दिए जाते रहे हैं । परम और नित्य सत्य की परिकल्पना हमें ईश्वर के क़रीब पहुँचा देती है ।

आज जब सत्य के निर्माण की छूट मिल रही है तो उसके कई परिणाम सामने आ रहे हैं । सारी क़ानूनी मशीनरी सत्य का बाजार चला रही है । वह प्रमाण और साक्ष्य के माध्यम से मुकदमा चलने के दौरान मुल्तबी सत्य को अपने बल पर सत्य के खाँचे में फिट कर देती है । वकील और गवाह मिल कर सत्य रचते और तय करते हैं और वह जज के सत्यबोध से मेल खा जाए तो वह सुच्चा या निखालिस सच बन जाता है । यह दृष्टि सत्य की अस्थिरता या सापेक्षिकता और अन्तत: बहुलता की तरफ़ ले जाती है जिसके अच्छे बुरे दोनों तरह के परिणाम हैं।
कृत्रिम बुद्धि बहुत आगे जा रही है। वह वास्तविक बुद्धि के उपयोग के अवसरों और अभ्यासों को जिस तरह बदल रही है उससे हमारी आदतें , व्यवहार शैली और जीने का अंदाज़ सब कुछ बदलता जा रहा है । इस तरह का व्यापक नवाचार हमारी अपने बारे में समझ को भी बदल रहा है । मनुष्यता के स्वभाव , बच्चों के पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई आदि मनुष्य के रूप में निर्माण जैसे जरूरी उपायों के स्वरूप को प्रभावित कर रहा है । जीवन में ए आई प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हरतरफ़ उपस्थित है । पिछले कुछ दिनों में डीप फेक और साइबर अरेस्ट जैसी घटनाओं ने ए एआई के उपयोग के अतिरेक से पैदा हो रही तमाम मुश्किलों की ओर ध्यान आकर्षित किया है जिनका संबंध जीवन की गुणवत्ता से है । ए आई की पहुंच का विस्तार या रेंज बढ़ता ही जा रहा है । निजी जीवन में उसकी दखल दुरभिसंधि, भयादोहन, अंतरराष्ट्रीय संघर्ष, आर्थिक घोटाले और व्यापार जगत सबको संत्रस्त करने वाला साबित हो रहा है ।
आ आई के उपयोग से काम में सुभीता, शीघ्रता और मात्रा को ध्यान में रखते हुए आज विभिन्न देशों में अपनी ए आई की क्षमता बढ़ाने के लिए होड़ मची हुई है ।भारत भी इसमें शामिल हो रहा है। औद्योगिक क्रांति जैसी क्रांति का लाभ न पा कर हम अब यह सोच रहे हैं कि ए आइ क्रांति से बड़ी लम्बी छलांग लगा लेंगे आकर्षक पर ख़तरनाक हो सकता है। कुछ दिन पहले भरतिय मूल के नोबल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिक वेंकी रामकृष्णन ने जयपुर में बोलते हुए स्पष्ट रूप से ए आई की संभावनाओँ के साथ जुड़े बड़े ख़तरों की ओर ध्यान खींचा शायद उससे निपटने के लिए तकनीकी विशेषज्ञता काफ़ी न होगी। उसके किए समानुभूति , इतिहास और संस्कृति की समझ की भी दरकार होगी।
बिना उस व्यापक संदर्भ के हामारे समाधान छिछले, संकुचित और नुक़सानदेह हो सकते हैं। सब कुछ तकनीक विशारदों पर नहीं छोड़ा जा सकता। ए आई के नैतिक और सामाजिक आयताम भी हैं। शिक्षा में वे मानविकी और विज्ञान परौद्योगिकी दोनों को महत्व देने की वकालत कर रहे थे। तकनीकी और मानविकी के बीच की खाई पाटी जानी चाहिए। ए आई का इसका नियंत्रित उपयोग वहाँ हितकारी हो सकता है वहाँ कार्य क्षमता, उत्पादकता आदि ज़रूरी हों। हमें पूरा सच देखना होगा। प्राचीन ऋषियों ने
ऐसे ही नहीं कहा था कि स्वर्ण के ढक्कन से सत्य का मुख ढँका हुआ है – हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यासपिहितम् मुख़म । अतीत से विच्छिन्न, मूलहीन सभ्यता की नई इबारत लिखने वाली सोच अधूरी है। उसके हिसाब से हम सब एक डाटा पॉइंट होते जा रहे हैं । समाज और संस्कृति की स्मृति को मिटा देना एक बड़ी त्रासदी है। हमें इसके प्रति आगाह रहते हुए ए आई के उपयोग को सीमित करना होगा। इसी में मनुष्य के भविष्य की गुंजाइश होगी।
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