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World Hindi Day: शिक्षा और ज्ञान के भाषाई सरोकार : लोक तंत्र के आधार

World Hindi Day: भाषा एक विलक्षण क़िस्म की प्रकृतिप्रदत्त मानवीय शक्ति है । यह शक्ति स्वभाव से दुधारी तलवार की भाँति कार्य करती है । वह अनुभव में ग्रहण की जाने वाली हमारी तरल गतिशील दुनिया को क़ाबू में लाने और बनाए रखने के लिए उसके छोटे-बड़े खंड चुनती है फिर उनके चारों ओर सीमाएँ खड़ी करती है। सीमाओं में बांध कर उस अनुभव को शब्दों का ठोस आकार देती है । ऐसा करते हुए भाषा उस नई कृति का मन मुताबिक़ उपयोग करने की छूट देती है।  यह ज़रूर है आदमी को उस नई भाषाई वस्तु का पता तब तक नहीं रहता जब तक कहा नहीं जाता या इंगित नहीं किया जाता यानी संचार का लक्ष्य नहीं होता ।

भाषा की इस अपरिमित सर्जनात्मक शक्ति का दोहन सामाजिक परिवेश में होता है। पर वाक् सदैव कल्याणी ही नहीं रहती। उसका उपयोग और दुरुपयोग दोनों किया जाता है। आश्वस्ति की जगह संदेह, भय और अविश्वास की पूँजी के साथ ही प्रभुता और वर्चस्व का व्यापार भी चलता है। साम्राज्यवादी नज़रिया  उपनिवेश के हित को साबुत या अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए अपनी प्रभु-भाषा को अधिकाधिक प्रयोग में लाता है । भाषा के इस तरह के संयोजन से प्रभु-भाषा अपने अधीन समुदाय के जनों की पराधीनता तथा हीनता की अनुभूति को तीखा बनाने का काम पूरा करती है। साथ ही वह उनकी अपनी भाषा की प्रामाणिकता को भी चुनौती देती है।

उदाहरण के लिए आज भी अपनी बात पर ज़ोर देने के लिए, उच्चता को स्थापित करने के लिए और सोच-विचार के विकल्पों और सर्जनात्मकता को प्रतिबंधित करने के लिए अंग्रेज़ी का प्रयोग लोग धड़ल्ले से करते हैं। उच्चतम न्यायालय में आज भी भारतीय भाषाओं का उपयोग वर्जित है। यह सब लोकसामान्य को अभिव्यक्ति से और अंतत: न्याय से महरूम करना है। अपरिचित अन्य भाषा का उपयोग लादने की कोशिश अनुभव को व्यक्त करने पर रोक लगाती है और सत्य को आवरण से ढकने का काम करती है । यह सब सामाजिक और मानसिक भेदभाव को प्रतिष्ठित करता है और बनाए रखता है ।

एक पराई भाषा का प्रयोग ऐसी युक्ति के रूप में होता है जो संवाद को अधूरा, अपर्याप्त और असंभव बनाती है। लोकतांत्रिक भागीदारी को कमजोर करते हुए भाषाई प्रत्यारोपण की यह मजबूरी एक बड़े तबके का बड़े पैमाने पर सामाजिक–आर्थिक दोहन और उसके पिछड़ेपन का एक बड़ा कारण बनता आ रहा है। चूँकि हर व्यक्ति की स्वाभाविक इच्छा होती है वह अपनी बात कह सके और दूसरे उसे ध्यान से सुनें। ऐसे में अपने को अव्यक्त बनाए रखना असह्य पीड़ा को जन्म देता है। इससे अस्तित्वहीनता की अनुभूति होती है।

यदि कोई वक्ता अपने अभिप्राय को आवरण में ही रखे तो उसकी अपनी निजी पहचान खोती जाती है और अपना पराया होता जाता है। अंग्रेज़ी शासन काल में भारत में भी यही हुआ और भारतीय मानस पर पर्दे पड़ते रहे, और कुछ भिन्न दिखाया और पढ़ाया जाता रहा। दुर्भाग्य से हम अपने को उसी की तरह रचते रहे और धन्य मानते रहे ।  अभिव्यक्ति में अपेक्षित  पारदर्शिता न होने देने से शासकीय मानसिकता का प्रजातंत्रीकरण न हो सका। पर जनता का राज तभी सम्भव होता है जब एक समावेशी संवाद-परिसर बन सके ।

स्वराज, स्वाधीनता और स्वतंत्रता जैसे पदों की शब्द-रचना में ‘स्व’ केंद्रीय है। यह किसी व्यक्ति का वाचक न हो कर पूरे समाज या देश को व्यंजित करता है। इसमें सबकी उपस्थिति है और सर्वतोमुखी विकास की आकांक्षा है । इस लक्ष्य को पाने के लिए उसमें समाज के सभी वर्गों की अधिकाधिक भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए । इस दृष्टि से विचार करने पर हमारा ध्यान भारत की भाषाई विविधता पर जाता है । आज की स्थिति यह है कि संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं को नामांकित किया गया है जो प्रमुखता से भारतीय समाज में प्रयुक्त होती आ रही हैं। सांवैधानिक प्राविधान के तहत हिंदी को राजभाषा के रूप में स्वीकृति प्राप्त है और अंग्रेज़ी सह राजभाषा है ।

शिक्षा, विशेषतः आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा का वर्तमान स्वरूप अंग्रेज़ी राज में औपनिवेशिक परिप्रेक्ष्य में शुरू हुआ था और भारतीय भाषा की जगह विदेश की अंग्रेज़ी भाषा को उसके संचालन के लिए माध्यम के रूप में स्थापित किया गया । यह अंग्रेज़ी राज की सुविधा के लिए था और उसकी परियोजना के अनुसार पश्चिमी ज्ञान को असंदिग्ध रूप से श्रेष्ठ मानते हुए भारत में उसके प्रचार-प्रसार के लिए विशेष प्रत्न हुआ । इस तरह भाषा और विषय दोनों का ही आयात किया गया और शैक्षिक संरचना में यहाँ की उच्च शिक्षा की संस्थाओं को उसके अनुरूप ढाला गया ।

पठन-पाठन और परीक्षा की पूरी व्यवस्था लंदन विश्वविद्यालय की ढर्रे पर स्थापित की गई । इस तरह अंग्रेज़ी के साथ-साथ पश्चिमी ज्ञान और संस्कृति का सतत विस्तार भी भारत में हुआ । साथ ही यहाँ की ज्ञान परम्परा और भारतीय भाषाओँ की सतत उपेक्षा भी होती रही । इस प्रक्रिया में भारतीय शिक्षा का भारत के साथ विलक्षण सम्बन्ध बनता रहा जिसमें भारत अपनी विरासत से कटता रहा और पश्चिमी ज्ञान के उपयोग और प्रसार की एक प्रयोगशाला निर्मित होती रही । इसके फलस्वरूप देशज ज्ञान हाशिए पर भेजा जाता रहा या फिर उसे पश्चिमी ज्ञान के अनुकूल बनाया जाता रहा । दोनों ही तरह से वह दुर्बल होती रही। इस तरह भारत के ज्ञान केंद्रों पर ज्ञान सृजन करने की जगह ज्ञान का अनुकरण और समायोजन का काम ही चलता रहा ।

विद्यार्थी के लिए अंग्रेज़ी सीखना, विषय को सीखना और इच्छा तथा सुविधा के अनुसार उसका उपयोग करना एक मानक काम बन गया । शिक्षा की जटिलता बढ़ गई ।विद्यार्थी पर शिक्षा का भार भी बढ़ गया । साथ ही जीवन भर एक अनिवार्य हीनता-ग्रंथि का भी बीजारोपण हो गया । दूसरे की ओर देखना उसकी नियति बनती गई । ग़ुलामी की मानसिकता इतनी प्रचंड कि आज भी कई स्कूल अंग्रेज़ी न बोलने और हिंदी बोलने पर विद्यार्थी को दंडित करते हैं । अंग्रेज़ी में बात करना  बहुतों के लिए अभेद्य सुरक्षा-कवच की तरह काम करता है तो बहुत लोग प्रभुत्व को बनाए रखने के लिए यत्नशील करने का ज़रिया बनाए हुए हैं । आज भी कइयों के लिए अपनी विशिष्टता दिखाने और अलग पहचान बनाने के लिए अंग्रेज़ी एक वैसाखी बन जाती है । एक भाषा के रूप में अंग्रेज़ी का अपना महत्व और आकर्षण है जिसे सभी स्वीकार करते हैं। अंग्रेज़ी महारानी की रूप सम्पदा है, सौष्ठव है, प्रसार-क्षेत्र है; परंतु वह किसी भी तरह भारतीय  लोकतंत्र की गरिमा के अनुरूप नहीं है ।

भारत में भाषा की ग़ुलामी की दास्तान लम्बी है उसके दुष्परिणाम का आकलन सरल नहीं है । भाषा के स्वास्थ्य बनने और बिगड़ने के साथ विचार , आचार और पूरी संस्कृति भी बनती बिगड़ती है । अभिव्यक्ति मौलिक अधिकार है पर वास्तविक कोसों दूर है । हमारे न्यायालय , विश्वविद्यालय, कार्यालय, औषधालय सभी जगह अंग्रेज़ी का ही बोल बाला है । भारतीय भाषाओं में अभिव्यक्ति पर रोक और अंग्रेज़ी सीखने के प्रलोभन का वातावरण चारों ओर मौजूद है । कदाचित यह स्थिति आम आदमियों के समाज के लिए मानव अधिकारों का हनन भी व्यंजित करती है।

लोकतंत्र की अंतर्निहित मर्यादा है सबके लिए अवसर की समानता, समता, बंधुत्व और इन सबकी राह संवाद के बीच से ही आगे बढ़ती है । पर दो नई कोटियाँ – अंगरेजीदाँ और ग़ैर अंग्रेज़ी दाँ की हम सबने खड़ी कर दी है। इसके दूरगामी आर्थिक,  सामाजिक और सांस्कृतिक परिणाम हुए जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलनते चले जा रहे हैं । उससे उपजने वाली असुविधा और दुविधा पाँव पसारती गई। ऐसी कोशिशों से और उससे अंग्रेज़ी की श्रेष्ठता और प्रामाणिकता को बल मिलता रहा । साथ ही सामाजिक जीवन में ऊँच-नीच के भेद-भाव और अनपेक्षित पूर्वाग्रह का भाषाई आधार स्वतंत्र भारत में लगातार मज़बूत होता गया । परिणामतः लोकतंत्र में राजा और प्रजा के बीच की दूरी कम होने के बदले बढ़ती गई ।

इस माहौल में यदि यही संदेश फैला कि भारत में भारतीय भाषाएँ विचलन हैं और मानक भाषा सिर्फ़ अंग्रेज़ी है तो कोई आश्चर्य नहीं। इसका बढ़ता दबाव भाषाओं के प्रयोग में अस्वाभाविक दखल के रूप में उभरने लगी। हिंदी के साथ हिंग्लिश भी प्रयुक्त होने लगी। साथ ही विचारों के स्वराज की ओर जाने की डगर लम्बी होती गई। नई शिक्षा नीति भाषा को शिक्षा के परिसर में उसकी जगह दिलाने का वादा करती है और भारत की भाषाई समृद्धि को देश के सामाजिक – सांस्कृतिक आधार को मज़बूत करने की कोशिश करती दिख रही है। सशक्त भारत के लिए भाषाई सामर्थ्य की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। —

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