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Sanatan Dharm: सनातन है जीवन का आमंत्रण: गिरीश्वर मिश्र

Sanatan Dharm: सनातन धर्म क्या है ? यह धर्म के ही आशय को व्यक्त करता है। इसका अर्थ मनुस्मृति में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में इस तरह समझाया गया है : सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् मा ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्म: सनातन: (मनुस्मृति 4,138) ।

 Sanatan Dharm: यह भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि ‘सनातन’ और ‘धर्म’ जैसे अत्यंत व्यापक महत्व के सदाशयी विचारों को लेकर अर्थ का अनर्थ करने जैसी चर्चाएँ चल रही हैं। इन अवधारणाओं का अवमूल्यन हो रहा है। पहले बिना जाने बूझे इन्हें  ‘विज्ञानविरोधी’  घोषित किया  गया था और उसे आडम्बर और ढोंग की श्रेणी में रख व्यर्थ मान लिया गया। भौतिक और आध्यात्मिक की दो श्रेणियाँ बनाई गईं । इसके साथ यथार्थ और कल्पित का भेद किया गया।  

शरीर और आत्मा के रिश्ते को विच्छिन्न कर दिया गया। भौतिक विज्ञान के अनुकूल जो अस्तित्व में होता है उसका एक ही स्वरूप स्वीकार किया गया कि वह सिर्फ़ वस्तु हो सकता है । फलतः सब कुछको  (जो विद्यमान है) वस्तु की श्रेणी में रखा गया । अब राजनीति की सहूलियत देखते हुए उसमें अनेक दूसरे दोष देखे पहचाने जा रहे हैं। ‘सनातन धर्म’ को लेकर उसे उसके मूल भाव से काट कर उस पर तोहमत जड़ कर उसकी छवि धूमिल करने की कोशिश हो रही है।

Sanatan Dharm, Pro. Girishwar Misra

इस तरह की कोशिश स्वस्थ और परिपक्व मानसिकता की जगह संकुचित मनोवृत्ति और धर्म तथा सनातन धर्म के वास्तविक विचार से अपरिचय को ही व्यक्त कर रही है। नई पीढ़ी के प्रबुद्ध और सुशिक्षित राजनेताओं से कदापि ऐसी आशा न थी। कदाचित यह हमारी शिक्षा से उपजी उस सतही सोच-विचार वाली प्रवृत्ति का फल है जो खुले दिमाग़ की जगह सुनी-सुनाई बातों और नक़ल के भरोसे अपना काम चलाती है । उससे निकले महत्वाकांक्षी राजनीति के नए किरदारों को शब्दों के सही अर्थ और सही प्रयोग से कोई ख़ास सरोकार या दरकार नहीं है।

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उनको इस बात की कोई चिंता नहीं है कि कही-सुनी जा रही बात में सत्य कितना है। उन्हें संभवतः जल्दी है क्योंकि राजनीति में जगह बनाने की हड़बड़ी है। उनकी दृष्टि सिर्फ़ मतदाताओं पर टिकी है और उनके तर्क का प्रयोजन भी सीमित और तात्कालिक है। ऐसे में फ़ौरी हस्तक्षेप के लिए नेताओं द्वारा शब्दों और विचारों का मनचाहा अर्थ गढ़ने और अपने मनचाहे अर्थ को थोपने की तमाम चेष्टाएँ होती रहती हैं।

पिछले कुछ एक वर्षों से राजनीति के गलियारों में शब्दों के मनचाहा प्रयोग और दुष्प्रयोग का चलन सबका ध्यान आकर्षित कर रहा है। साल में लगभग लगातार होते रहने चुनाव टी वी चैनलों और दूसरे मीडिया के उपक्रमों के प्रसंग में ऐसे प्रयोग अब ज़्यादा ही बढ़ते जा रहे हैं। कभी-कभी ये वार्तालाप निराधार आरोप-प्रत्यारोप के बीच अवांछित अभिव्यक्तियों का रूप ले लेते हैं चाहे बाद में उसके लिए क्षमा-याचना ही क्यों न करनी पड़े।

कहने के बाद लोग मुकरने लगते हैं और यह कह कर अपना पिंड छुड़ाते  दिखते हैं कि ‘मेरे वक्तव्य को तोड़-मरोड़ कर पेश किया गया है’ या फिर ‘मेरे कहने का यह आशय नहीं था या ‘ उसे ग़लत संदर्भ में रख कर पेश किया गया है’ आदि आदि । बहरहाल शब्द और भाषा को लेकर जन प्रतिनिधियों के बीच ग़ैर ज़िम्मेदाराना रवैया अपनाने की घटनाएँ आज एक आम बात होती जा रही है।

चूँकि भाषा एक बेहद लचीला संवाद-माध्यम है इसलिए बोलने में अनपेक्षित छूट ले लेना आसान होता है। भारतीय संविधान अपने नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी देता है। लोक तंत्र में यह स्वाभाविक भी है। उस स्वतंत्रता का (अभेद्य!) कवच सबकी मदद के लिए उपलब्ध रहता है और उसकी परिधि की कोई लिखित सीमा भी तय नहीं है न हो सकती है। उसका लाभ उठा कर कई नेता और मंत्री धड़ल्ले अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं। वाद-विवाद की ऐसी घटनाओं में जनता के लिए महत्वपूर्ण मुद्दों और देश की समस्याओं को छोड़ कर अब एक दूसरे का चरित्र-हनन शामिल हो गया है। देश और समाज को पीछे छोड़ व्यक्तियों की सत्तादौड़ राजनैतिक विमर्श का केंद्र होता जा रहा है। कई मामलों में वंशवादी राजनीति हाबी हो रही है।

इसी पृष्ठभूमि में राजनैतिक वर्चस्व की स्थापना में बढ़त पाने के लिए कुछ नेताओं ने मीडिया में ‘सनातन’ के विचार से घोर असंतोष ज़ाहिर किया है और उसमें सभी दोषों का दर्शन करते हुए उसे निकृष्ट दर्शाने की चेष्टा की है। यदि उसी को मानें तो सनातन के विचार को अपनाने वाले भी उसी निकृष्ट कोटि में पहुँच जाते हैं। परंतु उनकी यह चेष्टा इस अर्थ में बेमानी हो जाती है कि यह तरकीब उसी भेद-भाव को प्रदर्शित और पोषित करती है जिसके लिए ग़ैर सनातनी महाशय सनातन को ज़िम्मेदार ठहराते हुए उसकी भर्त्सना करते नहीं अघा रहे हैं।

अपनी घोषणा करते हुए वे भूल जाते हैं कि (Sanatan Dharm) सनातन का आशय नित्य, निरंतर, अखंड और समग्र होता है जो स्वभाव से सार्वभौमिक होता है । चाह कर भी कोई उससे पीछा नही छुड़ा सकता। सनातन सबका है और सबके लिए है । सनातन का विचार समावेशी और सर्वव्यापी अस्तित्व है। जो ऐसा नहीं सोचते या करते वे इस सृष्टि और मनुष्यता के ही विरुद्ध नहीं हैं बल्कि खुद अपने विरुद्ध भी हैं । वृक्ष जंगल नहीं होता और समग्र के बिना अंश की समझ अधूरी  ही रहेगी। सनातन का आशय निरंतर अस्तित्व के चैतन्य की संवेदना है ।  

जहां तक ‘धर्म’ शब्द की बात है तो उसका सीधा अर्थ वस्तुविशेष के गुण-धर्म या विशेषता के वर्णन से जुड़ा है। उदाहरण के लिए पानी शीतल होता है इसलिए शीतलता पानी का धर्म है। इस तरह धर्म स्वभाव को बतलाता है। मनुष्यता के स्तर पर ‘धर्म’ का तात्पर्य जीवन को धारण करने और पारस्परिक सद्भाव और उन्नति के आधारभूत सिद्धांत से है। इसे मत, अनुष्ठान, विश्वास और पूजा-पाठ के सीमित अर्थ में बांध कर देखना विचार के साथ अन्याय है। वह बड़ा ही सीमित अर्थ व्यक्त करता है जैसा कि अंग्रेज़ी के ‘रेलीजन’ से प्रकट होता है। धर्म को रेलीजन के अनुवाद के रूप में ग्रहण करना सर्वथा असंगत है।

वस्तुत: धर्म जीवन के लिए अभीष्ट मूल्य को अभिव्यक्त करता है। चार पुरुषार्थों के केंद्र के रूप में धर्म का उल्लेख इसी बात का संकेत देता है। एक प्रचलित और स्थापित विचार यह है कि धर्म वह है जिससे अभ्युदय (लौकिक समृद्धि) और पारमार्थिक कल्याण दोनों ही प्राप्त होता है : यतोभ्युदयनि:श्रेयस सिद्धि: स धर्म: ।

अब सनातन धर्म (Sanatan Dharm) पर भी विचार कर लिया जाय। सनातन धर्म क्या है ? यह धर्म के ही आशय को व्यक्त करता है। इसका अर्थ मनुस्मृति में बड़े ही स्पष्ट शब्दों में इस तरह समझाया गया है : सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् मा ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयात् एष धर्म: सनातन: (मनुस्मृति 4,138) । अर्थात् सत्य बोलो, प्रिय बोलो पर अप्रिय सत्य न बोलो। प्रिय और सत्य बोलो। यही सनातन धर्म है। यह पारस्परिक आचरण के आधार को बताता है और सामाजिक जीवन की समरसता को रेखांकित करता है।

महाभारत में कहा गया है : अक्रोधं सत्यवचनं संविभाग: क्षमा तथा । प्रजन: स्वेषु दारेषु, शौचमद्रोह एव च ।। आर्जवं भृत्यभरणम् नवैते सार्ववर्णिका :  (शांतिपर्व  60, 7-8 )  अर्थात् सनातन धर्म यही है कि आदमी सत्य बोले, क्रोध न करे, लोगों के साथ मिल बाँट कर रहे, क्षमाशील हो, अपनी पत्नी से ही बच्चा पैदा करे, पवित्रता  रखे , दूसरों से द्वेष न करे, व्यवहार में सीधापन हो, अपने ऊपर निर्भर सभी लोगों का ख़्याल करे ।  महाभारत के शांति पर्व में सनातन धर्म कुछ इस तरह से समझाया गया है :  अद्रोह: सर्वभूतेषु  कर्मणा मनसा गिरा। अनुग्रह्श्च दानं च सतां धर्म: सनातन: ( शांति पर्व 162-2 )। समस्त प्राणियों के साथ मन, वचन , कर्म और वाणी तीनों से द्रोह न रखना, दया करना, दान करना यही सज्जनों का स्वभाव है।

यही सनातन धर्म (Sanatan Dharm) है। सनातन धर्म नित्य धर्म है, सबका धर्म है और इसी से जीवन चलता है। सत्य, अहिंसा और दान को अनेक बार धर्म के रूप स्थापित किया गया है। सत्य वस्तुतः टिकने की क्षमता होती है। गतिशीलता दूसरा पक्ष है जिसे कभी ऋत कहा गया था। नित्य होते हुए भी प्रवाह के सातत्य को स्वाकार करने वाला सनातन धर्म का एक ही आग्रह है कि अपने सीमित अहं और स्वार्थ का अतिक्रमण करना ही मनुष्य का अभीष्ट होना चाहिए । स्व के घरौंदों को तोड़ कर  सबके दुःख को देखना, बाँटना और सबकी पीड़ा को दूर करना ही सनातन धर्म का  उद्देश्य  है।

सनातन धर्म (Sanatan Dharm) किसी की उपेक्षा नहीं सबके हित की बात करता है। आत्मा का विचार जीवंत अस्तित्व के रूप में चैतन्य का स्वीकार है। वह वस्तु के रूप में  सृष्टि पर क़ब्ज़ा जमाने की बात नहीं करता। वह तो पूरी सृष्टि के साथ तादात्म्य स्थापित करने पर ज़ोर देता है। वह सांसारिक जगत की उपेक्षा नहीं करता पर वह बड़े सत्य को भी देखता है। वह जड़ और चेतन जगत के पारस्परिक अवलम्बन को पहचानता है। वह इस सृष्टि पर स्वामित्व नही चाहता बल्कि सबको सहचर के रूप में ग्रहण करता है। तभी वैदिक शांति मंत्र वनस्पति, जल, चर अचर सभी की शांति की कामना करता है।

आज छोटी, क्षुद्र और संकुचित सोच के फलस्वरूप जलवायु-परिवर्तन जैसे बड़े प्रश्न खड़े हो रहे हैं और अनुभव किया जा रहा है कि पिंड और ब्र्ह्मांड स्वतंत्र नहीं हैं, उनके बीच गहन रिश्ता है । वह सब में अपनी और अपने में सबकी उपस्थिति को पहचानता है । सनातन धर्म की दृष्टि सीमित स्वार्थ से अवरुद्ध नहीं है। वह बड़े दायित्व को स्वीकार करने को तत्पर है क्योंकि वह मानता है कि धर्म जीवन धारण करता है। भगवान बुद्ध भी इसी सनंतन धम्म को सिखा रहे थे।

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