Mother tongues of india

मातृभाषा (Mother toungue) और शिक्षा का लोकतंत्रीकरण

मातृभाषा (Mother toungue)

मनुष्य इस अर्थ में भाषाजीवी कहा जा सकता है कि उसका सारा जीवन व्यापार भाषा के माध्यम से ही होता है । उसका मानस भाषा में ही बसता है और उसी से रचा जाता है । दुनिया के साथ हमारा रिश्ता भाषा की मध्यस्थता के बिना अकल्पनीय है । इसलिए भाषा सामाजिक सशक्तीकरण के विमर्श में प्रमुख किरदार है फिर भी अक्सर उसकी भूमिका की अनदेखी की जाती है । भारत के राजनैतिक – सामाजिक जीवन में ग़रीबों , किसानों , महिलाओं , जनजातियों यानि हाशिए के लोगों को सशक्त बनाने के उपाय को हर सरकार की विषय सूची में दुहराया जाता रहा है ।

प्रो. गिरीश्वर मिश्र

वर्तमान सरकार पूरे देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कृत संकल्प है । आत्म-निर्भरता के लिए ज़रूरी है कि अपने स्रोतों और संसाधनों का उपयोग को पर्याप्त बनाया जाए ताकि कभी दूसरों का मुँह न जोहना पड़े । इस दृष्टि से ‘स्वदेशी’ का नारा बुलंद किया जाता है । कभी इस तरह की बातें ग़ुलाम देश को अंग्रेज़ी साम्राज्य की क़ैद से स्वतंत्र कराने और स्वराज्य स्थापित करने के प्रसंग में की ज़ाती थीं । इस विमर्श में स्वदेशी की राह पर चल कर मिलने वाला स्वराज्य सर्वोदय यानी सबके कल्याण के लिए था । अंग्रेज गए , स्वराज्य आया और देश में अपना शासन स्थापित हुआ । यद्यपि ‘स्वराज्य’ का आशय अपना राज भी था और अपने ऊपर भी राज्य अर्थात् आत्म-नियंत्रण भी था हम पहला अर्थ ही अधिक समझ पाए ।

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फलतः राज करना मुख्य रूप से अधिकार जमाने और दूसरों पर शासन करने तक ही सिमट गया । सरकार का स्वभाव बहुत कुछ नौकरशाही की प्रमुखता वाली अंग्रेजों की शैली के अनुकूल ही बना रहा । सरकार तो आख़िर सरकार ही होती है । जनतंत्र में जिस लोकशाही की उम्मीद थी वह धीरे-धीरे बिखरती गई और राजा और प्रजा , शासक और शासित का भेद बढ़ता गया । ग़नीमत यही रही कि समय के साथ चेहरे थोड़े बहुत बदलते गए । धीरे धीरे राजनीति से आचरण की शुचिता जाती रही और छल , बल , शक्ति और सम्पदा आदि का बोलबाला होता गया । इसकी पृष्ठभूमि अंग्रेजों की विरासत में देखी जा सकती है ।

अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना की कथा से सभी परिचित हैं । आर्थिक फ़ायदों के लिए अंग्रेज भारत में प्रविष्ट हुए और यहाँ शासन पर किस तरह क़ब्ज़ा किया उससे स्पष्ट है कि उनके आर्थिक सरोकार सदैव प्रमुख बने रहे । इस प्रयास में उन्होंने शोषण और दोहन तो किया ही यहाँ के सांस्कृतिक और बौद्धिक – आंतरिक शक्ति को भी यथाशक्ति ध्वस्त किया । सामाजिक भेद भाव की खाई को बढ़ाते हुए भारत की पहचान को विकृत किया । यह सब ऐसे योजनाबद्ध ढंग से हुआ कि अनेक भारतीय उस अंग्रेज़ी दृष्टि को स्वाभाविक , प्रासंगिक और सार्व भौम मान बैठे । उनकी तुलना में भारतीय विचार कमतर आंके जाने लगे और उनकी प्रासंगिकता अधिकाधिक प्रश्नांकित होती गई। भारतीय ज्ञान परम्परा को हाशिए पर पहुँचा कर और उसके बारे में तरह -तरह के संशय फैला कर अंग्रेज लोग भारतीय शरीर में अंग्रेज़ी मन को स्थापित करने में सफल रहे ।

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शासक और शासित की स्पष्ट समझ बनी रहे इसके लिए अंग्रेजों ने कई उद्यम किए अंग्रेजों ने अंग्रेज़ी भाषा और पश्चिमी शिक्षा की पौध रोपी और इस तरह से योजना बनाई हम हम न रह गए । शरीर तो भारत का रहा पर मन और बुद्धि अंग्रेज़ीमय या अंग्रेज़ीभक्त हो गया । भवसागर से उद्धार या मोक्ष के लिए हमने अंग्रेज़ी की नौका को स्वीकार किया और उसे शिक्षा तथा आजीविका का स्रोत बना दिया । अंग्रेजों ने व्यवस्था ऐसी चाक चौबंद कर दी थी कि अंग्रेज़ी से मुक्ति अंग्रेजों से मुक्ति से कहीं ज़्यादा मुसीबतज़दा और मुश्किल पहेली बन गई। स्वतंत्र भारत में शिक्षा का जो साँचा तैयार हुआ उसकी आधार भूमि ग़ुलाम भारत वाली ही थी । अंग्रेज तो भारत से बिदा हो गए पर उनकी रची व्यवस्थाएँ बनी रहीं और उनके साथ ज़्यादा छेड़छाड़ मुनासिब नहीं समझी गई । उनका मानसिक उपनिवेश पूर्ववत क़ाबिज़ रहा ।

Mother toungue

हम स्वयं को उन्हीं के आइने में देखने के अभ्यस्त होते गए । वे ही ज्ञान-विज्ञान के मानक संदर्भ बन गए । यह प्राकृतिक विज्ञानों में स्वीकार्य था परंतु सामाजिक विज्ञानों और मानविकी जैसे अध्ययन क्षेत्रों में इसके घातक परिणाम हुए और भारत की हमारी समझ उलट पलट सी गई । ऐतिहासिक क्रम में जिस काल खंड में ये विषय भारत में आरम्भ हुए इनकी रचना यूरोप की दृष्टि के अनुरूप हुई पर उसे विश्वजनीन मान कर स्थापित किया गया । इसका परिणाम हुआ कि एक आरोपित दृष्टि थोप दी गई और ज्ञान सृजन में हम प्रामाणिक और प्रासंगिक नहीं हो सके । इस पूरे आयोजन में शिक्षा माध्यम अंग्रेज़ी ने बड़ी भूमिका निभाई । यह देखते हुए भी कि रुस , चीन , जापान , फ़्रांस या जर्मनी हर देश अपनी भाषा में ही शिक्षा देना उचित समझता है ।वे ज्ञानार्जन और शासन दोनों ही काम एक ही भाषा में करते हुए आगे बढ रहे हैं। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि मातृभाषा में सहजता से अध्ययन और शोध सम्भव होता है ।

चूँकि बच्चा मातृभाषा (Mother toungue) की ध्वनियों की गूंज के बीच जन्म लेता है और उसी के शब्दों से अपनी वाणी को गढ़ता है किसी अपरिचित विदेशी भाषा को शैक्षिक संवाद और संचार का माध्यम बना कर अनुवाद की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी सौंप दी जाती है । इसका सीधा परिणाम यह होता है कि सृजनात्मकता प्रतिबंधित हो जाती है और अध्ययन में मौलिक चिंतन की जगह अनुगमन करते रहना ही नियति बन जाती है ।

Mother toungue

अंग्रेज़ी में विश्व का अधिकांश ज्ञान उपलब्ध है और अनेकानेक देशों में उसका प्रसार है यह विचार मात्र अंशत : सही है । इस भ्रम के अधीन हो कर अंग्रेज़ी को शिक्षा का माध्यम बना कर शिक्षा की प्रक्रिया को टेढ़ा कर बैसाखी पर टांग दिया गया । इसका प्रभाव सीखने की गति को बाधित करने के साथ – साथ भारतीय भाषाओं और भारतीय संस्कृति की समझ को कमजोर करने वाला हो रहा है । वर्तमान सरकार ने आत्मनिर्भर भारत और स्वदेशी की अवधारणा को विमर्श के केंद्र में लाकर सामर्थ्य के बारे में हमारी सोच को आंदोलित किया है । इसी कड़ी में नई शिक्षा नीति में मातृभाषा को शिक्षा के माध्यम के रूप में अवसर देने पर विचार किया गया है। यह निर्विवाद रूप से स्थापित सत्य है कि आरम्भिक शिक्षा यदि मातृभाषा में हो तो बच्चे को ज्ञान प्राप्त करना सुकर हो जाएगा और माता पिता पर अतिरिक्त भार भी नहीं पड़ेगा । शिक्षा स्वाभाविक रूप से संचालित हो इसके लिए मातृभाषा में अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए ।

एक भाषा में दक्षता आ जाने पर दूसरी भाषाओं को सिखाना आसान हो जाता है । अतः अंग्रेज़ी या किसी अन्य भाषा को एक विषय के रूप में अध्ययन विषय बनाना उचित होगा । भारत एक बहुभाषी देश है और ज़्यादातर लोग एक से अधिक भाषाओं का अभ्यास करते हैं। इसलिए बहुभाषिकता के आलोक में मातृभाषा (Mother toungue) का आदर करते हुए भाषा की निपुणता विकसित करना आवश्यक है । देश के लिए सामर्थ्य की चिंता में भाषा के प्रश्न की अवहेलना किसी के लिए भी हितकर नहीं है ।

मातृभाषाओं में शिक्षा की व्यवस्था से भाषाएँ और समाज दोनों ही सशक्त होंगे । कहना न होगा कि भाषा के संस्कार ही संस्कृति के संरक्षण और संबर्धन का भी अवसर बनेगा और लोकतंत्र में जन भागीदारी भी सुनिश्चित हो सकेगी । आशा है मातृभाषा में शिक्षा के संकल्प को अमल में लाया जाएगा । शिक्षा में लोकतंत्र मातृभाषा के माध्यम से ही आ सकेगा जो देश के विकास का आधार है.

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो:

Mind is the cause of human suffering and liberation.

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