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आदिवासी समाज के लिए नई शिक्षा नीति 2020 के मायने

कुमार सत्यम
कुमार सत्यम

सहायक प्राध्यापक, समाज कार्य विभाग
डॉ. भीमराव अंबेडकर कॉलेज,दिल्‍ली विश्वविद्यालय

भारत में नई शिक्षा नीति, 2020 लागू हो गई है. 2वीं शताब्दी की यह पहली शिक्षा नीति है. आनेवाले समय में शिक्षा में मूलभूत परिवर्तन देखने को मिलेगा. स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक कई बड़े बदलाव किए गए हैं. इस बदलाव का सीधा असर भारत के विकास में भी परिलक्षित होगा. भारत की सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखा गया है. इस नीति में इस बात पर भी बल दिया गया है की विद्यार्थियों सिर्फ साक्षर ही नहीं बल्कि तार्किक एवं समस्या समाधान जैसी क्षमताएं विकसित हो. साथ ही उनके व्यक्तित्व विकास के लिए सामाजिक, नैतिक एवं भावनात्मक रूप से सबल हो. इस दिशा में शिक्षा एवं व्यक्तित्व विकास की नींव प्रारंभिक बाल्यावस्था से ही किया जाएगा. माना जाता है कि बच्चों का मस्तिष्क का महत्तम विकास 6 वर्ष से पूर्व हो जाता है. ऐसे में 6 वर्ष की अवस्था तक शारीरिक एवं मानसिक विकास महत्वपूर्ण हो जाता है.

नई शैक्षणिक एवं पाठ्यक्रम का ढांचा 5+3+3+4 का होगा, जिसमें प्रारंभिक 3 वर्षों की आयु से ही बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास पर गंभीरता से कार्य किए जाएंगे. इन आरंभिक वर्षों में आंगनबाड़ी के सहयोग से भी स्कूली शिक्षा का प्रावधान रखा गया है.

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बाल्यावस्था से ही बच्चों के मानसिक एवं शारीरिक विकास के प्रति सरकार की संवेदना शिक्षा के मूल उद्देश्यों को प्राप्त करने में सार्थक होगा. पांचवी वर्ग तक अपनी क्षेत्रीय एवं स्थानीय भाषा में अध्ययन अध्यापन का प्रावधान नई शिक्षा नीति में रखा गया है. एक आंकड़े के अनुसार भारत में 1635 आदिवासी भाषाएं प्रचलित है जिसमें 197 भाषाओं को यूनेस्को ने संकटग्रस्त भाषा घोषित किया है. आदिवासी समाज के संदर्भ में देखा जाए तो यह एक सकारात्मक कदम है. अपनी भाषा में अध्ययन उनके समझ को तो विकसित करेगा, साथ ही सभी संकटग्रस्त भाषाएं को नया जीवन मिलेगा. प्राथमिक विद्यालय स्तर पर आदिवासी छात्रों की सकल नामांकन अनुपात में गिरावट नजर आती है. आदिवासी बच्चे के सकल नामांकनअनुपात में कमी कहीं ना कहीं वर्तमान की शिक्षा नीति में इस प्रावधान का ना होना था.

भारत के रजिस्टार जनरल के आंकड़ों के अनुसार अनुसूचित जनजाति की साक्षरता दर 59 प्रतिशत है. अनुसूचित जनजाति के महिलाओं की साक्षरता दर तो सिर्फ 49.40 प्रतिशत है. भारत की जनगणना 2011 के अनुसार ऐसे 10 राज्यों में 88 जिले को चिन्हित किया गया है जहां पर अनुसूचित जनजाति की साक्षरता दर अत्यंत निम्न है. सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में 28 जिले ऐसे हैं जहां पर इस समाज के खासकर महिलाओं की साक्षरता दर 35 प्रतिशत या इससे कम है.

एकीकृत-शिक्षा जिला सूचना प्रणाली के वर्ष 2013 से 2017 के आंकड़ों पता चलता है कि प्राथमिक शिक्षा से उच्च शिक्षा आने तक सकल नामांकन अनुपात में अत्यंत गिरावट आता है. जहां 2013-14 में प्राथमिक शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात 113.2 है वही उच्च शिक्षा में सिर्फ 11.3. और यह स्थिति वर्तमान समय तक देखी जा सकती है. मानव संसाधन विकास मंत्रालय (वर्तमान में शिक्षा मंत्रालय) के स्कूली शिक्षा विभाग के आंकड़ों के अनुसार कक्षा । से ।0 तक आदिवासी विद्यार्थियों ड्रॉपआउट दर भी सामान्य बच्चों से कहीं अधिक है. पाठ्यक्रम की सामग्री, विद्यार्थियों एवं शिक्षकों की अलग भाषा, उदाहरणों में उनके सामाजिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की अनुपस्थिति आदि कारण उनकी शिक्षा के स्तर को बढ़ाने में अक्षम सिद्ध हो रहे थे. निम्न कक्षा के पाठ्यक्रम की पुस्तकों में ऐसे उद्धरण को शामिल करना जिससे आदिवासी बच्चे का कभी वास्ता ही ना रहा हो, नैसर्गिक सीखने की प्रवाह को अवरुद्ध करता है. नई शिक्षा नीति के लागू हो जाने से इस समाज के बच्चे अपने परिवेश के साथ सामंजस्य बिठाते हुए सामान्य शिक्षा को आत्मसात करेंगे. शिक्षा एवं विद्यालय अब इनके लिए मध्यान भोजन की प्राप्ति तक सीमित नहीं होगा बल्कि शिक्षा उनकी चेतना को विकसित कर सर्वांगीण विकास के लिए भी उपयोगी होगा. ग्रामीण एवं आदिवासी परिवेश के स्कूली बच्चे अपनी अध्ययन बीच में छोड़कर परिवार की आर्थिक मदद के कार्य में सम्मिलित होते हैं.

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अभिभावकों का शिक्षा के प्रतिउदासीनता भी एक कारण है.यह अत्यंत ही निराशाजनक पहलू है. नए प्रावधानों में इन सभी विषयों को ध्यान में रखकर कौशल विकास के कोर्सेज को भी कक्षा 6 से 8 से ही आरंभ कर देने की बात की गई है. विद्यार्थियों को शिक्षा के साथ-साथ विभिन्न कौशल ने भी दक्ष होना उनके हित में रहेगा. खासकर उन आदिवासी समाज के बच्चों के लिए जिनके पास रोजगार के सीमित साधन होते हैं. उच्च शिक्षा में इन समुदायों की पहुंच बहुत ही कम है. तकनीकी एवं यांत्रिकी शिक्षा में उनकी अनुपस्थिति का कारण समझ में आता है. पर अब यह की स्थिति बदलने वाली है. शिक्षा अब किसी विशेष तबके के लिए ना होकर सर्वभौमिक होगा जहां सभी वर्गों के लिए समान अवसर होंगे. 100 प्रतिशत नामांकन, प्रारंभिक कक्षाओं में क्षेत्रीय भाषा की प्राथमिकता एवं बच्चों के समग्र विकास के प्रति उत्तरदाई होना आदि नई शिक्षा नीति के प्रावधान, आदिवासी समाज के लिए एक प्रतिमान विस्थापन के तरह होगा. सरकार के सहयोग के साथ अभिभावकों को अपनी मनःस्थिति में बदलाव अपेक्षित है. अब यह उम्मीद की जा सकती है कि भारत के आदिवासी समाज नई शिक्षा नीति अत्यंत लाभाचित होंगे एवं शिक्षा के महत्व को पहचान कर अपने समाज में मूलभूत परिवर्तन लाने की कोशिश करें. पिछड़ा, गरीब एवं अशिक्षित जैसे संज्ञा उनके समाज के लिए नहीं होगा. किसी भी देश की उन्नति एवं प्रगति तभी संभव है जब उस देश के सभी समुदायों का सर्वांगीण विकास हो.

भारत के सभी तबकों के प्राणी का समेकित विकास, साथ ही व्यक्ति को एक संसाधन नहीं बल्कि सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं सामाजिक प्रतिमूर्ति की तरह विकसित हो, इसी भाव के साथ नई शिक्षा नीति का स्वागत एवं अभिनंदन होना चाहिए.