Covid-19 Epidemic कोविड-19 महामारी : सरकार की कथनी और करनी में अंतर
Covid-19 Epidemic: चीन के बाद विश्व में भारत जनसंख्या के आधार पर दूसरे स्थान पर है और इतनी विशाल आबादी को एक साथ टीकाकरण करना असम्भव सा जान पड़ता है
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जिन्हें भारत के लोग एक करिश्माई नेतृत्वकर्ता के रूप में अधिक देखना पसंद करते हैं और शायद एक ऐसा लोकतांत्रिक सरकार का मुखिया जिसका कोई भी निर्णय गलत नहीं ठहराया जा सकता है परन्तु पिछले एक वर्ष में कोरोना महामारी के आगमन के साथ ही न जाने क्यों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व का यह गुण कहीं खो गया है। गत वर्ष प्रधानमंत्री ने मार्च माह के अंतिम सप्ताह में कोरोना महामारी से बचाव के अंतिम समाधान के रूप में अपनी दूरगामी सोच का परिचय देते हुए पूरे देश में संपूर्ण लाकडाउन की घोषणा की थी जो कि एक सीमा तक उचित भी जान पड़ता है। लाकडाउन का अपेक्षित परिणाम प्राप्त हुआ और पूरे देश में कोरोना की रफ्तार धीमी पड़ गई।
प्रधानमंत्री के कथनानुसार महामारी से बचाव का एकमात्र एवं अंतिम उपाय सिर्फ लाकडाउन ही था। ऐसा माना जाता रहा कि बिना वैक्सीन के कोरोना से निपटना मुश्किल है और वैक्सीन ही इसका अंतिम उपाय है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि वैक्सीन ही अंतिम उपाय है परन्तु भारत सरकार एवं राज्य सरकारों का कोरोना से निपटने में दूरगामी एवं प्रभावी सोच का अभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है और इसका सबसे बड़ा उदाहरण है – महामारी से निपटने में आवश्यक एवं सहायक वैकल्पिक चिकित्सा उपचार एवं उपायों को विकसित न कर पाना और लाकडाउन में प्राप्त समय का चिकित्सा व्यवस्था में क्रांतिकारी सुधार के लिए उपयोग में न ला सकना।
अगर समय रहते केंद्र एवं राज्य के स्तर पर उचित समन्वय के साथ महामारी से निपटने के लिए दूरदर्शिता का परिचय देते हुए इन सभी विषयों को ध्यान में रखकर रणनीति तैयार की जाती तो शायद वर्तमान समय में कोरोना महामारी का यह विस्फोटक रूप शायद देखने को नहीं मिलता परन्तु विडंबना यह है कि सभी सरकारों द्वारा वैक्सीन पर अत्यधिक निर्भरता दर्शाने और अपनी स्वास्थ्य सुविधाओं में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन न कर सकने के कारण स्थिति पिछले वर्ष से भी भयावह दौर में है जबकि गत वर्ष के मध्य तक हमारे पास कोरोना महामारी से बचाव के लिए न तो उपचार के साधन ही उपलब्ध थे और न ही अन्य कोई ऐसी जानकारी जिससे इससे बचाव किया जा सके या इस पर उचित अध्धयन किया जा सके।
शायद हमारे नीति निर्माताओं का मन मस्तिष्क भारत के भूगोल को पूरी तरह समझने में असफल रहा। उन्हें शायद याद नहीं आ पाया है कि भारत एक विशाल आबादी एवं विविधताओं वाला देश है। चीन के बाद विश्व में भारत जनसंख्या के आधार पर दूसरे स्थान पर है और इतनी विशाल आबादी को एक साथ टीकाकरण करना असम्भव सा जान पड़ता है जो कि वर्तमान परिस्थितियों में स्पष्ट भी हो रहा है। इसके अलावा भारत एक विकासशील देश है और एक उचित कीमत पर प्रत्येक व्यक्ति की पहुंच तक वैक्सीन उपलब्ध हो इसके लिए वैक्सीन पर भारी भरकम सब्सिडी की आवश्यकता होगी और बजटीय आवंटन को बढ़ाना पड़ेगा।
ग्रोथ रिसेशन के दौर से गुजर रही भारतीय अर्थव्यवस्था क्या ऐसा कर पाने में सफल होगी यह भविष्य में देखने योग्य होगा! राज्य सरकारों द्वारा केंद्र सरकार पर लगातार वैक्सीन आपूर्ति के लिए जोर दिया जा रहा है परन्तु केंद्र सरकार द्वारा जनसंख्या के अनुपात में पर्याप्त वैक्सीन के अभाव में वैक्सीन प्रयोग में उम्र सीमा तय की गई है। अधिकांश राज्यों का मानना है कि वैक्सीन की आपूर्ति बढ़ाई जाए और वैक्सीन का प्रयोग करने में उम्र के प्रतिबंध को समाप्त घोषित किया जाए ताकि संपूर्ण देश में टीकाकरण कार्यक्रम को तेजी से लागू किया जा सके। राज्य सरकारों की इस मांग को केंद्र सरकार द्वारा यथाशीघ्र स्वीकार किया जाना चाहिए और सभी नागरिकों के लिए टीकाकरण का कार्य युद्ध स्तर पर संचालित किया जाना चाहिए और इस कार्यक्रम की सुनिश्चित एवं प्रभावी ढंग से क्रियान्वयन के साथ ही विशेष एजेंसी द्वारा मॉनिटरिंग भी की जानी चाहिए।
उल्लेखनीय है कि भारत में कोरोना महामारी से निपटने में स्वदेशी वैक्सीन कोवैक्सीन और कोविशील्ड का प्रयोग किया जा रहा है। वहीं शीघ्र ही रुसी वैक्सीन स्पुतनिक वी-5 को टीकाकरण अभियान में शामिल किया जाएगा। इसके लिए औपचारिक रूप से प्रयास तेज कर दिए गए हैं।
अगर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि महामारी के शुरुआती वर्ष और पूरे देश में लागू किए गए लाकडाउन से सरकार एवं सरकारी तंत्र ने कितना सीखा तो इसके लिए हमें गंभीर होकर ज्यादा कुछ सोचने की आवश्यकता नहीं है। इसका एक सरल एवं सटीक जवाब है कि सीखा परन्तु ज्यादा नहीं। पिछले वर्ष जिस स्थिति में हम थे, इस वर्ष स्थिति उससे बेहतर नहीं है सिवाय इस बात को छोड़कर कि तब हमारे पास वैक्सीन उपलब्ध नहीं थी और इस वर्ष के प्रारंभ से ही हमारे पास वैक्सीन उपलब्ध है परन्तु वैक्सीन उपलब्ध होने के बाद भी दृश्य उतना नहीं बदल पाया है जिस स्तर पर आशा की गई थी। वैसे भी आधिकारिक तौर पर वैक्सीन की सफलता दर शत-प्रतिशत नहीं है और ऐसा न केवल भारत के साथ है बल्कि विश्व की सभी सरकारों के पास उपलब्ध वैक्सीन के साथ यही समस्या है जोकि चिंतनीय है।
एक कल्याणकारी सरकार का दायित्व सभी परिस्थितियों में भी राज्य के प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा करना है जिसमें सभी बुनियादी सुविधाओं के साथ पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं को उपलब्ध कराना भी है। महामारी के काल में राज्य की यह जिम्मेदारी कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है क्योंकि यह समय मनुष्य के अस्तित्व पर चुनौती बनकर खड़ा हो जाता है और ऐसी जटिल परिस्थितियों में मनुष्यता की रक्षा करने के लिए राज्य को विशेष जिम्मेदारी के साथ आगे बढ़ना पड़ता है परन्तु भारत में केंद्र एवं राज्य स्तर पर ऐसा बहुत कम दिखाई पड़ रहा है। महामारी से पूरी तरह निपटने में असक्षम होने के बावजूद भी केंद्र एवं राज्य सरकारों का रवैया उपेक्षित दृष्टिगोचर होता है और महामारी का जिम्मा जनता पर डालकर इतिश्री कर ली जाती है जबकि वास्तविकता इससे परे है।
इस बात को स्वीकार करने से इंकार नहीं किया जा सकता है कि महामारी की गंभीरता को समझते हुए जनता को पर्याप्त जागरूकता एवं सावधानी का प्रदर्शन किए जाने की आवश्यकता है जिसके लिए उचित शारीरिक दूरी, किसी भी वस्तु को छूने के बाद हाथों की सफाई, मास्क, पर्याप्त समयांतराल पर हाथ धोना इत्यादि जरूरी उपाय अपनाना सहायक होगा। परंतु सरकारी अस्पतालों में संक्रमित मरीजों को जिन चुनौतियों एवं संघर्षपूर्ण स्थितियों का सामना करना पड़ता है, उसे कहां तक उचित ठहराया जा सकता है? सरकारी बंदइंतजामी का यह खेल कब तक जारी रहेगा? कोरोना फंड का लाभ मरीजों को क्यों नहीं मिल पा रहा है? जिस बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर इतना शोर मचाया जा रहा था वह अब चरमराती हुईं क्यों नजर आ रही है? केंद्र एवं राज्य सरकारों का एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का यह दौर कब तक ऐसे ही चलता रहेगा? क्या जनता को सरकारों को उनके अपने हाल पर छोड़ दिया जाएगा और समस्त सरकारी तंत्र मक्खी के समान जनता का रक्त चूसने का कार्य करता रहेगा! अक्सर ऐसा देखा जा रहा है कि सरकारी अस्पतालों में कोरोना संक्रमित मरीजों को जगह के अभाव का हवाला देकर भर्ती भी नहीं किया जा रहा है।
वहीं बेड, आक्सीजन, आईसीयू, वेंटीलेटर इत्यादि चिकित्सीय उपचार में सहायक उपकरणों एवं मूलभूत सुविधाओं का स्पष्ट अभाव नजर आ रहा है। वहीं कुछ ऐसे मामले भी नजर आए हैं जिनमें मेडिकल स्टाफ का रवैया संक्रमित मरीजों के साथ घोर उपेक्षित दिखाई पड़ा। महामारी के नियंत्रण उपायों के संबंध में सरकारी दावों की खुलती पोल को देखकर यह सत्य साबित होता है कि केंद्र एवं राज्य स्तर की सरकारें महामारी से निपटने के लिए एक दीर्घकालिक योजना एवं उसका प्रभावी क्रियान्वयन कर पाने में असफल साबित हुई है परिणामस्वरूप अनेक राज्यों में कोविड महामारी की गंभीर होती दूसरी लहर से निपटने के लिए नाइटक्रफ्यू, वीकेंड लाकडाउन, धारा-144 का प्रयोग इत्यादि आंशिक एवं निष्प्रभावी उपायों का सहारा लेना पड़ रहा है। स्थानीय सरकार महामारी से निपटने में सहायक आवश्यक सामग्री जैसे मास्क, सैनिटाइजर, ग्लव्स इत्यादि प्रदान करने की अपनी जिम्मेदारी को समझ नहीं पायी और यह सभी आवश्यक सामग्री बाजार की पहुंच में समा गये और यह आम नागरिक के लिए एक अतिरिक्त वित्तीय बोझ का विषय बन गया।
एक ऐसे समय में जब कोविड -19 महामारी की दूसरी लहर न केवल भारत में बल्कि पूरे विश्व में अपनी चरम सीमा पर पहुंचने की कगार पर खड़ी है, इस बात को नजरंदाज करते हुए केंद्र में सत्तारूढ़ दल एवं अन्य विपक्षी दल पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, पुड्डचेरी एवं केरल में लोकतंत्र के नाम पर सियासी खेल खेलने में व्यस्त है। जहां पर खुलेआम चुनावी जनसभा में कोरोना प्रोटोकॉल का उल्लघंन कर लाखों की भीड़ जुटायी जाती है, हजारों की संख्या में मौजूद लोगों की उपस्थिति में रोड़ शो कर अपनी गैर-जरूरी एवं गैर-जिम्मेदाराना ताकत का प्रदर्शन किया जाता है और एक दूसरे पर निंदनीय आरोप-प्रत्यारोप के साथ ही अनैतिक राजनीतिक व्यवहार का प्रदर्शन किया जाता है जबकि असल चुनावी मुद्दे धर्म एवं जातिवाद की राजनीति में फंसकर गायब हो जाते है।
सोचनीय है कि लोकतंत्र के नाम पर लोगों के साथ यह खिलवाड़ कब तक जारी रहेगा? आवश्यकता इस बात की है कि केंद्र एवं राज्य सरकारों के स्तर पर महामारी से निपटने एवं बचाव के उपायों की पुनर्समीक्षा की जाए और ठोस नीति का निर्माण कर उसका प्रभावी क्रियान्वयन किया जाए वरना देश एक बड़े संकट का सामना करने की दहलीज पर पहुंच चुका है जिसका परिणाम भयावह होगा। (डिस्क्लेमर:प्रकाशित लेख लेखक के निजी विचार हैं।)
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