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कोरोना काल में स्त्री (female) विमर्श

आपदा में महिलाओं (female) के प्रति बढ़े अत्याचार ये सोचने पर विवश करते हैं कि महिलाओं के मानव अधिकारों का उल्लंघन कब तक जारी रहेगा?

21वीं सदी में आधी आबादी ने (female) अपने हक़ की लड़ाई लड़ने की पुरज़ोर कोशिशें की। एक साथ उठती इतनी आवाज़ों से भ्रम पैदा हुआ कि जैसे महिलाएं अपने बहुप्रतीक्षित अधिकार, सम्मान और गरिमा को प्राप्त करने की ओर अग्रसर हैं। परंतु ये क्या ? कोरोना काल में महिलाओं पर बढ़े अत्याचारों ने एक बार फिर सिद्ध किया कि महिलाओं के हक़ के लिए किए गए सब दावे बेमानी हैं। 2009 से प्रत्येक वर्ष 25 नवंबर के दिन संयुक्त राष्ट्र के द्वारा ‘ऑरेंज डे’ को ‘महिला उन्मूलन दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। यू एन की रिपोर्ट के अनुसार जब लोग वैश्विक महामारी को थामने के लिए घरों में रहे तब महिलाओ पर हो रहे अत्याचार थमने का नाम नहीं ले रहे।

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शीतल ‘अज्ञेय’
प्रवक्ता, सर्वोदय कन्या विद्यालय, दिल्ली

चिकित्सा जगत की क्रांति आज नहीं तो कल इस अदृश्य विषाणु पर भी विजय प्राप्त कर ही लेगी। परंतु महिलाओं (female) को दोयम दर्जे का मानने की निकृष्ट मानसिकता से उन्मुक्ति निकट भविष्य में संभव प्रतीत नहीं होती। बीते कोरोनाकाल में आँनलाइन शिक्षण कार्य के अपने अनुभवों में मैंने पाया कि लड़कियाँ कितनी सहजता से इस तथ्य को प्रस्तुत करती रही हैं कि ऑनलाइन कक्षाओं के लिए फ़ोन की उपलब्धता उनके स्वयं के लिए नहीं हो पाएगी क्योंकि उनका भाई भी उसी समय कक्षाएं लेता है।

बचपन से ही लिंग आधारित भेदभाव भारतीय पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन का मूलभूत हिस्सा बनता जा रहा है और अपनी बाल्यावस्था के कारण बच्चियां भेदभाव के इस रूप को समझने में न केवल अपरिपक्व होती हैं वरना भारतीय समाज की पुरुष सत्तात्मकता को ही परम सत्य मानने का प्रशिक्षण उनके जीवन में स्वाभाविक क्रिया के रूप में जारी रहता है।

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सरकारी और प्राइवेट स्कूल में से शिक्षण किसका अच्छा है! ये हमारे विमर्श का मुद्दा नहीं है परंतु प्राइवेट स्कूल की महँगी फ़ीस के लिए चयन बेटियों के स्थान पर बेटों का ही किया जाता है। ‘मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा’ के अधिकार के माध्यम से बालिकाओं को शिक्षित, समर्थ, सशक्त बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण एवं बहुआयामी कार्य तीव्र गति से आगे बढ़ रहा था परंतु कोरोना महामारी के कारण इस कार्यक्रम में ठहराव आ गया जिसका दुष्परिणाम यह निकला कि ऐसी अनेक बच्चियां जिन्हें इन कार्यक्रमों केबल पर समाज की मुख्यधारा में शामिल किया गया था, उन्हें पुनः घरों में काम करने, कूड़ा बीनने और यहाँ तक कि भिक्षावृत्ति में भी धकेल दिया गया।

निष्कर्ष के तौर पर कहा जा सकता है कि कोरोनाकाल में उपजी सामाजिक-आर्थिक विवशताएँ ही इसका कारण रही परंतु इन जिम्मेदारियों के लिए जिन कंधों का चयन करके इन कामों में संलिप्त किया गया अमूमन वह लिंग आधारित ही था। स्कूली अनुभवों में जितना बच्चों के परिवारों में नौकरियों, आय के छिन जाने, भुखमरी, गरीबी जैसे आर्थिक हालातों ने इनकी दशा पर सोचने के लिए विवश किया वहीं उससे अधिक माता पिता के द्वारा बेटी को ऋण मानना और ऐसे हालातों में जितना जल्दी हो सके बच्चियों की शादी करके मुक्त होने की सोच ने झकझोर दिया।

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कोरोनाकाल में हुए कई अध्ययन बताते हैं कि इस दौरान महिलाओं और बच्चियों की खरीद फ़रोख़्त का कारोबार और तेज़ी से फला फूला। यूएन वीमेन के अनुसार वैश्विक स्तर पर प्रत्येक तीन में से एक महिला शारीरिक अथवा मानसिक हिंसा की शिकार है और यह तथ्य कोरोना महामारी से पूर्व का है जो कोरोनाकाल में इससे भी अधिक गहन हुआ है। इसीलिए यूएन वीमेन द्वारा महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा को ‘शैडो पैंडेमिक’ का नाम दिया गया। शारीरिक और मानसिक हिंसा का बढ़ा हुआ यह रूप हर जगह देखने को मिला है।

चाहे वह लॉकडाउन के दौरान घर में रहकर घरेलू हिंसा का बढ़ना हो या फिर सड़कों, सार्वजनिक स्थलों पर यौन अपराधों में बढ़ोतरी का पाया जाना। वैश्विक स्तर पर घरेलू हिंसा के साथ ही अन्य शिकायतों में, महिला (female) हेल्पलाइन नंबर पर प्राप्त हुई कॉल, अप्रत्याशित बढ़ोतरी इस बात की पुष्टि करती है। लॉकडाउन के प्रारम्भ में चीन में तलाक के लिए आवेदन की बढ़ती संख्या ने सबका ध्यान आकर्षित किया परंतु यह केवल केवल विशेष रूप से चीन की ही नहीं बल्कि अनुमानित रूप से प्रत्येक देश की महिलाओं की यही दशा है।

आपदा में महिलाओं (female) के प्रति बढ़े अत्याचार ये सोचने पर विवश करते हैं कि महिलाओं के मानव अधिकारों का उल्लंघन कब तक जारी रहेगा? उन्हें कितनी लड़ाइयाँ अपने हक़ की और लड़नी होंगी ताकि उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक न समझा जाये! जागरूकता के लिए केवल ‘वूमेन डे, ‘पिंक डे’ या ‘ऑरेंज डे’ मनाने से महिलाओं को सम्मानित एवं गौरवपूर्ण जीवन नहीं प्रदान किया जा सकता है।

वैश्विक सरकारों के साथ ही सभी नागरिकों को भी महिला हितैषी उचित, मजबूत एवं प्रगतिशील कदम उठाने होंगे ताकि महिलाएं सदियों पुराने पारिवारिक एवं सामाजिक बंधनों से मुक्त हो सकें और सामाजिक मान्यता के साथ ही उन्हें गरिमापूर्ण जीवन जीने में किसी भी अन्य प्रकार की बाधा का सामना न करना पड़े। (*डिस्क्लेमर:प्रकाशित लेख लेखक के निजी विचार हैं।)

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