हिंदी की स्थिति , गति और उपस्थिति

Girishwar Misra
प्रो. गिरीश्वर मिश्र, पूर्व कुलपति
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय

किसी भी देश के सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में भाषा बड़ी अहमियत रखती है . भाषा हमारे जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में दखल देती है. वह स्मृति को सुरक्षित रखते हुए एक ओर अतीत से जोडे रखती है तो दूसरी ओर कल्पना और सर्जनात्मकता के सहारे अनागत भविष्य के बारे में सोचने और उसे रचने का मार्ग भी प्रशस्त करती है. भारत भाषाओं की दृष्टि से एक अद्भुत देश है जिसमें सोलह सौ से अधिक भाषाएं हैं जिनमें भारतीय आर्य उपभाषा और द्रविड़ भाषा परिवारों की प्रमुखता है. ऐसे में द्विभाषिकता यहाँ की एक स्वाभाविक भाषाई व्यवहार रूप है और बहुभाषिकता भी काफी हद तक पाई जाती है. आर्य भाषा समूह में आने वाली हिंदी मध्य देश में प्रयुक्त भाषा समूह का नाम है. इसके बोलने वाले एक विशाल भू भाग में बिखरे हुए हैं. सामाजिक गतिशीलता के चलते यहां के लोग देश-विदेश में अनेक स्थानों पर पहुंचे. पर हिंदी के नाना रूप हैं जो उसकी बोलियों या सह भाषाओं में परिलक्षित होते हैं. साथ ही हिंदी का दूसरी भाषा के रूप में उपयोग करने वालों की संख्या भी बहुत बढी है. इसके विपरीत अंग्रेजी एक विदेशी भाषा है और बहुत थोड़े से लोगों की ही मातृ भाषा है पर रुतबे के हिसाब से लाजबाब है .

यह भी अजब ऐतिहासिक संयोग है कि ‘हिंदी’ शब्द इस अर्थ में हिंदी भाषा का नहीं है क्योंकि यह भारत से बाहर के लोगों द्वारा भारतवासियों को द्योतित करने के लिए प्रयुक्त किया गया . कदाचित यह ईरानी ग्रंथ अवेस्ता में मिलने वाले ‘हेंदु’ से जुड़ा है. मध्यकाल की ईरानी भाषा में ‘हिंदीक’ शब्द मिलता है . कहते हैं कि कभी गुजरात से भीतरी देश तक के विस्तृत क्षेत्र को हिंद प्रदेश माना जाता था और हिंदी शब्द देशबोधक था.

जबाने हिंदी तो संस्कृत भाषा थी . बहुत समय तक हिंदी नाम की कोई अलग भाषा का उल्लेख नहीं मिलता है . अत: हिंद क्षेत्र की भाषा हिंदी है . सत्रहवीं सदी तक हिंदवी और हिंदी समानार्थी थे और मध्य देश की भाषा का अर्थ प्रदान करते थे. बीजापुर और गोलकुण्डा जैसे दक्षिण के राज्यों में भी दिल्ली और मेरठ की खड़ी बोली प्रचलित थी . इस तरह दक्षिण में ‘दक्खिनी’ हिंदी और उत्तर भारत की भाषा के लिए हिंदी का उपयोग होने लगा. अंग्रेजों के जमाने में हिंदवी वह भाषा बनी जो हिंदुस्तान के आम जनों की भाषा थी. इस तरह हिंदी समग्र देश से जुड़ी रही है.

भाषावैज्ञानिक विश्लेषण से संस्कृत ,पाली , प्राकृत और अपभ्रंश के विविध रूपों का विकास चिह्नित हुआ है जो लगभग 1000 ईस्वी तक चला और तब शौरसेनी, नागर, अर्ध मागधी और मागधी अपभ्रंश से तमम आधुनिक अर्य भाषाओं का उद्गम हुआ. ऐसे में क्षेत्रीय भिन्नताओं के मद्दे नजर साहित्यिक और मौखिक रूपों वाली इंद्रधनुषी छटा वाली हिंदी पनपी. साहित्यिक उन्मेष की दृष्टि से ब्रज, अवधी , मैथिली, राजस्थानी और खड़ी बोली अधिक समृद्ध हुईं और अब खड़ी बोली प्रमुख हो चली है पर वह हिंदी के विविध भाषा रूपों का प्रतिनिधित्व करती है . वही अकेली हिंदी नहीं है और उसकी ऊर्जा अन्य विभिन्न सहभाषाओं से आती है. यह याद रखना होगा कि अंतत: भाषा का लोक रूप यानी मौखिक व्यवहार ही केंद्रीय होता है और वह देश काल सापेक्ष होने से बदलता रहता है .

आज छत्तीसगढी, गढवाली, बघेली, अवधी, मगही, ब्रज, मैथिली , बुंदेली, जयपुरी, भोजपुरी, कुमाऊनी, मेवाती, मारवाड़ी , मालवी, तथा खड़ी बोली आदि हिंदी के विविध रूप लोकप्रचलित हैं. उर्दू भी खड़ी बोली का ही रूप है जिसमें अरबी और फारसी का पुट है. अर्थात सिर्फ खड़ी बोली ही हिंदी नहीं है. राजनीति और लोभ लाभ की सहज मानवी प्रवृत्ति ने अनेक विवाद खड़े किए और वह प्रभुत्ववादी प्रवृत्ति अभी भी बनी हुई है जो हिंदी के वृहत्तर रूप को खंडित करती है .

ऐतिहासिक रूप से हिंदी भारत के लोक-जीवन से स्वाभाविक रूप से जुड़ी रही और देश की चेतना का माध्यम बनी. स्वतंत्रता संग्राम में उसकी अखिल भारतीय भागीदारी ने उसे ‘राष्ट्रभाषा’ बना दिया . अंग्रेज सरकार सरकारी और शिक्षा के लिए अंग्रेजी को अधिकृत कर स्थापित कर चुकी थी और अफसरशाही अंग्रेजी और अंग्रेजियत का पर्याय बन चुकी थी. उसकी राजसी ठसक सबके सामने थी और एक तरह के आभिजात्य का स्वांग उसके साथ जुड़ गया था. दूसरी ओर पराधीन भारत को स्वाधीन करने के लिए संग्राम का बिगुल बजाने में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं की प्रजा के बीच जन भाषा की भूमिका थी. उनमें हिंदी का स्वर प्रमुख रहा और जनता से जुड़ने के प्रयास में हिंदी भारत में चतुर्दिक गूंजी . सहज सम्पर्क के लिए हिंदी एक स्वाभाविक माध्यम बनी.

महाराष्ट्र हो या बंगाल, कश्मीर हो या गुजरात , पंजाब हो या दक्षिण भारत हर कहीं के गणमान्य जन नेताओं ने हिंदी को अंगीकार किया . बापू ने 1917 में देश को सम्बोधित करते हुए कहा था : “ आज की पहली और सबसे बड़ी समाज सेवा यह है कि हम अपनी देशी भाषाओं की ओर मुड़ें और हिंदी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करें. हमें अपनी सभी प्रादेशिक कारवाइयां अपनी अपनी भाषाओं में चलानी चाहिए तथा हमारी राष्ट्रीय कारवाइयों की भाषा हिंदी होनी चाहिए”. आगे चल कर हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए उन्होने कई कदम भी उठाए. संविधान की रचना तक पहुंचते-पहुंचते भाषा और सरकार के बीच की समझ बदल गई और सरकारी काम काज की भाषा यानी ‘राज भाषा ‘ (आफीशियल लैंग्वेज) का विचार अपनाया गया और जैसा कि संविधान का भाग 17 का अनुछेद 343 कहता है संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि ‘देवनागरी’ ठहराई गई. राज भाषा शब्द को अपरिभाषित छोड़ दिया गया परंतु प्रशासनिक उद्देश्य से उसे जोड़ा गया. साथ ही अनुछेद 351 में हिंदी के विकास को संघ के कर्तव्य के रूप में दर्ज किया गया. इसके लिए राज भाषा विभाग बना और हिंदी फले फूले इसके लिए ताम-झाम के साथ बहुत से उपक्रम शुरू हुए . राजभाषा नीति और उसके अनुपालन को लेकर सरकारी धींगामुश्ती होती रही.

संविधान ने आठवीं सूची नामक एक विशेष और विलक्षण प्रावधान भी बनाया और 14 भाषाओं की एक सूची डाली. इस सूची का विस्तार होता रहा और अब इसमें 22 भाषाएं हैं. अभी 38 अन्य भाषाओं की ओर से गुहार है कि उनको भी इस सूची में शामिल कर लिया जाय हालांकि सूची में सदस्यता का भाषा के विकास के साथ कोई कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं दिखता. 1965 तक आते आते हिंदी की राज भाषा का सवाल अनिश्चित काल के लिए मुल्तबी हो गया क्योंकि वह सक्षम नहीं हो सकी थी और अंग्रेजी में कार्य करते रहने के लिए अनंत काल की छूट ले ली गई . लोकतंत्र स्थापित होने पर भी सरकार चलाने के लिए अंग्रेजी की गुलामी बरकरार रही. इस बीच हिंदी के संस्थानों , समितियों, पुरस्कारों , अकादमियों, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर की जाने वाली सरकारी पहलों की फेहरिस्त लम्बी ही होती गई पर उनके क्षणिक उत्साहवर्धक और सीमित प्रभाव को छोड़ कर उनका योगदान प्राय: असंतोषजनक रहा है. सच कहें तो हर तरह के सरकारी चोंचलों के बीच यथास्थिति बनी रहे और उसे कोई ठेस न पहुंचे इसका खास ध्यान रखा जाता रहा .

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राजनीति के परिसर में भाषा ही नहीं कोई भी मुद्दा सत्ता और शक्ति के प्रयोजनों से जुड़ कर ही अर्थवान होता है और इस हिसाब से यदि हिंदी हाशिए पर बनी रही तो कोई आश्चर्य नहीं . हिंदी की अनेक गैर सरकारी संस्थाओं का स्वास्थ्य अन्यान्य कारणों से गिरता गया है. इधर भाषा प्रौद्योगिकी में चमत्कारिक बदलाव से हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को जीवन दान मिला है और अब रचनात्मक अभिव्यक्ति का विराट स्फोट हो रहा है . मीडिया , व्यापार जगत और मनोरंजन आदि के क्षेत्रों में हिंदी की पकड़ मजबूत हुई है परंतु हड़बड़ी में हिंदी के हिंग्लिश होते जाने की चिंता भी सताने लगी है. संस्कृति का भी अपना व्याकरण होता है और वैश्विक होने के चक्कर में उदारवाद, निजीकरण, नव उपनिवेशवाद और पश्चिम के ज्ञन और विकास के आतंक छाते रहे हैं पर इनक प्रतिकार तो दूर दक्षिण और वाम के तर्क के बीच में उलझा कर भारतीयता के व्यापक और समावेशी भाव को ही अस्त व्यस्त किया जाने लगा है.

इस पूरे परिवेश में देश की ताजी शिक्षा नीति ने प्रकट रूप से मातृभाषा को सम्मान देने और अपनी भाषा में शिक्षा देने लेने के अवसर का एक खाका खींचा है . भाषा का प्रयोग अस्मिता और भावना के साथ जीवन में अवसरों की उपलब्धता से भी जुड़ी है.

अंग्रेजी के सम्मोहन से उबरने के लिए स्वाभाविक हिंदी की जो समन्वय और लोक से जुड़ कर जीवन पाती रही है. उसके उपयोग को बढाना होगा. भाषाओं के भविष्य को लेकर जो चिंताएं आजकल व्यक्त की जा रही हैं उन्हें देख कर यह बेहद जरूरी हो गया है कि हिंदी के गौरव गान वाली समारोह की मानसिकता को छोड़ कर हिंदी को ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अध्ययन और अनुसंधान के लिए समर्थ बनाया जाय.