हम इकट्ठा कर लें चाहे जितने दौलत के पहाड़….
काव्य
हम इकट्ठा कर लें चाहे जितने दौलत के पहाड़।
सामने रहते हैं फिर भी कुछ ज़रूरत के पहाड़।
पार कर लो एक को तो दूसरा तैयार है
क्या पता आएँगे कितने और आफ़त के पहाड़।
प्यार की गंगा बहाने की ज़रूरत है मगर
लोग तो रखते हैं अक्सर दिल में नफ़रत के पहाड़।
आज बौने हो गए वो राज़ जब उनके खुले
कल वो यूँ लगते थे जैसे हों शराफ़त के पहाड़।
चाहकर भी मान पाना जिनको है मुश्किल बहुत
वो खड़े कर देते हैं इतने नसीहत के पहाड़।
देवताओं, देवियों का वास जिनके दिल में है
पूजने लायक़ कई हैं अपने भारत के पहाड़।
ज़िम्मेदारी अपनी ही इनको बचाने की भी है
हैं तो आख़िर इक ज़रूरी अंग क़ुदरत के पहाड़।
शहर में कुछ दोस्तों के इतने ऊपर फ़्लैट हैं
चाहते हैं मिलना तो चढ़िए इमारत के पहाड़।
दृढ़ इरादे से निकल पड़ते हैं जो अभियान पर
वो फ़तह कर लेते हैं अक्सर हक़ीक़त के पहाड़।
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