Exam free education: परीक्षा – मुक्त शिक्षा की ओर: गिरीश्वर मिश्र
Exam free education: सामान्य वार्षिक परीक्षा जिसमें एक स्थान पर एक निश्चित समय में निश्चित प्रश्नों का उत्तर देना होता है अभी तक मानक स्थिति मानी जाती रही है . विद्यार्थियों , पालकों और अध्यापकों के सुरक्षा, सेहत और तनाव के मद्दे नजर इस व्यवस्था को नकारना चुनौती और अवसर दोनों है. विवश हो कर ही सही अब इस अर्थहीन परीक्षा का उचित विकल्प ढूँढ़ना ही होगा
प्रचंड करोना काल में आकस्मिक रूप से उठी जीवन-रोधी आंधी ने आज आदमी को उसके अस्तित्व के उन मूल प्रश्नों से रूबरू कर दिया है जिनकी व्याख्या में उलझने से लोग अक्सर बचते-बचाते रहे हैं और जैसे-तैसे काम चलाते रहे हैं. इस दौरान प्रकृति और खुद स्वयं के बारे में हमने कई गलतफहमियाँ भी पाल रखी थीं. अपने स्वभाव और रिश्ते को लेकर हम सब विकास की एक एकांगी मानसिकता के साथ दौड़ लगाते चल रहे थे. कोरोना ने इन सब पर भयानक प्रश्नचिह्न लगा दिया है. इस विषाणु की उल्टी सीधी चाल के चलते लम्बी खिंची महामारी के बीच हो रही उठा-पटक में चाहे अनचाहे देश की आर्थिक , सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक जीवन की अब तक की स्वीकृत सामान्य व्यवस्थाओं में बहुत सारे बदलाव करने पड़ रहे हैं. इसके फलस्वरूप अब हर किसी को नए सिरे से अपने को व्यवस्थित करना जरूरी होता जा रहा है.
कोरोना से बचाव के लिए सामाजिक दूरी और स्वच्छता आदि की जरूरी शर्तों ने नई व्यवस्था अपनाने के लिए विवश कर दिया है . अब चाह कर भी हमारे विकल्प सीमित – संकुचित होते जा रहे हैं और हमें नई शर्तों के साथ जीने का अभ्यास करना पड़ रहा है. कुल मिला कर आसन्न मृत्यु के भय से जीवन का ढांचा भरभरा रहा है. बाजार , उपभोक्तावाद , वैश्वीकरण और आत्यंतिक भौतिकता के बड़े आकर्षक लगने वाले तर्क अब कुछ खोखले लगने लगे हैं. विकास का अर्थ क्या हो ? किसका विकास हो और कैसे हो ? ये सब सवाल नए ढंग से देखे परखे जा रहे हैं. ‘ स्वस्थ ‘ रहने का अर्थ होता है अपने ( स्व) में रहना ( स्थ ) . औपनिवेशिक दौर में हम पराधीन थे परन्तु अब हम स्वराज के दौर में हैं. परन्तु हमने इस उत्तर उपनिवेश के दौर में भी अपने मन और बुद्धि स्व के बदले दूसरे (पर !) में ही स्थापित कर काम चला रहे हैं.
करोना के दौर में मजबूरी में ही सही हमको स्वदेशी , स्वावलंबन , संतोष और संयम जैसे पुराने पड़ रहे शब्दों का अर्थ फिर से समझना पड़ रहा है. इस क्रम में भारत की शिक्षा व्यवस्था जिससे समाज बनता है उसके ताने-बाने कुछ ज्यादा उलझ गए हैं .
चूंकि कोविड आने के पहले की अवस्था में शिक्षा संस्थाएं चल रही थीं , पढाई-लिखाई के नाम पर प्रवेश और परीक्षा का कार्यक्रम विधिवत संपादित हो रहा था . एक ख़ास तरह के काम में सभी लोग बझे हुए थे . विद्यार्थी , अध्यापक और पालक सभी प्रचलित व्यवस्था का आदर करते हुए उस पर अपना भरोसा बनाए हुए थे. औपचारिक व्यवस्था की कमियों की पूर्ति के लिए ट्यूशन और कोचिंग पर अतिरिक्त भी खर्च करने को तैयार रहे. यह सब इस तथ्य के बावजूद हो रहा था कि सबको पता था कि पाठ्य क्रम , पाठ्य चर्या , मूल्यांकन , और अध्यापक प्रशिक्षण आदि की कमजोरियां शिक्षा की आयोजन को अन्दर से लगातार खोखला कर रही थीं . इस प्रणाली में परीक्षा का ही सबसे जादा माहात्म्य है. साल भर क्या पढ़ा लिखा गया इससे किसी को उतना मतलब नहीं होता जितना कि सालाना इम्तहान में क्या अंक या श्रेणी मिलती है . इसलिए सही गलत किसी भी तरह परीक्षा में दांव लगाना ही सबका लक्ष्य होता गया. यह इसलिए भी कि परीक्षा के अंक ही इस क्षणभंगुर जीवन में नित्य होते हैं.
इनका ठप्पा अकाट्य होता है और विभिन्न अवसरों के लिए आर पार तय करने वाला होता है. यही नहीं हाई स्कूल का (कागजी ) प्रमाण पत्र आयु का अंतिम प्रमाण बन जाता है. कहना न होगा कि परीक्षा की प्रामाणिकता को लेकर उच्च शिक्षा के शिखर तक संशय फ़ैल चुका है. इस व्यवस्था से निकल रहे अधिकाँश छात्र छात्राओं की दक्षता , कौशल और योग्यता को ले कर सवाल उठते रहे हैं . बेरोजगार युवा वर्ग की बढ़ती संख्या स्वयं बहुत कुछ कहती है. इन खामियों से उबरने के लिए सरकार शिक्षा-नीति में बदलाव लाने की मुहिम पिछले पांच छः वर्ष से चलती रही है और अब उसका खाका सार्वजनिक हो चुका है. जैसी सूचना है उस खाके को मूर्त रूप देने का काम भी तेजी से चल रहा है , यद्यपि उसकी स्पष्ट रूप रेखा उपलब्ध नहीं है. इस बीच कोरोना की महामारी ने शिक्षा को आपातकाल में डाल दिया है और सब कुछ भगवान भरोसे हो रहा है .
साल भर से अधिक हुआ विद्यालय, महाविद्यालय , विश्वविद्यालय सभी भौतिक दृष्टि से प्रत्यक्ष शिक्षा देने की जगह दूर शिक्षा का आश्रय लेने को मजबूर हो चुके हैं. जहां सुविधा और संसाधन हैं वहां इंटरनेट के द्वारा विद्यार्थियों को पढ़ाने की कवायद और परीक्षा का कृत्य भी पूरा किया जा रहा है. चूंकि यह सब अचानक बड़े पैमाने पर हुआ इसके लिए कोई तैयार न था . विद्यार्थी और अध्यापक किसी को भी इसका अभ्यास न था . धीरे-धीरे जूम और वैसे ही दूसरे प्लेट फ़ार्म की सहायता से अध्यापन ने जोर पकड़ा है पर शिक्षा का व्यापक आशय – मन , शरीर और आत्मा को स्वस्थ और स्वायत्त बनाना अब और दूर चला गया है. समता और समानता के लक्ष्य भी बिसराने लगे क्योंकि बच्चे अच्छे मोबाइल और लैप टाप से लैस होना चाहते हैं जो गरीब और निम्न मध्य वर्ग को सहजता से सुलभ नहीं है. इनकी आदत या व्यसन से पैदा होने वाले खतरे ऊपर से हैं. तथापि आज की हालात में हमारे पास इस अन्धकार से उबरने का कोई और विकल्प भी नहीं है.
कोरोना के संक्रमण के भय से स्कूल कालेज को खोलना भी खतरे से खाली नहीं है . अनुमान के अनुसार कोविड की तीसरी लहर का भी अंदेशा बना हुआ है जिसका असर बच्चों और किशोरों पर अधिक होने के संकेत दिए जा रहे हैं. लाखों अध्यापकों और करोड़ से ज्यादा विद्यार्थियों को ले कर चलने वाली देश की विराट शिक्षा व्यवस्था को स्वास्थ्य , सुरक्षा और प्रामाणिकता के साथ संचालित करना सचमुच विराट चुनौती है . इसलिए केन्द्रीय सरकार ने बोर्ड की परीक्षाओं को निरस्त करने का फैसला किया है हालांकि प्रदेशों के परीक्षा बोर्ड अपने लिए फैसले लेने के लिए स्वतन्त्र होंगे.
सामान्य वार्षिक परीक्षा जिसमें एक स्थान पर एक निश्चित समय में निश्चित प्रश्नों का उत्तर देना होता है अभी तक मानक स्थिति मानी जाती रही है . विद्यार्थियों , पालकों और अध्यापकों के सुरक्षा, सेहत और तनाव के मद्दे नजर इस व्यवस्था को नकारना चुनौती और अवसर दोनों है. विवश हो कर ही सही अब इस अर्थहीन परीक्षा का उचित विकल्प ढूँढ़ना ही होगा . सीखने के अवसर और उद्देश्य को ध्यान में रख कर मूल्यांकन की सतत प्रक्रिया सीखने की प्रक्रिया में ही शामिल होती है यानी मूल्यांकन सीखने में होता है ; मूल्यांकन उसका हिस्सा होता है न कि सीखने से बाहर की चीज . सीखने का मूल्यांकन जैसा कि अभी तक ज्यादातर होता आया है हौआ बन गया. दोनों के बीच अन्तरंग और जैविक रिश्ता होना चाहिए . मूल्यांकन सीखने से बाहर की चीज नहीं होनी चाहिए. वैसे भी मूल्यांकन से यह पता चलना चाहिए कि विद्यार्थी को क्या आता है .
प्राप्तांक , ग्रेड और श्रेणी सिर्फ अप्रत्यक्ष रूप से ही यह बताते हैं कि तुलनात्मक दृष्टि से विद्यार्थी कहाँ खड़ा हुआ है न कि कौशल की जानकारी देते हैं . परीक्षा में मिले अंकों से जीवन की वास्तविकताओं से टकराने और उनके समाधान के कौशल की कोई जानकारी नहीं मिलती है. वैसे भी साल भर या दो साल के शैक्षिक जीवन की यात्रा को दर किनार रख तीन घंटे की परीक्षा में पांच प्रश्नों का उत्तर से कैरियर का बनना बिगड़ना श्रम की जगह भाग्य को ही महत्त्व देता है. अब शिक्षाविदों को शैक्षिक योग्यता को दर्शाने वाले दूसरे मापकों की तलाश करनी होगी जो न केवल अधिक साख वाले हों बल्कि विद्यार्थियों की सृजनामक क्षमता , निर्णय की क्षमता और ज्ञान के उपयोग को दर्शाते हों. बौद्धिक योग्यता की प्रामाणिकता अपने परिवेश , समाज और प्रकृति के साथ रहने और अनुकूलन की व्यावहारिक उपलब्धि में ही प्रकट होती है. जो क्रियावान होता है वही विद्वान होता है.
इस दृष्टि से अब आभासी शिक्षण की दुनिया में रिमोट परीक्षा के एक सार्थक माडल को विकसित करना होगा जिसमें स्मरण , समझ , विश्लेषण , सृजन और निर्णय आदि को सीखने के व्यापक परिवेश में स्थापित करना जरूरी होगा. इस दिशा में देश विदेश की विभिन्न शिक्षा संस्थाओं में प्रयोग चल रहे हैं. छात्र छात्राओं को अपनी क्षमता व्यक्त करने का समुचित अवसर देना परीक्षा के भूत से मुक्ति दिलाने में निश्चित रूप से सहायक होगा जो मानसिक अस्वास्थ्य और पारिवारिक तनाव का एक बड़ा कारण बना रहता है. परीक्षा का सार्थक विकल्प शिक्षा को उसकी अनेक बाधाओं से मुक्त करेगी .
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