Hindi Diwas-2023: भाषा और देश का सामर्थ्य: गिरीश्वर मिश्र
Hindi Diwas-2023: संसदीय राजभाषा समिति देश में घूम कर हिंदी की प्रगति का जायज़ा लेती है । विभिन्न मंत्रालयों के लिए हिंदी की सलाहकार समितियाँ भी हैं जिनकी बैठक में सरकारी काम-काज में हिंदी को बढ़ावा देने का संकल्प दुहराया जाता रहता है ।
Hindi Diwas-2023: भाषा सबकी ज़रूरत है। हवा, पानी और भोजन की ही तरह यह भी बेहद ज़रूरी है। हम जो होना चाहते हैं उसके बारे में सोचना और उसकी ओर आगे बढ़ने के लिए हम भाषा का ही सहारा लेते हैं । दर असल भाषा का कोई विकल्प नहीं है । भाषा से गुजर कर ही हम सोचते हैं और किसी भी तरह के सृजन को आकार मिलता है । कह सकते हैं भाषा आत्मा या कहें हमारे अस्तित्व का लिबास होती है । साथ ही वह आवरण का भी काम करती है और दुराव-छिपाव को भी संभव बनाती है और हम जो चाहते हैं उसकी अभिव्यक्ति भी संभव करती है । उसके प्रयोजन अनेक होते हैं और उनकी कोई सीमा भी तय नहीं की जा सकती ।
जैसे मिट्टी के बर्तन से कुम्हार तरह-तरह के बर्तन बनाता है जिनसे भिन्न-भिन्न काम लिए जाते हैं वैसे ही भाषा से भी तरह-तरह के काम लिए जाते हैं । भाषा के काम इतने हैं कि यदि यह कहें कि भाषा कर्तृत्व की सीमा है तो अत्यक्ति न होगी। भाषा एक संवेदनशील और परिवर्तनक्षम उपकरण है । भाषा की ख़ासियत यह भी है कि उसकी सामर्थ्य विकसनशील और सर्जनात्मक है और इस अर्थ में अनंत है। भाषा ही वह आँख है जिससे हम दुनिया देखते समझते हैं। उसकी संभावनाओं की शृंखला का कोई ओर-छोर नहीं होता है ।
यह ज़रूर है कि किसी भी समय भाषाओं की दुनिया में बड़ी विविधता है। कोई भाषा अकेली नहीं होती । प्रयोक्ताओं की दृष्टि से कुछ अधिक व्यापक होती हैं तो कुछ कम । भाषा रचना भी है और रचना का माध्यम भी । वह जितनी प्रयोक्ता में उपस्थित रहती है उससे कम प्रयोग में नहीं। वह कई रूप धारण करती है । यह भी नोट करना होगा कि सामाजिक जीवन की यह विवशता है कि राजनीति भी भाषा के औजार से ही की जाती है। उसी के आधार पर संचार होता है और संवाद और विवाद की घटनाएँ भी होती हैं ।
हम लोग सार्वजनिक जीवन और मीडिया में देख पा रहे हैं कि भाषा एक बड़ा लचीला और बहु उद्देशी माध्यम है और उसका उपयोग दुरुपयोग दोनों हो रहा है । पर भाषा का भी अपना जीवन होता है और वह भी राजनीति का शिकार होती है । भाषा की शक्ति को पहचानना और उपयोग करना भी महत्वपूर्ण है । भारत की संविधानस्वीकृत राजभाषा हिंदी की स्थिति यही बयान करती है। स्वतंत्रता मिलने के पहले की राष्ट्र भाषा हिंदी को स्वतंत्र भारत में चौदह सितम्बर 1949 को संघ की राजभाषा के रूप में भारतीय संसद की स्वीकृति मिली थी।
यह स्वीकृति सशर्त हो गई ! जो व्यवस्था बनी उसमें (Hindi Diwas-2023)हिन्दी विकल्प की भाषा बन गई। आज विश्व में संख्या बल में इसे तीसरा स्थान प्राप्त है। दस जनवरी को विश्व हिंदी दिवस भी मनाया जाता है। 14 जनवरी का हिंदी दिवस हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने के संकल्प से जुड़ गया और 1953 से मनाया जा रहा है ।
देश राजनीतिक रूप से स्वतंत्र हुआ परंतु मानसिक या वैचारिक स्वराज की दृष्टि से संशय बरकरार रहा। बारहवीं सदी से प्रयुक्त हो रही हिंदी स्वतंत्रता संग्राम के दौर में फूलती-फलती रही। हिंदी जो ‘भारत–भारती’ का गान कर रही थी स्वतंत्र देश के लिए ख़तरा बन गई। इतनी ख़तरनाक हो गई कि उसे जो राजभाषा का दर्जा मिला उसे घटा कर वंदिनी बना दिया गया। हिंदी को घर में नज़रबंदी के आदेश के साथ ज़मानत मिली। उसे जो स्वीकृति मिली थी वह निर्वासन की सजा के साथ मिली ताकि वह अपने को सुधार कर ज़रूरी योग्यता हासिल कर सके जिसकी पुष्टि जब तक ‘सभी ’ न कर दें वह ज़मानत पर ही रहेगी ।
सरकारी कृपा-दृष्टि से (Hindi Diwas-2023)हिंदी को योग्य बनाने के लिए क़िस्म-क़िस्म के इंतज़ाम भी शुरू हुए । शब्द बनाने की सरकारी टकसाल बनी, प्रशिक्षण की व्यवस्था हुई, हिंदी भाषा अध्ययन और शोध के कुछ राष्ट्रीय स्तर के संस्थान भी खड़े हुए, प्रदेश स्तर पर हिंदी अकादमियाँ बनीं और विश्वविद्यालय स्थापित हुए । हिंदी के लेखकों और सेवकों को प्रोत्साहित करने के लिए नाना प्रकार के पुरस्कारों की भी व्यवस्था हुई। साथ ही राजभाषा सचिव और सचिवालय भी बना । संसदीय राजभाषा समिति देश में घूम कर हिंदी की प्रगति का जायज़ा लेती है । विभिन्न मंत्रालयों के लिए हिंदी की सलाहकार समितियाँ भी हैं जिनकी बैठक में सरकारी काम-काज में हिंदी को बढ़ावा देने का संकल्प दुहराया जाता रहता है ।
एक केंद्रीय हिंदी समिति भी है जो पाँच सात साल में एक बार बैठती है । एक बड़ा भारी सरकारी अमला मूल अंग्रेज़ी के हिंदी अनुवाद मुहैया कराने की मुहिम में जुटा हुआ है परंतु वह अनुवाद इतना नीरस और इतना अग्राह्य हो जाता है कि उसका वास्तविक उपयोग नहीं होता है । हिंदी के उन्नति के लिए उठाए गए कदम कौन सी भाषा, किसके लिए और किस उद्देश्य से प्रेरित थे और उनकी अब तक की उपलब्धियाँ क्या हैं इसे जानने की फ़ुरसत नहीं है। हिंदी के प्रति सरकारी संवेदना जीवित है और हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए सन 1975 में विश्व हिंदी सम्मेलन की जो शुरुआत हुई उसकी कड़ी भी आगे बढ रही है।
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यह संतोष की बात है कि माननीय श्री अटलबिहारी वाजपेयी, श्रीमती सुषमा स्वराज और प्रधान मंत्री मोदी ने हिंदी की अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति को भलीभाँति प्रभावी और प्रामाणिक ढंग से रेखांकित किया है। संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को दर्ज कराने के प्रयास भी होते रहे हैं और उसमें तेज़ी आई है। अब वहाँ के संचार कार्यक्रम में हिंदी को ज़्यादा जगह मिल रही है।
देश के भीतर सरकारी कार्य की औपचारिकताएँ होती हैं, ताम-झाम होते हैं, अनुष्ठान होते हैं, आदेश और निर्देश के दस झमेले होते हैं। उन सबके बीच प्रयोजनमूलक हिंदी का उद्धार हो सके और सरकार और जनता के बीच हिंदी संवाद सेतु का कार्य कर सके इसके लिए प्रयासों के बीच संवरती उभरती निर्जीव काग़ज़ी हिंदी खड़ी करने का काम सरकारी भाषा विभाग सात दशकों से करता आ रहा है। थोपी हुई अपरिचित अस्वाभाविक भाषा जनता में प्रयोग से बाहर हो जाती है।
वह दम तोड़ने लगती है। सहज शब्द वाली लोकहिंदी की जगह खाँटी प्रयोजनमूलक जो हिंदी बनाई जा रही है जो अंतत: निष्प्रयोजन हो जाती है सिवाय इसके कि अंग्रेज़ी की सामग्री के एक हिंदी रूपांतर की खानापूरी की क़वायद पूरी हो जाती है । कई ग़ैर सरकारी हिंदीसेवी संस्थाओं और संगठनों ने शुभ संकल्प के साथ काम शुरू किया था परंतु अब उनमें से अधिकांश की स्थिति संतोषजनक नहीं रह गई है। इसका एक मुख्य कारण संसाधनों का अभाव है परंतु पुरानी निष्ठा भी नहीं रही न विद्वानों का सहयोग ही पहले जैसा रह गया है।
एक सशक्त भाषा को प्रकट में सशक्त करने परंतु वास्तव में उसके पर कुतरने के लिए(Hindi Diwas-2023) हिंदी दिवस, हिंदी सप्ताह, हिंदी पखवाड़ा या हिंदी मास का आयोजन चल पड़ा । अब विभिन्न संस्थान चौदह सितम्बर के इर्द-गिर्द कुछ आयोजन कर हिंदी के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित कर अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वाह करते हैं। एक सशक्त भाषा के प्रति सभ्य समाज का इस तरह का व्यवहार यह साबित करता है कि हिंदी को लायक़ बनाना कितना मुश्किल काम है और उसकी हालत जायज़ है। हाशियाकरण का स्मृति चिह्न बन कर हिंदी की दुर्बलता की लगातार पुष्टि करने वाला यह स्मारक यह बतलाता है कि भाषा के प्रति हमारी दृष्टि उपेक्षा की ही बनी रही है।
आज मन में अपनी भाषा के लिए प्रतिष्ठा का भाव नहीं रहा। प्रतियोगिता और पुरस्कार सब किया जाता है पर उसे कर्म के स्तर पर जीवन में अपनाने के लिए हम तैयार नहीं हैं । गौर तलब है कि अपनी भाषा में अध्ययन न कर उधार की अंग्रेज़ी के अभ्यास साथ बहुसंख्यक छात्र समुदाय में सोचने की अक्षमता बढ़ी है, मौलिकता और रचनाशीलता में कमी आई है। रटा हुआ ज्ञान पढ़ा पढ़ाया जा रहा है। उससे बाहर नज़र डालें तो आज भी ज़िंदगी में अपने आस-पास बचे-खुचे नाते-रिश्ते, शादी-व्याह, खान-पान, तिथि-महीने, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, साग-सब्ज़ी ही नहीं प्यार-मुहब्बत, रार–इकरार, और दुःख-दर्द आदि की उपस्थिति की अनुभूति और अभिव्यक्ति जिस सहजता और प्रभाव के साथ अपनी भाषा में होती है । हिंदी भारतीय संस्कृति की धड़कन है, हमारी जीवंतता का प्रमाण। उसकी शक्ति हमें समर्थ बनाती है।
वस्तुतः रचनाशीलता जीवन की निरंतरता का पर्याय होती है। हमारे होने और न होने के लिए हमारी सृजन शक्ति ही ज़िम्मेदार होती है। कुछ रचने के लिए, उस रचना तक पहुँचने और दूसरों तक पहुँचाने के लिए सहजतम और प्रभावशाली माध्यम हमारी भाषा होती है । किसी व्यक्ति या समुदाय से उसकी अपनी भाषा का छिनना और मिलना उनके अपने अस्तित्व को खोने-पाने से कम महत्व का नहीं होता है । समाज और राष्ट्र को सामर्थ्यशील बनाने के लिए उसकी अपनी भाषा को शिक्षा और नागरिक जीवन में स्थान देने के लिए गंभीर प्रयास ज़रूरी है। नई शिक्षा नीति की संकल्पना में मातृभाषा में शिक्षा का प्रावधान इस दृष्टि से बड़ा कदम है।