Happy republic day image

Republic day-2022: सयाना होता भारतीय गणतंत्र: गिरीश्वर मिश्र

मनुष्य द्वारा रची कुछ बेहद ताकतवर परिभाषाओं में देश, राज्य, राष्ट्र और गणतंत्र जैसी कोटियाँ भी आती हैं जो धरती पर सामुदायिक-सांस्कृतिक यात्रा में पथ प्रदर्शक की भूमिकाएं अदा करती हैं. इन परिभाषाओं की व्यावहारिक परिणति परस्परसहमति के सापेक्ष्य होती है. इतिहास गवाह है कि असहमति हिंसा को जन्म देती है और आक्रमण, युद्ध और संधियों ने इन संरचनाओं को लगातार प्रभावित किया है. अनेक देशों में सैन्य शासन ने चुनी सरकार को सत्ता से बेदखल किया है. लोभ में अनेक बार युद्ध , नर संहार और लूट मचती रही है. सभ्यता के बढ़ते कदम के साथ क्रूरता, बर्बरता, छल-छद्म और कुटिलता के नए नए रूप आते रहे हैं. न्यूक्लियर तकनालाजी ने इस परिदृश्य को और भी जोखिम भरा बना दिया है.

ऐसे में विकसित, विकासशील और अविकसित देशों के बीच की खाई पटती नजर नहीं आती. मुसीबत यह भी है कि ‘विकसित’ कहे जाने वाले ‘बड़े’ देश ऐसा बहुत कुछ करते रहते हैं जिसका खामियाजा अविकसित और विकासशील देशों को भुगतना पड़ता है क्योंकि प्रकृति के स्तर पर देशों का बटवारा अलग है और तूफ़ान, चक्रवात, वर्षा, सूखा और बाढ़ के असर कहाँ और कितने होंगे इस पर किसी देश का बस नहीं चलता. यह जरूर है कि मनुष्य के गैर जिम्मेदार आचरण जलवायु-परिवर्तन के खतरे बढ़ रहे है और इसी के बीच से सभी देशों को अपनी राह चुननी है.

दुर्भाग्य से भारत में अंग्रेजों के जमाने स्थापित संस्थाओं और प्रक्रियाओं में औपनवेशिक नजरिया इतने गहरे पैठ गया कि उसे अपनी हानि का अंदाजा ही नहीं लगा. सभ्यता की व्यापक अर्थवत्ता खोने का सबसे घातक प्रभाव मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते की समझ पर पड़ा. मनुष्य-केन्द्रिकता, भौतिकता और उपभोक्तावाद की विचारधारा प्रमुखतया यूरोप के उपनिवेशवाद की ही उपज है. इसने भारत के देशज चिंतन को बुरी तरह से क्षत-विक्षत किया जिसमें आस्थाएं, सामुदायिकता, ज्ञान-विस्तार और अर्थ-नीति सभी प्रकृति के इर्द-गिर्द स्थापित थे.

Republic day-2022

प्रकृति के साथ जीना न कि उस पर अधिकार ज़माना भारतीय स्वभाव था . इसमें पशु, वृक्ष और पृथ्वी सारा चराचर जगत आदरणीय थे क्योंकि सभी में एक ही अव्यय तत्व पहचाना गया. वस्तुत: सारे जगत में परस्पर सम्बद्धता, परस्परनिर्भरता और पूरकता अनुभव की गई थी. औपनिवेशिक हस्तक्षेप एक ही नीति और युक्ति से चल रहा था जिसमें एक ही तरह के आर्थिक विकास का माडल और औद्योगीकरण को पूरे विश्व में लागू किया गया. इसी औपनिवेशिक परियोजना के तहत विज्ञान और प्रौद्योगिकी का भी विकास हुआ. स्थानीय लोक व्यवस्थाओं को धता बताते हुए पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था, औपचारिक संगठन और न्याय व्यवस्था को प्रतिष्ठित किया गया.

अंग्रेजी उपनिवेश के दौर में न केवल आर्थिक दोहन हुआ बल्कि भारत की शिक्षा व्यवस्था, सामाजिक सौहार्द और सांस्कृतिक चेतना पर कई तरह से प्रहार किया गया और उसे अस्त-व्यस्त कर भ्रम पैदा किया गया. विकल्प के रूप में भाषा, वेश-भूषा, ज्ञान-परम्परा और कानून व्यवस्था आदि का अंग्रेजी संस्करण वैधानिक रूप से लागू किया गया. भारत की सभ्यतामूलक अस्मिता को व्यर्थ कह कर उसकी जगह राष्ट्र राज्य की अस्मिता को आधुनिक और उपयोगी घोषित किया गया. औपनिवेशीकरण के साथ एक तरह से देशज समाज, विचार और व्यवस्था का भयानक मनो-सांस्कृतिक हाशियाकरण शुरू हुआ और उसे इस तरह व्यर्थ साबित किया जाने लगा कि उपनिवेश में रहने वाले अपने संस्कृति और देशज अस्मिता से ही घृणा करने लगें.

सर्जनात्मकता और मौलिकता की जगह आत्म-अस्वीकार और फिर असंगत नए को अंगीकार करने का काम चल पड़ा. दबाव इतना भारी था कि भारतीय विचारकों के अवदान को भी प्राय: अनदेखा किया गया और गांधी , टैगोर और अरविंद जोसन की दृष्टि को लगभग नकार दिया गया. स्वतंत्र भारत के आरंभिक नेतृत्व की दृष्टि पश्चिमी दुनिया के अनुकूल नए भारत को गढ़ने की थी जिसमें वैज्ञानिकता और आधुनिकता मौजूद हो. इसके लिए ऐसा बहुत कुछ जो अंग्रेजों द्वारा चलाया गया था उसे कुछ सतही बदलाव के साथ यथावत चालू रखा गया. पराए मानक और तौर-तरीके अपनाते हुए अनुकरण को प्रमुखता मिली और पश्चिम की तरह दिखाना और होना ही आधुनिकता का पर्याय बन गया.

Pro. Girishwar MIsra,Republic day-2022

एक गणतंत्र के रूप में आकार लेने के बावजूद भारत औपनिवेशिकता की जकड़ से आजाद नहीं हो सका. लगभग दो सदियों के अंग्रेजी शासन के दौरान शिक्षा, कानून व्यवस्था, भाषा-प्रयोग, नागरिक जीवन से जुड़ी व्यवस्थाओं और विश्व-दृष्टि के मामलों में हम पश्चिम के ही मुखापेक्षी होते गए और सारी व्यवस्थाएं उसी उधारी की दृष्टि से लागू की जाती रहीं. इसका परिणाम कई तरह कि विसंगतियों और अस्त व्यस्तताओं में परिलक्षित होने लगी. प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से बेरोजगारी, गरीबी, बीमारी, अपराध और अज्ञान भी बढ़ा है. बढ़ती जनसंख्या के लिए जरूरी आधार संरचना बनाना और संसाधन मुहैया कराना जटिल होता जा रहा है. उपभोक्ता की दृष्टि को तरजीह देने से बाजार को बढ़ावा मिल रहा है. मीडिया जो स्वयं बड़ा व्यापार बन चुका है भौतिकतावादी और उपभोग प्रधान दृष्टि को बढ़ावा दे रहा है. मानवीय मूल्य से दूर होती कम गुणवत्ता वाली आम जन की शिक्षा भी भूल भुलैया से कम नहीं है जिसमें से कुछ चुनिन्दा शूरवीर ही सफकतापूर्वक पार पा पाते हैं.

पिछले सात दशकों में भारतीय गणतंत्र अनेक परीक्षाओं से गुजरा हैं और कई पड़ाव भी सफलतापूर्वक पार किए हैं. आम चुनाव समय पर आयोजित हुए हैं और एक बार आपातकाल लगाने के अतिरिक्त लोकतंत्र की विविध व्यवस्थाएं अक्षत रह सकी हैं. देश में राजनैतिक चेतना का भी विस्तार हुआ है जिसके फलस्वरूप राजनीति में समाज के कई वर्गों का प्रतिनिधित्व होने लगा है परन्तु कई राजनैतिक दलों में थकाव, बिखराव और वैचारिक खोखलापन झलकने लगा है. लोक-लुभावन नीतियों के साथ अल्पकालिक लाभ, स्वार्थ, और क्षेत्रीयता के बदौलत किसी भी तरह सत्ता हथियाने और सत्ता में बने रहने की ललक मजबूत हो रही हैं. वैचारिक प्रतिबद्धता के अभाव में धन-बल, जाति-बल, और बाहु-बल जैसे (अनैतिक!) शक्ति-स्रोतों के बढ़ते वर्चस्व के फलस्वरूप परिवेश में अनपेक्षित कोलाहल पैदा करते हुए अर्थ रचने की चेष्टा बढ़ती जा रही है.

वर्त्तमान सरकार ने ग़रीबों की तरह-तरह मदद करने , उद्योग को बढ़ावा देने, आधार संरचना को मजबूत करने, देश को सामरिक चुनौतियों के सामना करने के लिए जरूरी तैयारी से लैस करने, कृषि-व्यवस्था को सुधारने आदि की दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं और भ्रष्टाचार को नियंत्रित किया है पर शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य के क्षेत्रों में बहुत कुछ शेष है ख़ास तौर पर उदारीकरण और निजीकरण की मार से बचने की गुंजाइश कम होती जा रही है . बहुत से विषय राज्यों के जिम्मे हैं जहां क्षेत्रीय दबाव और राजनैतिक रुचियों कि दृष्टि से काफी विविधता दिखती है जिसके बीच उनके विकास की गति में काफी स्तर भेद मिलता है . ऐसे में राजनैतिक संस्कृति में गंभीरता और दायत्व बोध ले आने की जरूरत है.

देश के विकास में समाज की शक्ति का विनियोग बहुत हद तक नेतृत्व पर निर्भर करता है. देश ने कई युद्ध जीते, खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हुआ, शिक्षा का विस्तार हुआ और कई क्षेत्रों में तकनीकी महारत भी हासिल की परन्तु व्यापक समाज समानता, समता और सौहार्द के साथ आगे बढ़ने का अवसर ढूँढ़ रहा है. देश में सामाजिक–राजनैतिक तनाव को संभालना भी महत्वपूर्ण चुनौती है. इन सबसे महत्वपूर्ण यह भी है कि औपनिवेशिक मनोवृत्ति और उससे उपजी व्यवस्थाओं, संस्थाओं से कैसे मुक्त हुआ जाय. स्वाधीनता हेतु उपनिवेशीकरण से मुक्ति के लिए ज्ञान के उत्पादन को पश्चिम के अतिरिक्त भार और अनावश्यक हस्तक्षेप से मुक्त कराना होगा. भारत सभ्यतामूलक आत्मबोध रखता है जिसमें भारत भूमि माता है जिसमें एकता और देश-भक्ति का भाव नैसर्गिक है. भौगोलिक या पार्थिव चेतना कितनी प्रबल है यह मातृभूमि की पूजनीयता से प्रकट होती है. भौगोलिक एकता देश के विभिन्न क्षेत्रों में नदियों, पर्वतों, धामों, ज्योतिर्लिंगों, अरण्यों, वनों और पवित्र स्थानों की पावनता में व्यंजित होती है.

भारतवासी एक जीवित और जीवंत सभ्यता के उत्तराधिकारी हैं. भारतीय गणतंत्र के इतिहास में अब तक जनता ने अपने मतदान से सरकारों की स्वीकार और अस्वीकार करने का विवेक दिखाया है, चेतावनी दी है और परिवर्तन हुए हैं. गणतंत्र की परिपक्वता कोई स्थिर विन्दु न हो कर एक साधना है जो दायित्वपूर्ण जन भागीदारी और विवेकवान राजनैतिक संस्कृति पर निर्भर करती है. इस पथ पर हम चल रहे हैं पर और सावधानी के साथ चलने की जरूरत है क्योंकि इस विशाल देश की अपनी अपेक्षाएं भी बढ़ रही हैं और वैश्विक परिवेश भी स्पर्धा वाला होता जा रहा है .

आजादी के अमृत महोत्सव की बीच भारत आत्म निर्भरता की ओर अग्रसर एक नई पहचान के साथ आत्म विश्वास के साथ खडा हो रहा है . विश्व मंच पर उसकी साख बनी है. आर्थिक दृष्टि से वह सुदृढ़ हुआ है और काम धाम में पारदर्शिता आई है. कोरोना की महामारी से संघर्ष में देश को बड़ी सफलता मिली है . शिक्षा के क्षेत्र में देश परिवर्तन की दहलीज पर खड़ा दिख रहा है . प्रगति की इस लय को बनाए रखने के लिए श्रम को मूल्यवान बनाने वाली कार्य-संस्कृति का विकास जरूरी है.

क्या आपने यह पढ़ा…Neeraj chopra medal: गोल्डन ब्वॉय नीरज चोपड़ा को बड़ा सम्मान, गणतंत्र दिवस पर दिया जाएगा परम विशिष्ट सेवा पदक

Hindi banner 02