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Shankaracharya – Jayanti: वेदान्त-प्रवक्ता आचार्य शंकर का अवदान: गिरीश्वर मिश्र

Shankaracharya – Jayanti: शंकराचार्य – जयन्ती के अवसर पर

‘वेदान्त’ यानी वेदों का सार भारतीय चिंतन की एक वैश्विक देन है और उसके अद्वितीय पुरस्कर्ता आचार्य शंकर हैं जो ब्रह्म को ’ एकमेवाद्वितीयम्’ मानते है. अर्थात ब्रह्म एक ही है . ब्रह्म से अलग कोई भी चीज वास्तविक नहीं है. और ब्रह्म के भाग या हिस्से नहीं हो सकते. अक्सर इस संसार के दो कारण माने जाते हैं जड़ और चेतन परन्तु वेदान्त एक ही तत्व मानता है जैसे मकड़ी अपना जाला बुनने के लिए किसी अन्य बाहरी वस्तु पर निर्भर नहीं करती वरन अपने ही पेट से तंतु निकाल निकाल कर जाला तैयार करती है. अपने दृष्टिकोण को दृढ़ता से रख आचार्य शंकर ने बौद्ध और मीमांसक मतों के सम्मुख बड़ी चुनौती रखी . उन्होंने वेद को भी महत्त्व दिया और युक्ति का भी उपयोग किया .

Shankaracharya – Jayanti: प्रचलित अनुश्रुतियों , मिथकों और कथाओं के नायक आचार्य शंकर की जीवन गाथा वैचारिक नवोन्मेष के गौरव की स्मृतियों के बीच बुनी गई है. द्वारिका, बदरीनाथ, पुरी और कांची के मठों के विवरण और दूसरे साक्ष्यों में आचार्य के जीवन काल को लेकर भारी विविधता है फिर भी उनका काल आठवीं सदी के पूर्वार्ध में आधुनिक इतिहासविद स्थापित करते हैं. केरल के कालडी में एक नम्बूदरी ब्राह्मण परिवार में जन्मे इस बालक की आरंभिक कथा कष्टमय थी. शैशव में ही पिता की छत्रछाया से वंचित इनका भरण-पोषण किया. बचपन में ही संन्यास की ओर उन्मुख शंकर घर छोड़ कर नर्मदा के तट पर आज के ओंकारेश्वर में गोविन्द भगवत्पाद के शिष्य हुए और वेदों, उपनिषदों और ब्रह्म सूत्र का गहन अध्ययन किया और उन पर भाष्य लिखे.

मीमांसा के विद्वानों जैसे कुमारिल भट्ट , प्रभाकर और मंडन मिश्र आदि के साथ शास्त्रार्थ , देशाटन , और देश में पूर्व, उत्तर, पश्चिम और दक्षिण मठों की स्थापना की घटनाओं का विवरण अनेक श्रोतों में मिलता है . वेदान्त की विचारधारा को स्थापित और प्रचलित करने में उन्हें कई शिष्य भी मिले जिनमें सुरेश्वर , चित्सुख, सदानंद, बोधेन्द्र, पद्मपादाचार्य प्रमुख हैं जिन्होंने स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे. अनुश्रुति के अनुसार बत्तीस वर्ष की आयु में हिमालय में स्थित केदारनाथ में वे दिवंगत हुए. स्त्रोत्र , भाष्य और प्रकरण ग्रन्थ जो उनके द्वारा रचित बताए जाते हैं उनकी संख्या 300 के करीब पहुँच जाती है. यद्यपि इसमें बहुत से दूसरों की रचानाएं भी हैं जो उनके नाम कर दी गई हैं.

अध्येताओं ने ब्रह्मसूत्र भाष्य , दस मुख्य उपनिषदों पर भाष्य , भगवद्गीता , योगसूत्र और आपस्तम्ब धर्म सूत्र पर भाष्य , भजगोविन्दम और सौन्दर्यलहरी , दक्षिणामूर्ति स्तोत्र , चर्पट पंजरिका , उपदेश साहस्री , विवेक चूडामणि और अपरोक्षानुभूति को ही प्रामाणिक उनकी रचनाएं स्वीकार किया हैं.

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आचार्य शंकर ने बादरायण द्वारा प्रवर्तित अद्वैत वेदान्त की अवधारणा को व्यवस्थित किया. उन्होंने तत्व मीमांसा का व्यवस्थित आधार लेते हुए प्रत्यक्ष और अनुमान को ही प्रमाण माना और ज्ञान में वस्तुनिष्ठता पर बल दिया. उनके अनुसार अन्वय या अर्थ लगाने में सन्दर्भ, आशय, अर्थ, अपूर्वता, युक्ति और परिणाम आदि का सांगोपांग विचार करना चाहिए. अन्वय-व्यतिरेक की पद्धति में वे ही अर्थ ग्राह्य होते हैं जो सभी विशेषताओं से जुड़ रहे हों और अनुरूप हैं. वेद और उपनिषद् ज्ञान के स्रोत हैं परन्तु आचार्य शंकर प्रमाण , तर्क और अनुभव की सहायता से अपना मत सिद्ध करते हैं. आत्म ज्ञान पाने के लिए नैतिक आचार से पवित्र चित्त की जरूरत होती है. उसके लिए यम और नियम का पालन करना होगा. आचार्य शंकर आत्मा और ब्रह्म की एकता प्रतिपादित करते हैं .

अपरिवर्तनशील ब्रह्म ही एक मात्र यथार्थ है तथा बदलती चीजों का कोई निरपेक्ष अस्तित्व नहीं होता है. उन्होंने प्रस्थान त्रयी (उपनिषद्, भगवद्गीता और ब्रह्म सूत्र )को आधार बनाया . वस्तुत: अद्वैत वेदान्त शास्त्र, युक्ति , अनुभव और कर्म की मदद से आगे बढ़ता है. जीवन-मुक्ति का आशय वह आत्म-बोध है वह आत्म और सर्वव्यापी ब्रह्म की एकात्मकता का ज्ञान देता है . इस मार्ग पर चलने में योग सहायक है. प्रत्याहार उपयोगी है परन्तु उसमें विचारों का दमन नहीं बल्कि विशेष से खींच कर सामान्य / सार्वभौम चैतन्य पर केन्द्रित किया जाता है तथा अज्ञान और अयथार्थ ज्ञान से मुक्ति मिलती है.

Shankaracharya – Jayanti: आचार्य शंकर के वेदान्त और महायान बौद्ध विचारों के बीच साम्य दिखता है यहाँ तक कि उन्हने ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ भी कहा गया है परन्तु आत्मा और ब्रह्मन का विचार निश्चय ही भिन्न है. आचार्य शंकर ‘अध्यास’ के विचार के लिए भी प्रसिद्ध हैं. उनके विचार में आत्मा और अनात्मा तथा प्रकाश और अन्धकार एक दूसरे के विपरीत हैं , तथापि संसार का काम दोनों को मिलाजुला कर चलता है. सच्चाई यह है कि हम विगत संस्कारों के फलस्वरूप एक चीज का दूरी चीज पर आरोप करते रहते हैं. आकाश का कोई रंग नहीं होता है परन्तु उसे नीला कहते हैं . ऐसे ही आत्मा भी बहरी नहीं होती पर लोग कहते हैं कि मैं बहरा हूँ. इस तरह का आरोप अध्यासवाद (या एक वस्तुका दूसरे पर आरोप ) कहलाता है.

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आचार्य शंकर ने अस्तित्व या सत्ता के तीन स्तरों का उल्लेख किया है : प्रातिभासिक अर्थात प्रतीत होने वाली सत्ता . सपनों में हम बहुत कुछ देखते हैं पर वह सपने देखते समय ही उपस्थित रहता है. दूसरा स्तर व्यावहारिक है . जागृत अवस्था में वस्तुएं बनी रहती हैं और संसार चक्र चलता है. पर ये वस्तुएं नित्य नहीं हैं क्योंकि कुछ समय बाद उनका नाश होता ही है . पर उनसे परे एक पारमार्थिक सत्ता है जो अविनाशी है . वही वास्तविक है . वही ब्रह्म है शेष सब मिथ्या है. यह विश्व कल्पना है जिसका आधार ब्रह्म है. ब्रह्म दीवार या पट है जिस पर विश्व का चित्र बना है. ब्रह्म कल्पना या वर्णन से परे है. उसका वर्णन नेति नेति अर्थात ‘यह नहीं है’, ‘यह नही है’ कह कर किया जाता है. नाम और रूप से परे ब्रह्म सत चित आनंद के रूप में ग्राह्य है. हमारी दुनिया अनिर्वचनीय या मिथ्या है क्योंकि वह शाश्वत भी नहीं है और उसका अभाव भी नहीं है.

वास्तविक ज्ञान न होने पर या अविद्या की स्थिति में ज्ञान , शक्ति और सुख सब कुछ सीमित और संकुचित हो जाता है.अविद्या की दो शक्तियां हैं : आवरण और विक्षेप. आवरण के चलते सत्य का ज्ञान नहीं होता और विक्षेप के कारण नई-नई रचनाएं होती हैं. आचार्य शंकर हमारे अनुभवों की व्याख्या करते हुए जागरण के अतिरक्त स्वप्न , सुषुप्ति और इन सबसे परे शुद्ध चैतन्य की चौथी अवस्था जिसे तुरीयावस्था कहते हैं प्रतिपादित की है जिसमें कर्तृत्व और इच्छा नहीं बल्कि आनंद की अनुभूति होती है. स्वप्न की आस्था आन्तरिक जगत में ज्ञान , क्रिया और इच्छा सक्रिय रहते हैं.

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स्मरणीय है कि वेदान्त कठिन तैयारी की मांग करता है . यह उनके लिए नहीं है जिनके मन में सांसारिक आकांक्षाएं सुगबुगा रही हों, चित्त अशांत हो, और इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति हो. इसके लिए शम ( शांत चित्त ), दम ( इन्द्रियों पर नियंत्रण ), उपरति ( विरक्ति), तितिक्षा (सहनशीलता ) समाधि ( एकाग्र मन) , श्रद्धा ( उपनिषद् आदि में निष्ठा ) , नित्य -अनित्य का विवेक , भोग से विराग और मुमुक्षत्व ( मोक्ष की तीव्र इच्छा ). श्रवण , मनन और निदिध्यासन की सहायता से वेदान्त का चिंतन करते हुए वेदान्त का साधक जीव और ब्रह्म की एकता का अनुभव करता है. ज्ञान होने पर मिथ्या की अनुभूति से अलग हो कर ब्रह्म का ज्ञान होता है. भेद-बुद्धि दूर करने के लिए तत्वमसि अर्थात जीव ही ब्रह्म है , अहं ब्रह्मास्मि ( मैं ब्रह्म हूँ ) और सर्वं खल्विदं ब्रह्म ( सब कुछ ब्रह्म ही है ) आदि महा वाक्यों पर सतत मनन जरूरी है. ब्रह्म की खोज अंतत: द्वित्व के समापन से होती है.

ऐतिहासिक रूप से आचार्य शंकर का काल उथल पुथल का था .उस अवधि में साहसपूर्वक सनातन ज्ञान परम्परा को व्यवस्थित कर प्रतिष्ठित किया. वे एक ब्रह्म के विविध रूप में देवी देवताओं की आराधना का प्रतिपादन कर एक व्यापक दृष्टि दी. स्मार्त परम्परा का परिष्कार , मठों का निर्माण , तथा दार्शनिक ज्ञान का प्रसार आदि के द्वारा आचार्य शंकर ने भारत की सांस्कृतिक एकता का पुष्ट आधार बनाया. एक प्रखर चिन्तक के रूप में आचार्य शंकर आज भी दार्शनिकों को प्रेरित करते हैं.

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