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भारत का संविधान : एक जीवंत दस्तावेज

Mohit Kumar Upadhyay
मोहित कुमार उपाध्याय
राजनीतिक विश्लेषक एवं अंतर्राष्ट्रीय मामलों के जानकार

भारतीय संविधान विश्व का सबसे विशाल एवं लिखित संविधान है। संविधान निर्मात्री सभा द्वारा संविधान निर्माण का कार्य 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में पूरा किया गया। इस दौरान संविधान सभा के कुल 11 सत्र हुए। संविधान सभा के इन ग्यारह सत्रों में 165 दिन खर्च हुए। इनमें से सभा ने 114 दिन संविधान के मसौदे पर विचार करने में खर्च किए। मूल संविधान में 395 अनुच्छेद, 22 भाग एवं 8 अनुसूची शामिल थी। संविधान के मसौदे पर भेजे गए कुल संशोधनों की संख्या लगभग 7635 थी जिसमें से 2473 संशोधनों पर विचार विमर्श करने के लिए संविधान सभा में प्रस्तुत किया गया। मसौदा समिति संविधान सभा की सबसे महत्वपूर्ण समिति थी और डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर को इस समिति के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था। यही कारण है कि बाबा साहेब आंबेडकर को “भारतीय संविधान का शिल्पकार” भी कहा जाता है। अक्सर भारतीय संविधान पर यह आरोप लगाया जाता है कि यह “उधार का थैला” है। इसके पीछे यह तर्क दिया जाता है कि भारतीय संविधान के अधिकांश प्रावधान विदेशी स्रोतों से संग्रहीत किये गये है। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारतीय संविधान के प्रावधानों में विदेशी संविधानों का अनुसरण किया गया है परंतु इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता है कि संविधान निर्माताओं द्वारा संविधान निर्माण कार्य के समय भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक परिस्थितियों को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया है। दरअसल संविधान निर्माताओं का मुख्य उद्देश्य किसी एक अद्भुत एवं अद्वितीय संविधान का निर्माण करना नहीं था बल्कि एक ऐसे संविधान का निर्माण करना था जो देश की जनता की आवश्यकता एवं प्रकृति के अनुकूल हो और 70 वर्षों की अपनी इस विकास यात्रा में संविधान पूरी तरह सफल रहा है जो कि भारतीय संविधान निर्माताओं की दूरगामी एवं परिपक्व सोच को प्रदर्शित करता है। 

Dr. B R Ambedkar

भारतीय संविधान की यह अनोखी विशेषता है कि वह कठोर एवं लचीले संविधान का मिश्रण है। दरअसल किसी भी संविधान में संशोधन की प्रक्रिया अगर साधारण कानून बनाने की प्रक्रिया से अलग हैं तो वह कठोर संविधान और अगर संशोधन की प्रक्रिया साधारण कानून बनाने की प्रक्रिया के समान हो तो वह लचीला संविधान कहलाता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में, समय एवं परिस्थितियों के संदर्भ में, संविधान में संशोधन करने की अलग-अलग तीन विधियों का उल्लेख किया गया है। पहला, संसद सदस्यों के साधारण बहुमत द्वारा। उदाहरणार्थ – नए राज्यों के निर्माण, वर्तमान राज्यों के नाम एवं सीमाओं में परिवर्तन इत्यादि। दूसरा, संसद सदस्यों के साधारण बहुमत और उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत द्वारा। तीसरा, उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत एवं आधे से अधिक राज्यों के विधानमंडल के अनुसमर्थन द्वारा। इस प्रकार भारतीय संविधान के कुछ प्रावधानों में संशोधन करने का कार्य काफी जटिल है तो वहीं कुछ प्रावधानों में बड़ी आसानी से संशोधन किया जा सकता है। इस आधार पर भारतीय संविधान को गतिशील एवं जीवंत संविधान का दर्जा देने से इंकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि किसी भी देश में संविधान निर्माता चाहे कितने भी दूरगामी सोच वाले क्यों न हों परंतु उनका मुख्य उद्देश्य तात्कालिक परिस्थितियों में संविधान निर्माण का होता है इसलिए वे संविधान में संशोधन का अलग से प्रावधान शामिल करते हैं और भारतीय संविधान निर्माताओं ने भी संविधान को जीवंत बनाए रखने वाली इसी नीति का अनुसरण किया है।

इस संदर्भ में ब्राइस की यह टिप्पणी उचित प्रतीत होती है कि ‘कोई भी संविधान पूर्ण रूप से लिखित नहीं होता है क्योंकि एक संविधान की रचना तात्कालिक परिस्थितियों के संदर्भ में की जाती है और संविधान बनाने वाले भविष्य में उत्पन्न होने वाली समस्याओं की पूर्वकल्पना पूरी तरह नहीं कर सकते। इसीलिए प्रत्येक देश में संविधान को गतिशील बनाए रखने के उद्देश्य से संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया का उल्लेख किया जाता है।’ 25 नवंबर, 1949 के संविधान सभा के अपने संबोधन में डा अम्बेडकर ने कहा था कि ‘जो लोग इस संविधान से असंतुष्ट हैं, उन्हें केवल दो तिहाई बहुमत प्राप्त करना है और यदि वे वयस्क मताधिकार द्वारा निर्वाचित संसद में दो तिहाई बहुमत भी पर्याप्त नहीं कर सकते हैं तो यह नहीं समझा जा सकता है कि जनसाधारण उनके असंतोष में उनका साथ दे रहा है।’ डॉ आंबेडकर के इस कथन से साबित होता है कि संविधान निर्माताओं का मुख्य उद्देश्य संविधान को गतिशील बनाए रखने का था ताकि आवश्यकता पड़ने पर आने वाली पीढ़ी संविधान को उचित दिशा एवं दशा प्रदान कर सकें। वहीं संसद सदस्यों के दो तिहाई बहुमत की मर्यादा भी आरोपित कर दी गई ताकि सतारूढ़ दल निहित राजनीतिक स्वार्थों के कारण संविधान संशोधन का दुरूपयोग न करें।

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यह एक सर्वविदित तथ्य है कि भारतीय संविधान सभा को ब्रिटिश कैबिनेट मिशन के तहत आहूत किया गया था परंतु संविधान के निर्माण, अंगीकार एवं कार्यान्वयन में किसी भी विदेशी सत्ता द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया गया है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित वाक्य ‘हम भारत के लोग’ इस बात का प्रतीक है कि न केवल भारतीय संविधान का निर्माण भारत की जनता द्वारा किया गया है वरन् उसे आदर भाव के साथ स्वीकार भी किया गया है और भारतीय जनता संविधान के प्रति पूर्ण रूप से उत्तरदायी है। लंबे समय तक ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के अधीन रहने के कारण भारत पश्चिमी राजनीतिक विचारों एवं ब्रिटिश शासन व्यवस्था की ओर आकर्षित हुआ। परिणामस्वरूप भारत द्वारा लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना के साथ ही शासन व्यवस्था के रूप में अमेरिका की अध्यक्षात्मक प्रणाली के विपरीत ब्रिटिश संसदात्मक व्यवस्था को अपनाया गया। इसके पक्ष में यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि जहां अध्यक्षात्मक प्रणाली में शासन व्यवस्था में ‘स्थायित्व’ पाया जाता हैं, वहीं संसदीय व्यवस्था में ‘स्थायित्व एवं उत्तरदायित्व’ दोनों का अस्तित्व पाया जाता है क्योंकि इसमें कार्यपालिका विधानमंडल के प्रति पूर्ण रूप से उत्तरदायी होती है। जिसका तात्पर्य यह है कि यदि सदन में मंत्रिपरिषद के किसी एक सदस्य के विरुद्ध भी अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाता है तो संपूर्ण मंत्रिपरिषद त्याग पत्र देने के लिए बाध्य हो जाती है। एक ओर जहां इंग्लैंड का संविधान अलिखित, क्रमिक एवं परिवर्तित परिस्थितियों का परिणाम है और संसद को सर्वोच्च महत्त्व प्रदान करता है। वहीं भारत का संविधान न केवल एक निश्चित अवधि में तैयार एवं अंगीकार (26 नवंबर 1949) और लागू किया गया है बल्कि भारत में संविधान को विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के ऊपर सर्वोच्चता प्रदान की गई है अर्थात भारत में संविधान सर्वोच्च है।

इंग्लैंड की संसद के संदर्भ में ‘डीलोम’ का यह कहना एक सीमा तक उचित ही प्रतीत होता है कि ‘इंग्लैंड की संसद स्त्री को पुरुष और पुरुष को स्त्री बनाने के अतिरिक्त सभी कार्य कर सकती है।’ भारतीय संविधान के अनुच्छेद-12 से लेकर 35 तक नागरिकों / व्यक्तियों को मूल अधिकार प्रदान किए गए हैं जो न्याय योग्य है अर्थात इन अधिकारों के उल्लंघन पर नागरिक या व्यक्ति राज्य के विरुद्ध न्यायालय में वाद दायर कर अनुतोष प्राप्त कर सकता है। इस संदर्भ में संविधान के अंतर्गत उच्चतम एवं उच्च न्यायालय को  क्रमशः अनुच्छेद-32 एवं 226 के अंतर्गत रिट (बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, उत्प्रेषण एवं अधिकार पृच्छा) जारी करने की शक्ति प्रदान की गई है। अनुच्छेद-32 के संदर्भ में डा अम्बेडकर का मानना था कि यह संविधान का “ह्रदय एवं आत्मा” है। उनका कहना था कि इस अनुच्छेद की अनुपस्थिति में मूल अधिकार अपना प्रभाव खो देंगे।

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भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए संविधान में अलग से प्रावधान किये गये है ताकि न्यायपालिका कार्यपालिका के दबाव से मुक्त होकर कार्य कर सकें। इसके लिए संविधान में यह प्रावधान किए गए हैं कि न्यायधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी परंतु किसी भी न्यायाधीश को केवल संविधान में अधिकथित रीति द्वारा ही पद से हटाया जा सकता है जो कि महाभियोग जैसी ही एक प्रक्रिया है। वहीं न्यायधीशों की सेवाकाल के दौरान उनके वेतन एवं भत्तों में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि आपातकाल के दौरान ऐसा परिवर्तन किया जा सकता है। भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा न्यायपालिका को प्रत्यक्ष रूप से तो नहीं परंतु संविधान के लिखित होने के कारण न्यायिक पुनरा विलोकन की शक्ति प्रदान की है जिसका अर्थ है कि यदि संसद या राज्य विधानमंडल कोई ऐसा कानून बनाता हैं या कार्यपालिका कोई ऐसा आदेश या नीति जारी करती है जो संविधान का अतिक्रमण करती हैं तो न्यायपालिका ऐसे किसी कानून या आदेश को असंवैधानिक/शून्य घोषित कर सकती है। इस संदर्भ में संविधान का अनुच्छेद-13(2) न्यायपालिका को न्यायिक पुनराविलोकन की शक्ति प्रदान करते हुए स्पष्ट घोषणा करता है कि ‘राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती है या न्यून करती है और इस खंड के उल्लंघन में बनाईं गई प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी।’

भारतीय संविधान के संदर्भ में “ग्रेनविल आस्टिन” की यह घोषणा मौलिक अधिकारों सहित भाग-4 में अनुच्छेद-36 से 51 तक उल्लिखित नीति निदेशक तत्वों पर सटीक साबित होती हैं कि ‘भारत का संविधान मूलतः एक सामाजिक दस्तावेज है। इसके अधिसंख्य प्रावधान या तो सामाजिक क्रांति के लक्ष्यों से प्रेरित है या फिर उसमें इस क्रांति को जमीन पर उतारने के लिए आवश्यक स्थितियों का निर्माण करने की कोशिश दिखाई देती है।’ मूल अधिकारों के समान नीति निदेशक तत्व राज्य के लिए बाध्यकारी अथवा न्याय योग्य नहीं है क्योंकि संविधान निर्माताओं ने आशा व्यक्त की थी कि समय एवं परिस्थितियों के अनुसार भावी सरकार जनता के कल्याण हेतु इन सिद्धांतों को अपनी नीतियों में शामिल करेगी। संविधान निर्मात्री सभा में कुछ सदस्यों द्वारा नीति निदेशक तत्वों की गैर बाध्यकारी स्थिति को देखकर यह कहा था कि यह सिद्धांत केवल संविधान में नैतिक उपदेश मात्र है। इन सिद्धांतों के बचाव में पं जवाहर लाल नेहरू ने कहा था कि ‘मैं मूल अधिकारों की अपेक्षा नीति निदेशक सिद्धांतों को ज्यादा महत्त्वपूर्ण मानता हूं।’

डॉ आंबेडकर का यह कथन प्रत्येक देश के संविधान के लिए सही साबित प्रतीत होता है कि ‘मैं समझता हूं कि संविधान चाहे जितना भी अच्छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है यदि उसका अनुशरण करने वाले लोग बुरे हों। यही नहीं एक संविधान चाहे जितना भी बुरा हो वह अच्छा साबित हो सकता है, यदि उसका पालन करने वाले लोग अच्छे हों।’


अतः इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि भारतीय संविधान अपने लागू होने की तिथि (26 जनवरी 1950) से लेकर आज तक संविधान निर्माताओं की आशाओं एवं आकांक्षाओं पर खरा उतरा है और इसका श्रेय डॉ आंबेडकर के कथनानुसार संविधान लागू करने वालों के साथ ही संविधान का पूरी निष्ठा के साथ पालन करने वाले भारतीय जनमानस को भी देना होगा जिन्होंने न केवल बहुत कम समय में तीव्र गति से परिपक्व लोकतांत्रिक एवं राजनीतिक चेतना का विकास किया बल्कि संवैधानिक आदर्शों, मूल्यों एवं संस्थाओं के प्रति भी एक प्रगतिशील साझा दृष्टिकोण विकसित किया।(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.)