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शिक्षानीति – 2020 के आशय

Girishwar Misra
प्रो. गिरीश्वर मिश्र, पूर्व कुलपति
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय

भारत विकास और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो रहा एक जनसंख्याबहुल देश है। इसकी जनसंख्या में युवा वर्ग का अनुपात अधिक है और आगे आने वाले समय में यह और भी बढ़ेगा जिसके लाभ मिल सकते हैं
बशर्ते शिक्षा के कार्यक्रम में जरुरी सुधार किया जाय । यह आवश्यक होगा कि कुशलता के साथ सर्जनात्मक योग्यता को भी यथोचित स्थान मिले । कहना न होगा कि भारत के पास ज्ञान और शिक्षा की एक समृद्ध और व्यापक परम्परा रही है किन्तु अंग्रेजी उपनिवेश के दौर में एक भिन्न दृष्टिकोण को लागू करने के लिए और साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के अनुरुप यहां की अपनी ज्ञान परम्परा और शिक्षा पद्धति को प्रश्नांकित करते हुए
लार्ड मेकाले द्वारा निर्दिष्ट व्यवस्था के अनुरुप शिक्षा थोपी गई। इसने देश को देश से और उसकी ज्ञान परम्परा से न केवल दूर किया बल्कि उसके प्रति घृणा भी पैदा की । अंग्रजों ने अपने हित में अपने शासन की सुविधा के लिए कारकून पैदा करने वाली शिक्षा प्रणाली खड़ी की । इसमें ज्ञान के लिये पश्चिम पर सतत निर्भरता एक आन्तरिक जरूरत बन गई जिससे चाह कर भी हम मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। इसका ताजा उदाहरण देशीकरण ( इंडीजेनाइजेशन ) की पहल का है जो मूल को यथावत रखते हुए कुछ आंशिक बदलाव लाने की कोशिश करता है ।

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स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी व्यवस्था ही कमोबेश आधार बनी रही और महात्मा गांधी जैसे लोगों के प्रयास के बावजूद औपनिवेशिक मानसिकता से छूट न मिल सकी। इसके फलस्वरूप शिक्षा का विस्तार तो हुआ पर अनेक सीमाओं के कारण शिक्षा की गुणवत्ता के साथ समझौता भी होता रहा । इसलिए शिक्षा में उत्कृष्टता के लिए विभिन्न आयोगों और शिक्षाविदों द्वारा समय समय पर सुझाव दिए जाते रहे हैं। इन पर अमल करने के लिए कुछ प्रयास भी हुए पर पर्याप्त मात्रा में ध्यान देने के लिए संसाधन और इच्छाशक्ति के अभाव में गम्भीर प्रयास नहीं हो सके। वर्ष 1986 में बनी शिक्षा नीति में शामिल अनेक प्रस्ताव भी कार्य रूप में नहीं आ सके। इस बीच समस्याएँ बढती ही गईं ।
गहन और व्यापक विचार विमर्श किये जाने के बाद प्रस्तुत शिक्षा नीति- 2020 इन समस्याओं के साथ ही भविष्य की जरुरतों के मद्देनजर कई सुधारों को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध है। इनमें शिक्षा प्रणाली की संरचना, प्रक्रिया , लक्ष्य , अध्यापक – प्रशिक्षण आदि सभी पहलुओं पर सार्थक विचार किया गया है।
इस नीति में आरंभिक स्तर पर मातृ भाषा को महत्व दिया गया है। यह सबको विदित है कि प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षण और अध्यापन बच्चॉ के स्वाभाविक रूप से विकास के लिये लाभकारी होता है। अंग्रेजी को विश्वभाषा मान लेने से अनुकरण की भावना और पराधीनता की प्रवृत्ति को ही उकसावा मिलता है। पूर्वाग्रह और भेदभाव के कारण हम लोगों पर अंग्रेजी का भूत हाबी होता रहा। अंग्रेजी जानने वाले उच्च वर्ग के होते हैं और उनका अखंड वर्चस्व हर कहीं देखा जा सकता है। अंग्रेजी की कोई अतिरिक्त आन्तरिक दैवी शक्ति तो नहीं होती है परन्तु सम्मान की भाषा होने के कारण उसका उपयोग भारतीय विचार, व्यवहार और संस्कृति के विरुद्ध जरुर चला जाता है। भाषा की प्रतिष्ठा उसकी स्मृति को भी प्रभावित करती है ।

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आखिर भाषा का जन्म और पालन पोषण समाज की परिधि में ही होता है। अतएव शुरु में ही अंग्रेजी के भाषाई संस्कार यदि अंग्रेजी संस्कृति को भी स्थापित करते चलते हैं तो यह स्वाभाविक है। भाषा और संस्कृति के बीच सहज आवाजाही होती है और अपरिपक्व मति के छोटे बच्चे के लिये संस्कृति और ज्ञान की भाषाओं के बीच महीन भेद करना सुकर नहीं होता है। ऊपर से ज्ञान की भाषा की श्रेष्ठता स्वत: स्थापित हो जाती है। अत: हर कीमत पर मातृभाषा की जगह अंग्रेजी की ही जय होती है। वैसे सभी देशों में मातृभाषा को ही आरंभिक शिक्षा का माध्यम बनाया जाता है और इसका महत्व वैज्ञानिक अध्ययनों से भी प्रकट होता है। नई शिक्षा नीति के अंतर्गत मातृभाषा को प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम स्वीकार किया जाना एक स्वागत योग्य निर्णय है।
भारतीय ज्ञान परम्परा और संस्कृत , प्राकृत और फारसी का अध्ययन आज सक्रिय संरक्षण की अपेक्षा करता है।
संस्कृति की जड़ों को जीवन्त रख कर ही समाज में चैतन्य लाया जा सकता है। इस दृष्टि से शरीर , मन और आत्मा इन सबका पोषण होना चाहिए । यह छात्रों को शैक्षिक कैरियर में प्रवेश लेने और बाहर जाने के लिये अनेक विकल्पों का प्राविधान तथा उच्च शिक्षा में केवल परिश्रम करने के लिये अतिरिक्त तत्परता वाले छात्रों को अवसर देने का प्रावधान निश्चित रुप से अध्ययन में गंभीरता लाएंगे। कला और विज्ञान के बीच भेद को हटा कर नई विषय संयुक्ति ( काम्बीनेशन) आकर्षक प्रस्ताव है। इसी प्रकार अध्यापक प्रशिक्षण को भी व्यवस्थित करने का प्रस्ताव शिक्षण संस्थानों के लिये लाभकारी होगा । परीक्षा की वर्तमान प्रणाली की कठिना इयोँ को ध्यान में रख कर कई सुधार प्रस्तावित किए गए हैं जिनसे उसकी प्रामाणिकता को बल मिलेगा और विद्यार्थी के विकास में भी मदद मिलेगी। आज के बदलते परिवेश के अनुरुप विद्यार्थियों को अधिकाधिक अवसर देने की प्रभावी व्यवस्था निश्चित तौर पर भिन्न भिन्न रुचियों वाले विद्यार्थियों को पसंद आएगी।
शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा की संस्थाओं के स्वरुप और गठन को ले कर कई महत्वाकांक्षी प्रस्ताव सम्मिलित हैं जिनके लिये संसाधन जुटा कर अंजाम दिया जा सकेगा ।

यह निर्णय कि मंत्रालय को शिक्षा मंत्रालय कहा जाएगा प्रतीकात्मक होते हुए भी सार्थक है और शिक्षा कार्य की प्रेरणा के लिये अधिक सुदृढ और व्यापक अवसर देगा। आशा की जाती है कि प्रस्तावित नीति को लागू कर अगले दस वर्षों के कार्यक्रम को ठोस आधार दिया जा सकेगा।