शिक्षा के बदलते परिदृश्य में सार्थक हस्तक्षेप की जरूरत
यदि आजादी के समय से तुलना की जाय तो आज भारत में साक्षरता , शिक्षा संस्थाओं की संख्या और स्कूल में नामांकन भी बढा है और हम गर्व भी महसूस कर सकते हैं परंतु जब विद्यार्थियों की उपलब्धि,गुणवत्ता और ज्ञान में वृद्धि की बात करते हैं तो स्थिति बड़ी चिंताजनक दिखती है. सरकारी और गैर सरकारी मूल्यांकन स्पष्ट रूप से बता रहे हैं कि सरकरी स्कूलों ( जिनमें 70 प्रतिशत बच्चे पढने जाते हैं ) के बच्चों की गणित, भाषा और अन्य विषयों में उपलब्धि उनकी कक्षा स्तर की तुलना में बड़ा नीचे है. माध्यमिक और उच्च शिक्षा के स्तरों पर भी अध्ययन-अध्यापन को ले कर व्यापक असंतोष व्यक्त किया जाता रहा है. विद्यार्थियों में जरूरी कुशलता का अभाव और अकादमिक कमजोरियों के तमाम उदाहरण आए दिन देखने को मिलते हैं. शोध की वैधता को सुरक्षित करने के लिए साहित्यिक चोरी के लिए कानून बनाना पड़ा . उच्च शिक्षा पा कर डिग्रीधारी बेरोजगारों की संख्या भी बढती गई है. शिक्षा जगत की इन सब बिडम्बनाओं के चलते शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन लाने के लिए आवाज उठती रही है परंतु अन्याय कारणों से शिक्षा का प्रश्न टलता गया था और 1986 में शिक्षा नीति आने के बाद मात्रात्मक सुधार के अतिरिक्त कोई बदलाव नहीं आ सका . ऐसे में वर्तमान सरकार ने जब इस कार्य को हाथ में लिया तो सबकी आशाएं जी उठी थीं कि बासी हो रही व्यवस्था में परिवर्तन आएगा और इक्कीसवीं सदी के लिए जब कि भारत युवतर हो रहा है एक ऐसी शिक्षा नीति बनेगी जो समाज को दिशा दे सके. सरकार ने बड़ी संजीदगी के साथ समाज में व्यापक सलाह मशविरे के बाद नई शिक्षा नीति जारी की है.
शिक्षा सामाजिक परिवर्तन का माध्यम होती है और उसी से समाज की चेतना और मानसिकता का निर्माण होता है. ‘शिक्षा नीति – 2020’ एक ऐसे दस्तावेज के रूप में उपस्थित हुआ है जो भविष्य के भारतीय समाज को तैयार करने के लिए खाका प्रस्तुत करता है. इस दस्तावेज में उन समस्याओं को पहचाना गया है जिनसे शिक्षा का स्वरूप और उसकी उपलब्धियां विश्रंखलित हुई हैं और बड़े साहस के साथ स्वरूप और प्रक्रिया में कई महत्वपूर्ण बदलाव किए गए हैं.
भविष्य की जरूरतों का आकलन करते हुए और अपनी जमीन पर टिकते हुए वैश्विक बदलाव के प्रति संवेदना के साथ यह नीति रचनात्मकता और रुचि के अनुसार विद्यार्थी के बहुमुखी विकास के अवसर उपलब्ध कराने का वादा करती है . विषय वस्तु तो माध्यम है पर जरूरी है सीखने की ललक पैदा करना और इसके लिए विकल्प देना. खास तौर पर आज के माहौल में जब जीवन की परिधि और जटिलता बढती जा रही है, अवसरों की विविधता बढ रही है यह नीति विद्यार्थियों को अध्ययन-विषयों के चयन में व्यापक अवसरों का प्रावधान करते हुए संभावनाओं का द्वार खोलती है. आज सभी महसूस कर रहे हैं कि अंतरानुशासनिक (इंटर डिसिप्लिनरी) अध्ययन के बिना सनुचित अध्ययन संभव नही है. ऐसे में कला , विज्ञान और व्यावसायिक विषयों की पारस्परिकता का सम्मान करना आवश्यक है. शिक्षानीति में इसके लिए अवसर बनाया गया है जिसका स्वागत होना चाहिए.
एक दूसरे स्तर पर इस बात को विद्यार्थी की रुचि और तत्परता से भी जोड़ते हुए अध्ययन में प्रवेश और उससे बाहर जाने के अवसर बढाए गए हैं. यह एक बड़ा कदम है. आज हर कोई आंख मूंद कर हाई स्कूल, इंटर, बी.ए. और एम.ए. की शृंखला में आगे बढता रहता है . एक बार घुसने पर कहीं बीच में निकलने का न अवसर होता है और न उद्देश्य सिद्ध होता है. इच्छा या अनिछा से हर कोई इस भेंड़ चाल में शामिल रहता है. आज उच्च शिक्षा में लगन के साथ पढने वालों और समय-यापन करने वालों के बीच व्यवस्था के स्तर पर कोई फर्क न होने से नाहक भीड़ बढती है और व्यवस्था पर दबाव से गुणवत्ता पर असर पड़ता है. ऐसे में चार वर्ष के बी ए के पाठ्य क्रम को एम ए के लिए और शेष छात्र छात्राओं को डिप्लोमा और डिग्री दे कर दो और तीन वर्ष की पढाई के साथ जोड़ना अच्छी पहल है. उच्च शिक्षा के साथ न्याय के लिए यह व्यवस्था एक प्रभावी कदम साबित होगा.
इस नीति में भारत की बहु भाषाभाषी समृद्ध परम्परा को भी स्थान दिया गया है और भाषा के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया गया है. प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बना कर और आगे त्रिभाषा अध्ययन की व्यवस्था भारतीय समाज की प्रकृति की दृष्टि से बहुत ही उपयुक्त है. भाषा न केवल किसी भी क्षेत्र में ज्ञान के लिए अनिवार्य आधार का काम करती है बल्कि अभिव्यक्ति और सांस्कृतिक जीवन के लिए भी आवश्यक है. यह खेद का विषय है कि भाषा के अध्ययन-अध्यापन के प्रति बड़ा लचर रवैया अपनाया जाता रहा है . इसके फलस्वरूप भाषिक योग्यता में लगातार गिरावट होती रही है. इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में इस वर्ष हाई स्कूल की परीक्षा में आठ लाख विद्यार्थी फेल हो गए हैं. नई शिक्षा नीति में भाषा और भारतीय ज्ञान परम्परा के साथ परिचय को महत्व दे कर सांस्कृतिक रूप से समृद्ध करने और देश की एकता के लिए मार्ग प्रशस्त किया है.
शिक्षा की उपलब्धि का मूल्यांकन कैसे किया जाय यानी परीक्षा का प्रश्न भारतीय शिक्षा का एक दुखद पहलू है. उसकी प्रामाणिकता और परेशानियों को ध्यान में रख कर कई सुधार प्रस्तावित किए गए हैं . यह प्रस्ताव कि प्राप्तांक पत्र विद्यार्थी को अंकों में समेटने के बदले उसके कौशलों और उपलब्धियों का विवरण दे और परीक्षा परिणाम से असंतुष्ट होने पर सुधारने का अवसर मिले स्वागतयोग्य है. इसी तरह औपचारिक शिक्षा को किताबी और रटंत पद्धति से मुक्त करते हुए जीवन और कौशल से जोड़ने की भी व्यवस्था की गई है जो विद्यार्थी के व्यक्तित्व के विकास और सामाजिक दायित्व से जुड़ने का अधिकाधिक अवसर का प्राव धान किया गया है. इसी तरह शिक्षा पाने के अन्य साधनों और केंदों के साथ जुडने को भी समुचित मानते हुए ज्ञान के विस्तार के लिए लचीली व्यवस्था की गई है.
शिक्षा की इस महत्वाकांक्षी पहल का देश को बहुत समय से इंतजार था. पिछले सात दशकों में एक तरह की उदासीन या एकांगी दृष्टिकोण के चलते ठहराव आता गया था और मौलिकता , सृजनशीलता और कुशलता की जगह नकल, पुनरुत्पादन और कामचलाऊ अनुष्ठान ( रिचुअल) से काम चलाने की प्रवृत्ति को बढावा मिलता रहा . प्राय: कर के जो आवश्यक प्रश्न, जरूरी आंकड़े, समाधान की युक्तियां और सैद्धांतिक दृष्टि थी उसका बौद्धिक नियंत्रण यूरो-अमेरिकी ज्ञान की परम्परा में टिकका रहा . उन्हीं का विस्तार , परीक्षण और पुष्टि का प्रयास चलता रहा और ज्ञान-निर्माण का भ्रम निष्ठा और श्रद्धा के साथ पाला जाता रहा. इन सब प्रयासों का भार ढोने और पश्चिमी दृष्टि के वर्चस्व में ही भविष्य दिखता रहा. इस पूरी प्रक्रिया में दुहराव ही अधिक हुआ पर ज्ञान-विज्ञान की कवायद ( ड्रिल) से मन में भरोसा आता रहा.
शोध के नाम पर प्रचुर कूड़ा कचरा न केवल एकत्र हुआ है बल्कि शिक्षा की रक्त वाहिनियों में प्रवेश कर चुका है. उसके घुन से उपजे विष और प्रदूषण से आज निजात पाना मुश्किल हो रहा है. वह ज्ञान पाने की नबका समवेत परिणाम यह हुआ कि पूरा शैक्षिक परिवेश संकुचित प्रवृत्तियों का शिकार होता गया और गैर शैक्षणिक समर्थन जुटा कर शिक्षा संस्थान की जगह सीमित हितों की रक्षा का उद्योग खड़ा होत गया. संस्कृति, समाज , संदर्भ और मूल्य जैसे प्रश्न दकियानूसी करार दिये जाते रहे. यहां के मेधावी विद्यार्थी क्षुब्ध हो कर विदेशी संस्थानों की ओर रुख करने लगे और आज लाखों की संख्या में ये विद्यार्थी यूरोप और अमेरिका के विश्वविद्यालयों में अध्ययन कर रहे हैं और अच्छा कार्य कर रहे हैं.
नई शिक्षानीति का बीज शब्द ‘गुणवत्ता’ है और सच कहें तो उसकी स्थापना के अलावे हमारे पास कोई चारा भी नहीं है. हम तभी प्रामाणिक और उपयोगी ज्ञानार्जन कर सकेंगे जब हमारे अध्ययन में गुणवत्ता होगी. कुल मिला कर शिक्षा नीति-2020 शिक्षा जगत के लिए एक मधुर स्वप्न की तरह है .
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इसके संरचनात्मक और प्रक्रियात्मक सुधार में केंद्रीकरण का भय दिखता है परंतु आज इतनी अधिक विविधता और स्थानीयता है कि उसकी आड़ में बहुत सा अनर्गल काम होता है. वस्तुत: शैक्षिक जगत के लिए स्वायत्तता, पार्दर्शिता और दायित्व बोध का संतुलन आवश्यक है.
आशा है इस आधारभूत प्रतिज्ञा को नहीं भुलाया जायगा. पर यह सब तभी हो सकेगा जब जी डी पी का प्रस्तावित छह प्रतिशत शिक्षा को उपलब्ध कराया जाय. यह निवेश करना देश हित में होगा और तभी हमारी आकांक्षाओं के लिये हकिकत में स्थान मिलेगा।