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Jivan me ShreeRam: जीवन में श्रीराम  : आधुनिक संदर्भ 

Jivan me ShreeRam:Girishwar Misra

Jivan me ShreeRam: विश्व की सभी ज्ञात प्राचीन सभ्यतायों के बीच भारतीय सभ्यता अपनी निरंतरता के लिए एक प्रतिमान सरीखी है। इसमें जीवन-प्रवाह के क्रम में समग्र जीवन को आत्मसात् करने की विलक्षण शक्ति सहस्राब्दियों से विद्यमान रही है । तरह-तरह के उतार-चढ़ाव से गुजरती हुई, बाहरी आक्रमणों और आतताइयों के अत्याचारों, अनाचारों, दुरभिसंधियों और शोषण-हनन के लगातार प्रयासों के बावजूद भारत की मूल सांस्कृतिक चेतना शेष रही । यह उपलब्धि प्रत्यक्ष प्रमाणों, सांस्कृतिक अभ्यासों, लोकजीवन की पद्धतियों, सामाजिक प्रथाओं, विश्वासों और ज्ञान की परिपाटियों के आलोक से परिपूर्ण शास्त्रों में ही नहीं अंकित हैं बल्कि उन मूल्यों और जीवन की प्रतिबद्धताओं में भी सजीव हैं जो हजारों वर्ष बाद भी भारतीय समाज में आज भी प्रवाहित और स्पंदित हैं । सांस्कृतिक और पारिवेशिक प्रभावों के बीच ये प्रयास समाज के सभी वर्गों और समुदायों को जोड़ कर चलने वाला तो थे ही वे इस दृष्टि से और भी समावेशी रहे हैं कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के व्यापक पुरुषार्थों को भी सम्बोधित करते हैं । यहाँ का जीवन-चिंतन कभी एकांगी नहीं रहा था न ही किसी निहित सीमित उद्देश्य से ही परिचालित हुआ था । भारतीय चिंतन की यह खूबी रही है कि वह लौकिक और पारलौकिक, आभासिक और आध्यात्मिक, शारीरिक और आत्मिक जैसी कोटियों वाली द्विविध (बाइनेरी) श्रेणियों को अस्वीकार करती है । इन कोटियों के आभासी भेद केवल सीमित और संकुचित अर्थ ही प्रदान करते हैं। इसीलिए कई बार प्रेक्षकों को यह परस्परविरोधी भी प्रतीत होती है। इसका मुख्य कारण यह है कि भारतीय दृष्टि क्षेत्र और परिवेश के साथ सामंजस्य बिठाती चलती है । यहाँ के होली दिवाली जैसे उत्सव ही लें । ग्रामीण परिवेश में अभी भी वे किसानों के लिए खेती की उपलब्धि और तैयारी से जुड़े अवसर होते है I ये सभी ऋतुओं से जुड़े बदलाव सामान्य कृषि-जीवन और लोक मानस दोनों में समानांतर रूप से जीवन का नया क्षितिज रेखांकित और प्रतिबिम्बित करते आ रहे है। सौमनस्य और समरसता इन उत्सवों का मुख्य प्रयोजन रहा है। इस परिप्रेक्ष्य में श्रीराम का चरित और कथा मनुष्य के पराक्रम की महनीय गाथा  के रूप में अविस्मरणीय है।

आदि काव्य ‘वाल्मीकि रामायण’ को पढ़ें तो उसके आरम्भ में आदिकवि ने संप्रति यानी समकालीन नायक की तलाश की बात छेड़ी है I वे महाज्ञानी महर्षि नारद को अपने काव्य के नायक के लिए उपयुक्त गुणों की एक सूची थमा देते हैं I इसमें शामिल कुछ प्रमुख गुण हैं – गुणवान, शक्तिसंपन्न, धर्मज्ञ, कृतज्ञ, सत्यवाक्य, दृढव्रत, चरित्रवान, सभी प्राणियों का हित करने वाला,  विद्वान, समर्थ, प्रियदर्शन, आत्मवान, क्रोध पर विजय रखने वाला, द्युतिमान, ईर्ष्या न करने वाला, और ऐसा व्यक्ति जिसके क्रोध के आगे देवता भी डरते हों । सभी लोकों में विचरण करने वाले और त्रिकालदर्शी नारद जी कहते हैं कि ये सारे गुण तो बड़े दुर्लभ हैं परंतु एक चरित्र ऐसा है। इक्ष्वाकु वंश में जन्मा और ‘राम’ इस नाम से जो प्रसिद्ध हैं उनमें ये सारे गुण मिलते हैं I नारद श्री राम के उन गुणों को खुद भी गिनाते हैं I उनकी सूची में दिए गए प्रमुख गुण हैं नियतात्मा, द्युतिमान, धृतिमान, वशी,  बुद्धिमान, नीतिमान, वाग्मी, श्रीमान, शत्रुहन्ता I नारद जी श्री राम की शारीरिक क्षमताओं का भी एक रेखा चित्र खींचते हैं जिसमें ख़ास विशेषताएं हैं: लम्बी कद काठी, लम्बी बांह, बड़ी बड़ी आँखें, कम्बुग्रीव, आजानुबाहु, उन्नतललाट, सुविक्रम, समविभक्तांग,  स्निग्धवर्ण, पीनवक्ष आदि I वे लक्ष्मीवान, शुभलक्षण, धर्मज्ञ, सत्यसंध, प्रजाहितैषी, यशस्वी, शुचि, श्रीमान, धर्मरक्षक, वेदवेदांगतत्वज्ञ, सर्वशास्त्त्रार्थतत्वज्ञ, स्मृतिमान, प्रतिभानवान, सर्वलोकप्रिय, साधु और विचक्षण भी हैं I उनमें समुद्र जैसा गाम्भीर्य, हिमालय सा धैर्य है I वे विष्णुसदृश शक्तिमान, सोम की तरह प्रियदर्शन, कालाग्निसदृश क्रोधी, पृथ्वी जैसा क्षमाशील, धनद की तरह त्यागी,  धर्मराज की तरह सत्यवादी, प्रकृतिहित से युक्त और प्रकृतिप्रियकामी हैं I यह ब्योरा हमारे सम्मुख एक संवेदनशील चरित नायक की छवि प्रस्तुत करता है जो संकल्प और सामर्थ्य से गतिशील है I

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श्रीराम की कथा शील, शक्ति और मर्यादा की मानवी यात्रा की जटिलता को अभिव्यक्त करती है । नैतिक मूल्य की प्रतिष्ठा हर युग में एक बड़ी चुनौती रही है। नीति-अनीति, न्याय-अन्याय, और धर्म-अधर्म के बीच उठाने वाले द्वंद्वों के ढेरों प्रसंग इस कथा में पिरोए गए हैं और उनका समाधान भी दर्शाया जाता रहा है। जैसा कि प्रसिद्ध है लंका-विजय के बाद श्रीराम अयोध्या आते हैं और वनवास की अवधि छोटे भाई भरत से राज्य सँभालते हैं । पुरुषार्थ द्वारा सत्य और धर्म की स्थापना और उसकी रक्षा इस यात्रा का चरम विंदु है जो राम के पुरुषोत्तम रूप में चरितार्थ होता है । जीवन के इस उत्तर अध्याय में वे शासन की रीति-नीति किस तरह हो इसे ले कर जूझते रहते हैं । इस अवधि की कथा में श्रीराम की नई पहचान निखरती है और उनका आत्म-विस्तार नए ढंग से आकार पाता है । श्रीराम के सामने बहुत सारे दायित्व हैं और ऐसे कामों की भी लम्बी सूची है जो उनकी अनुपस्थिति में जुड़ते गए थे । वे राजा हैं और एक सामान्य नागरिक भी । वे परिवार के सदस्य के रूप में विभिन्न भूमिकाओं से जुड़े दायित्व तो उनके साथ हैं ही । इन सब की अपेक्षाओं के बीच संतुलन साधना तनी रस्सी पर से गुज़रने जैसा काम है । श्रीराम के बिम्ब में एक आदर्श की सृष्टि होती है । यह छवि आज भी जन मानस में प्रतिष्ठित है और अपने जन-नायकों में ढूँढ़ती रहती है I जरूरी है कि महत्वाकांक्षी राजनेता इनकी ओर ध्यान देते I गौर तलब है कि श्रीराम ने भी नेतृत्व के लिए लम्बी और गहन तैयारी की थी I उनको दुःख भी सहने पड़े थे और लगातार परीक्षाएं भी देनी पड़ी थीं I वैसे भी प्रकाश और अंधकार एक दूसरे के पीछे लगे रहते हैं I सतत सतर्कता और सावधानी से ही जीवन की गति बनी रह सकती है I

 भारतीय सभ्यता और संस्कृति में श्री राम की स्वाभाविक उपस्थिति कुछ ऐसे ही है जैसे पृथ्वी पर जीवन के लिए जल, अन्न और वायु अपरिहार्य हैं । भारतीय समाज में शायद ही कोई और नाम इतना प्रचलित और स्वीकृत हुआ होगा जितना राम का नाम है । आज अनेक परिवार उसे अपने नाम ( सर नेम ) का स्थायी अंश बना चुके हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी नाम के साथ राम की उपाधि चलती चली आ रही है । रोचक तथ्य यह भी है कि यह प्रथा ऊँच – नीच सभी जातियों में स्वीकृत, लोकप्रिय और प्रचलित है । एक दूसरे को प्रणाम और आशीर्वाद जैसे सामान्य दैनन्दिन अभ्यास में इसका उपयोग होता है। श्रीराम की उपस्थिति इतनी भीतर भिन गई है कि भक्ति और ईश्वर-भजन में ही नहीं सुख, दुःख, दर्द, पीड़ा, सहयोग, प्रीति, संतुष्टि, शांति, आश्वासन, आश्चर्य आदि सामान्य मनोभावों की अभिव्यक्ति के लिए श्रीराम का स्मरण आम बात है । उठते-बैठते, चलते-फिरते राम राम !, हरे राम ! जय जय राम ! , जय राम जी !, सीता राम ! और श्री राम ! जैसी अभिव्यक्तियाँ अक्सर लोगों की जबान पर आ ही जाता है । वस्तुतः श्रीराम का नाम जीवन के आधार के रूप में जन मन ने अंगीकार कर अपना लिया है। रामनाम का महा मंत्र जीवन में पाथेय के रूप में प्रयुक्त होता है ।


श्रीराम का स्मरण भारतीय मानस और प्रज्ञा की कभी न चुकने वाली ऐसी अक्षय निधि बं चुका है जो हर्ष-विषाद, युद्ध-शांति और विरक्ति-आसक्ति जैसे द्वंद्वों की कठिन परिस्थितियों में प्राण-वायु की तरह जीने का आधार प्रदान करता है । मनुष्य जीवन की आद्योपांत कथा को अपने में सरस ढंग से पिरो कर राम-लीला का आयोजन सदियों से आम जनों के लिए उत्सुकता, आह्लाद और संवेदना का आश्रय बन कर रंजन करता आ रहा है । प्रायः इनके किरदार स्थानीय समाज के उत्साही सदस्य होते हैं जो नाट्य कर्म में रुचि रखते हैं । राम लीला का आयोजन स्वाभाविक जन भागीदारी का अद्भुत उदाहरण है । हो भी क्यों न ! जन्म से मृत्यु पर्यंत यज्ञ . प्रयोजन समेत सारे कार्य राम के नाम के साथ जुड़ गए हैं । जन्म, मुंडन, यज्ञोपवीत, विवाह आदि विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले मंगल द्योतक लोक गीतों के नायक के रूप में राम बार-बार आते हैं । राम के जीवन का स्मरण करते हुए उसके साथ अपना तारतम्य बिठाना किसी के लिए भी सहज होता है क्योंकि उनका चरित मानवीय संघर्षों, सामाजिक संस्थाओं, ईर्ष्या, द्वेष, लाभ, हानि, यश, प्रवंचना, त्याग, अपयश हर तरह की भावनाओं, आग्रहों, दुराग्रहों, बाधाओं से भरा हुआ है । वह कहीं से अनचिन्ह नहीं लगता और उनसे गुज़रते हुए ऐसा रिश्ता जुड़ता है उसी के आलोक में और सारे रिश्ते अर्थ पाते हैं। यह सब इसलिए संबव होता है क्योंकि श्रीराम धर्मपरायण हैं और धर्म की स्थापना ही उनका मुख्य सरोकार है।


यह भी अनोखी बात है कि राम की लोक-यात्रा के विस्तार में कोल, किरात, वानर सभी सम्मिलित होते है और इनके साथ लम्बा रिश्ता निभाया जाता है।  आज जिस तरह की कटुता, वैमनस्य, ईर्ष्या और हिंसा के भाव-समाज में फैल रहे हैं उसका मूल स्रोत व्यक्तिकेंद्रित स्वार्थी सोच में दिखाई पड़ती है उसकी सतत आत्मलीन भंगिमा के केंद्र में वह खुद अपने को पाता है और शेष दुनिया उसके इर्द-गिर्द घूमती है । स्थिर सी प्रतीत होती भौतिक दुनिया में यह मनोवृत्ति तीव्र हो उठती है कि उसके अहं भाव के अधीन ही सब कुछ चलना चाहिए और उसी की सुविधा और संतुष्टि अंतिम कसौटी है। उसका आत्म-बोध अपनी सुरक्षा के लिए घेराबंदी करता है और अपनी पुष्टि के लिए ठिकाने बनाता रहता है । उसकी इच्छाओं और आकांक्षाओं की दुनिया बुरी तरह से आत्माविष्ट रहती है । उसे यह बात विस्मृत हो जाती है कि स्वयं को केंद्र मानना एक मिथ्या आत्म प्रवंचना है । यह रावणी वृत्ति आज के जीवन का मुख्य स्वर होता जा रहा है । इसके फलस्वरूप मन की शांति और पारस्परिक सौहार्द दोनों ही कम होते जा रहे है । अशांति के बीच सुख की राह नहीं दिखती है। श्रीराम के चरित में अविचल भाव से जीवन में संतुलन स्थापित करने की शैली के दर्शन होते हैं। नि:स्पृह भाव से उदात्त मूल्यों के प्रति समर्पण से ही यश और कीर्ति मिलती है। इसके लिए आत्म साक्षात्कार और सामाजिक अवलोकन आवश्यक है। उपनिवेश काल में खोए भारत देश के गौरव को स्थापित और सवर्धित करने के लिए आवश्यक मूल्यों का साक्षात विग्रह श्रीराम में मिलता है। उनकी निकटता और उसे अनुभव में प्रतिष्ठित कर के ही जीवन संभव है। धर्म के अनुकूल ही जीना संभव है क्योंकि वही जीवन को धारण करता है ।  धर्म का विवेक आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है और श्रीराम का स्मरण इसे सरल ढंग से सम्भव बनाता है।

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