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बहा जननि ज्योतिर्मय निर्झर !

Girishwar Misra
प्रो. गिरीश्वर मिश्र, पूर्व कुलपति
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय

कहते हैं ‘भारत ’ यह नाम भरत नामक अग्नि के उपासकों के समुदाय से जुड़ा है. वेदों के व्याख्याकार यास्क ने ‘भारत’ का अर्थ ‘आदित्य’ किया है. ब्राह्मण ग्रंथों में ‘अग्निर्वै भारत:’ ऐसा उल्लेख मिलता है. ‘भारती’ इस शब्द की व्याख्या करते हुए यास्क ‘भारत आदित्य तस्य भा: ‘ भारती वाक् और उससे जुड़े जन भी भारत हुए. ऋग्वेद में स्पष्ट उल्लेख आता है : ‘विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनं’. इन सबको देखते हुए प्रकाश के प्रति आकर्षण भारतीय परम्परा में आरम्भ से ही एक प्रमुख आधार प्रतीत होता है. प्रकाश के प्रमुख स्रोत अग्नि देवता है. गौरतलब है कि अग्नि सबको पवित्र करने वाला ‘पावक’ है और शरीर के भीतर (जठराग्नि!) और बाहर की दुनिया में बहुत सारे कार्य उसी की बदौलत चलते हैं. यहाँ तक की जल में भी वाड़वाग्नि होती है. आजकल के सुनामी इसे स्पष्टत: प्रदर्शित करते हैं. अग्नि की पूजा और अग्नि की सहायता से अन्य देवों की पूजा-अर्चना (हवन और आरती) भी की जाती है. भारतीय समाज में आज भी अनेक ब्रत और उत्सव प्रकाश के नियामक चन्द्र, सूर्य और अग्नि को केंद्र में रख कर आयोजित होते हैं. प्रकाश और अन्धकार से सभी जीव जंतु जन्म से ही परिच जाते हैं. दिन और रात की नियमित प्राकृतिक व्यवस्था में अन्धकार और प्रकाश हमारे अनुभव की दुनिया के अकाट्य और स्थायी हिस्से के रूप में आते हैं जिनकी परिधि के अन्तर्गत ही सारे जीवन व्यापार आयोजित होते हैं. बिना थके हारे अन्धकार से जूझना और प्रकाश को पाने का क्रम अनवरत चलता है.

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उल्लेखनीय है कि सूर्य के प्रकाश की ऊष्मा की शक्ति पशु, पक्षी, मनुष्य तथा वनस्पति सब के लिए जीवनदायी होती है. ऐसे में जहां प्रकाश आशा, उत्तेजना, गति और उत्कर्ष का संकेत करने वाला मान लिया गया वहीं अन्धकार निराशा, शिथिलता, ठहराव और गिरावट को व्यंजित करने वाला मान लिया गया. अन्धकार को तम भी कहते हैं और उसके कई अर्थ मिलते हैं जैसे परिश्रान्त होना, दम घुटना, दुखी होना, भ्रम, मानसिक अन्धेरा, शोक, पाप, और अज्ञान आदि . प्रकृति के तीन गुणों में सत्व और राज के साथ एक तमो गुण भी है जो निष्क्रियता को बताता है . तम राहु नामक दुष्ट ग्रह का भी नाम है. दूसरी ओर प्रकाश चमकने वाला, दीप्ति, कांति, आभा, उज्जवलता और प्रस्फुटन को द्योतित करता है. प्रकाश भारत की सजग सांस्कृतिक स्मृति का हिस्सा भी बन चुका है. श्रीराम के अयोध्या आगमन के अवसर पर आयोजित भव्य दीपोत्सव भी इससे जुड़ा है तो भगवान महावीर का निर्वाण भी. दीपावली का उत्सव ग्रीष्म ऋतु के बाद शीत के आगमन और खेती-किसानी में समृद्धि के अनुभव के अवसर के रूप में उपस्थित होता है . इस समय घर की अच्छी तरह साफ़-सफाई की जाती है और घर-बाहर चारों ओर दीपक जलाए जाते हैं. अब मिट्टी के दिए की जगह बिजली की लड़ियाँ और बल्ब जलाए जाने लगे हैं. संध्या काल लक्ष्मी और गणेश की पूजा की जाती है और एक दूसरे को मिठाई खिलाई जाती है. प्रज्वलित दीप उद्दीप्त करने वाला होता है और उसकी चमक आभा घना से घना से घना अन्धेरा भी भाग खड़ा होता है. पर भौतिक अँधेरे से अधिक कठिन है मन और अज्ञान का अन्धेरा. अज्ञान होने पर दुनिया सिमट जाती है और कार्य करने के अवसर संकुचित हो जाते हैं. दीपावली का त्यौहार हमें खुद को भी टटोलने का न्योता देता है कि व्यापक जीवन में भी सत्य और ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हों.

अज्ञान ही सबसे बड़ा अन्धकार है और उसे दूर करना और उसके असर से बचा रहना बड़ा ही आवश्यक है. मुश्किल यह है कि कई बार हम कुछ और तरह के आकर्षण में आकर ज्ञान के मार्ग से विचलित हो जाते हैं और अधेरी राह पर चल पड़ते हैं जिसके परिणाम भयावह होते हैं.

अज्ञान से बड़ा कोई शत्रु नहीं होता और ज्ञान जैसा हित साधने वाला कोई मित्र नहीं होता है. सही गलत का भेद हो या शत्रु मित्र की पहचान हो गैर जानकारी में कुछ भी उचित ढंग से नहीं हो पाता. आज बहुत सी जानकारी और कौशल आम नागरिक की तरह जीने के लिए जरूरी हैं. हमारे मन में पल रहे दुराग्रह और भेद-भाव के विचार भी अन्धकार की ही तरह काम करते हैं. आज अपने से भिन्न मत , विचार और धर्म के प्रति सहिष्णुता कम हो रही है. अपने ऊपर अभिमान की पर्त चढ़ा कर हममें से बहुतों की दृष्टि संवेदनशून्य होती जा रही है. अपने सीमित आत्मबोध को ही सत्य की कसौटी मान कर लोग नियम-कानून का पालन न करना, झूठ बोलना और अवैधानिक तौर तरीके अपना कर अवांछित लाभ उठाने में नहीं हिचकते . यह सब भी अन्धकार का ही रूप है. हममें से बहुतेरे लोग अज्ञान और भ्रम के कारण उचित अनुचित का विवेक नहीं कर पाते और दूसरों का शोषण करते हैं. घूस खोरी और गलत तरीकों से पैसा कमाने के नाजायज कोशिश के मामले पिछले वर्षों में बढ़ते गए हैं. आज समाज में यदि एक और अपराध और अनैतिक काम करने वालों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है तो गरीबी, कुपोषण और कई तरह की बीमारियाँ भी अज्ञान के अन्धकार के कारण कम नहीं हो पा रही हैं. समाज में व्याप्त कुरीतियाँ भी अन्धकार का ही रूप है. आज पाखण्ड और मिथ्याचार तेजी से बढ़ रहा है. झूठ-फरेब को सफलता की युक्ति की तरह प्रयोग में लाया जा रहा है. व्यापार, स्वास्थ्य, शिक्षा और राजनीति जीवन के हर क्षेत्र में प्रामाणिकता की जगह विज्ञापनों की भरमार हो रही है. उग्र भौतिकता के असर में जीवन मूल्यों और सृष्टि के साथ रिश्तों की नई इबारत लिखी जा रही है जिसमें रिश्तों-नातों समेत सब कुछ उपभोग की वस्तु बनती जा रही है. एकांत उपभोग की साधना में ग्रस्त होकर लोग अपना विवेक खोते जा रहे हैं. समर्थ भारत के स्वप्न को साकार करने के लिए आचरण के विवेक और शुचिता को पुन: स्थापित करना होगा.

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प्रकाश यानी ज्ञान और उससे आने वाली श्री और समृद्धि के लिए हमें व्यक्तिगत और सामाजिक स्तरों पर व्याप्त प्रकट और प्रच्छन्न अन्धकार से जूझना होगा. यह लड़ाई निरंतर चलने वाली है. हिन्दी के श्रेष्ठ कवि महाप्राण निराला ने १९३१ में ‘ वर दे वीणा वादिनी वर दे’ शीर्षक सरस्वती वन्दना लिखी थी जो पटना के युवक मासिक पत्रिका में छापी थी और अर्थ गाम्भीर्य और संगीतात्मकता के कारण बड़ी लोकप्रिय हुई. यह कालजयी कविता आज भी उतनी ही (या फिर अधिक!) प्रासंगिक है. याद रहे यह वही दौर था जब गुलाम भारत में देश में पूर्ण स्वराज्य की मांग उठी थी, गांधी-इरविन पैक्ट हुआ था और प्रख्यात क्रांतिकारी भगत सिंह और राजगुरु प्रभृति भारत माता के वीर सपूतों को अंग्रेज सरकार ने फांसी दी थी. पूरे देश में स्वतंत्रता की भावना प्रबल हो रही थी. तब निराला जी ने ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती आवाहन करते हुए कहा :

काट अंध-उर के बंधन-स्तर, बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर, कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर, जगमग जग कर दे!

इन पंक्तियों में निराला जी ज्ञान की देवी सरस्वती से यह पार्थना करते हैं कि ह्रदय में व्याप्त अज्ञान , भ्रम का अन्धकार बंधन के रूप में विद्यमान है उस बंधन को काट फेक और ज्योति यानी ज्ञान के प्रवाह में सबको निमज्जित कीजिए ताकि हर तरह के कलुष या वैमनस्य के अन्धकार का नाश हो जाय और चारों और पावन प्रकाश फ़ैल जाय . यह प्रार्थना आज हर देशभक्त के मन में जग रही है. साम्राज्यवाद के दैत्य से लड़ कर महात्मा गांधी के नेतृत्व में देश को आजादी मिली . भारत ने लोकतंत्र का मार्ग चुना जिसके लिए समता, समानता, बंधुत्व और समरसता को आधार बनाया गया. सात दशकों में लोकतंत्र को सुरक्षित रखते हुए हम आगे बढे हैं परन्तु उसका प्रकाश सब तक अभी भी नहीं पहुंच पा रहा है. देश के भाव से जुड़ना और सबको जोड़ने की मानसिकता विकसित कर ही हम देश को प्रगति पथ पर ले जा सकेंगे. (डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं.)

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